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चार्ल्स डार्विन -एक युग द्रष्टा !
जी हाँ आज चार्ल्स डार्विन की दो सौवीं जयंती है -बोले तो द्विशती ! इसी महामानव -वैज्ञानिक मनीषी ने सबसे पहले प्रमाण सहित दुनिया को बताया कि धरा पर सृष्टि की विविधता का रहस्य क्या है ? क्या मनुष्य स्वर्ग से टपका देवदूत है या फिर कपि वानरों से ही उन्नत हुआ एक सभ्य कपि है ! डार्विन के इन विचारों ने तहलका मचा दिया !
आज की वैचारिक दुनिया जिन महान चिन्तकों की विशेष रुप से ऋणी है उनमें, कार्ल मार्क्स (1818-1883), सिगमन्ड फ्रायड (1856-1939) और चाल्र्स डार्विन (12 फरवरी, 1809-19 अप्रैल, 1882) के नाम स्वर्णाच्छरों में अंकित हैं। माक्र्स एवं फ्रायड की विचारधाराओं की प्रासंगिकता को लेकर आज भले ही अनेक सवाल उठ रहे हैं मगर चाल्र्स डार्विन का विकासवाद आज भी दुनियाँ में वैचारिक वर्चस्व बनाये हुए है। डार्विन के जन्म के दो सौ वर्षों बाद भी आज विश्व में चहुँ ओर विकासवाद का डंका बज रहा है। समूचा कृतज्ञ विश्व वर्ष (2009) भर चाल्र्स डार्विन की दो सौंवीं जयन्ती मनाने को मानो कृत संकल्प है- यह सवर्था उचित ही है कि भारत भी इस महान विकासविद् की द्विशती जोर-शोर से आयोजित करे। यह आलेख इसी अभियान की एक विनम्र प्रस्तुति भर है।
जन्म और बचपन!
महान विकासविद् चाल्र्स डार्विन का जन्म ठीक उसी दिन हुआ जिस दिन अमेरिका के एक जाने माने राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन भी जन्में थे। यानि 12 फरवरी, 1809। यह एक अद्भुत संयोग था क्योंकि एक ओर तो जहाँ चाल्र्स डार्विन के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने मनुष्य के मस्तिष्क को अज्ञानता के अभिशाप से मुक्त कराया वहीं कौन नहीं जानता कि लिंकन ने मनुष्य के शरीर को दासता की बेड़ियों से आजादी दिलायी।
चाल्र्स डार्विन इंग्लैंड के एक शहर श्रूसबेरी में जन्में-बचपन में वे बड़े ही शील संकोची थे मगर अपने परिवेश के प्रति बहुत जागरुक थे। उन्हें तरह-तरह के प्राकृतिक साजो-सामान-चिड़ियों के अंडों, घोसलों, कीट पतंगों, सीपियों और घोंघों को इकट्ठा करने का शौक था- प्रकृति प्रेम में रमें बालक डार्विन में मानों भविष्य का एक महान प्रकृतिविद् पनप रहा था। प्रकृति निरीक्षण की अपनी इस बाल लीला में वे जीवों को मारकर नहीं बल्कि उनके मृत स्पेशीमनों को ही इकट्ठा करते थे। वे उन्हें अपने हाथों मारना नहीं चाहते थे। मगर चिड़ियों के मामले में न जाने क्यूँ वे अहिंसा का आचरण छोड़ अपनी एयरगन से उनका शिकार करने दौड़ पड़ते। लेकिन यहाँ भी एक दिन एक घायल पक्षी की तड़फड़ाहट से वे विचलित हो उठे और आजीवन जीव जन्तुओं को मात्र आखेट के लिए न मारने की प्रतिज्ञा कर बैठे। अब मानों उनमें महात्मा बुद्ध की करुणा का भी समावेश हो उठा था।
डार्विन के कई जीवनी लेखकों का मानना है कि डार्विन की विनम्रता उन्हें अपनी माँ से मिली थी। किन्तु जब डार्विन मात्र 8 वर्ष के ही थे उनकी माँ चल बसी। उनके पिता डॉ0 राबर्ट बेरिंग जो अपने बेटे के ही शब्दों में ``एक बहुत बुद्धिमान व्यक्ति थे´ खुद अपने पुत्र को भलीभाँति समझ नही पा रहे थे। वे आये दिनों चाल्र्स द्वारा घर में इकट्ठा किये जा रहे अजीबोगरीब चीजों के कबाड़ से ऊब चुके थे। उन्होंने बालक चाल्र्स को लैटिन और ग्रीक भाषाओं को सिखाने वाले पारम्परिक स्कूल में दाखिला दिलाया पर चाल्र्स की रुचि भाषा साहित्य में न होकर अपनी अदम्य जिज्ञासाओं को शान्त करने में थी। लिहाजा उन्होंने घर के पिछवाड़े ही चोरी छिपे एक रसायन शास्त्र की प्रयोगशाला स्थापित कर ली। स्कूल के साथियों ने चाल्र्स का नया नाम रखा - `गैस´ । आखिर रोज-रोज की इन कारगुजारियों से ऊब कर डा0 राबर्ट ने अपने शरारती बच्चे का दाखिला एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में करा दिया-चिकित्सा शास्त्र के अध्ययन के लिए ।
चाल्र्स डार्विन ने इस नये माहौल में शुरू शुरू में तो अपने को सभाँलने का प्रयास किया मगर शल्य चिकित्सा के व्याख्यानों से उन्हें ऊब होने लगी। उस समय एनेस्थेसिया का प्रचलन तो था नहीं, बिना संज्ञा शून्य किये ही आपरेशन कर दिये जाते थे। रोगियों के आर्तनाद से डार्विन को इस पेशे से वितृष्णा होने लगी। डार्विन की इस पेशे से अरूचि उनके पिता से छुप न सकी। और थक हार कर उन्होंने अपने बेटे को पादरी बनाने का अनचाहा निर्णय ले लिया। यहाँ भी चाल्र्स को उनके मुताबिक माहौल नहीं मिल सका पर यहीं उनकी मुलाकात अपने समय के मशहूर वैज्ञानिक प्रोफेसर हैन्स्लो से हो गई, जिनकी सिफारिश पर ही उन्हें एच0एम0एस0 बीगल जलपोत में यात्रा का सुअवसर मिल सका।
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साईनटिफिक अमेरिकन का जनवरी 09 अंक
जो विकासवाद और डार्विन पर ही केंद्रित है !
जारी ........
8 comments:
अच्छी जानकारी देने का आभार....आज उन्हें याद करते हुए उनपर एक आलेख का लिखा जाना अवश्यक था।
चार्ल्स डार्विन की दो सौवीं जयंती पर उनके जीवन से रूबरू करने और उनकी उपलब्धियों को याद करने के लिए इस सुंदर लेख के लिए आभार..
Regards
आभार आपका ज्ञानवर्धन के लिये।
A very good effort by Dr. Arvind Mishra.
Charles Darwin should be recall more by we all.
Manish Mohan Gore
लगता है यह pre-programmed था. जानकारी के लिए आभार
Daarvin ke baare men in dinon khoob padhne ko mil raha hai, par aap ki lekhni men baat hi kuchh aur hai. Shandaar aalekh, agli kadi ki pratickhaa rahegi.
आज व्यस्तता के चलते देरी से यहाँ पहुंचा हूँ। व्यक्तिगत रूप से विचारों को आमूलचूल बदल देने के लिए डार्विन का बहुत बहुत आभारी हूँ। उन्हें पढ़ने के बाद ही मार्क्स और अद्वैत को समझने में मदद मिली और उन्हें समझ सका। तीनों में कोई विरोध ही नहीं है।
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