Thursday, 8 January 2009

पुरूष पर्यवेक्षण -कांख का कमाल,सुगंध का धमाल !

काँखों के कुदरती सुगंध के कारखाने के बावजूद क्रत्रिम सुगंध का फलता फूलता व्यवसाय
व्यवहार विदों के सामने मुश्किल सवाल था कि जब कुदरती तौर पर मनुष्य के पास ख़ुद मोहक गंध का खजाना उसकी कांख - बगलों(आर्म पिट्स )मे ही छुपा है तो फिर तेल फुलेल , इत्र पाऊडर का इतना बड़ा वैश्विक व्यापार कैसे वजूद में आता गया .और यह भी कि मनुष्य फिर क्यों क्यों इस कुदरती सगन्ध स्रोत को प्रायः नेस्तनाबूद करने के उपक्रमों में लगा रहता है -मसलन बगलों की नियमित साफसफाई ,धुलाई, बाहरी गंध छिड़काई और देह -शुचिता पसंद महिलाओं द्वारा लोमनाशन (डेपिलेशन ) तक भी ! दरसल इसका उत्तर मनुष्य के पहनने ओढ़ने की आदतों में छुपा है .
विडम्बना यह है कि सभ्य मनुष्य का शरीर लक दक कपडों से ढंका छुपा रहता है जिससे हमारी त्वचा लाखों करोड़ों दुर्गन्ध उत्पादी जीवाणुओं की प्रजनन स्थली बनी रहती हैं जिसके चलते हमारी जैवीय मोहक गंध भी तीव्र से तीव्रतर होती बदबूदार गंध में तब्दील हो जाती है .यही कारण है कि बगलों की सफाई और उसे सुगन्धित रखने या उसके दुर्गंधनाशन के साजोसामान का व्यवसाय धड़ल्ले से चल रहा है .व्यवहार शास्त्री कहते हैं कि यह साफ सफाई जिन लोगों में एक कम्पल्सिव आब्सेसन की सीमा तक जा पहुँचता है वह अपने कुदरती गंध स्रोतों को मिटा कर ख़ुद अनजाने में अपना ही अहित कर रहे होते हैं -डेज्मांड मोरिस कीसिफारिश तो यह है कि साबुन भी रोजाना न लगाकर दो तीन दिन के अन्तराल से लगाया जाय तो कुदरती गंध फेरोमोन के माकूल असर को बिना उसके दुर्गन्ध में बदले बरकरार रखा जा सकता है .प्रेमी जन इस नुस्खे पर अमल कर सकते हैं ( भक्त जन कृपया दूर दूर रहें , रोज रोज नहायें और हो सके तो डीओदेरेंट और यूं डी कोलोन से नहायें -उन्हें अश्थि चर्म मय देह का मोह तो रहा नहीं ?)
शोधों से पता चलता है कि नर और नारी के फेरोमोन भी लैंगिक विभिन्नता लिए होते हैं और विपरीत लिंग को सहज ही किंतु अप्रत्यक्ष रूप में आकर्षित करते रहते हैं .यह अवचेतन में काम करती रहती है और आप अनजाने ही किसी के वशीभूत होते रहते हैं .बिना मूल कारण जाने ! मगर एक मार्के की बात या मुसीबत यह है कि पूरबियों (ओरिएनटलस् ) में ये गंध ग्रंथियां बगलों में कमतर होती गयी हैं ज्यादातर कोरियाई लोगों में तो ये एक तरह से नदारद ही हैं .जापानियों में भी ये काफी कम हैं -भारतीयों में ? अफ़सोस कोई शोध सूचना नहीं !! पर पूरबियों में इनकी कमीं के जैवीय निहितार्थ क्या हैं कहना मुश्किल है !
और अंत में कांख (बगल ) की एक और महत्ता को बताने के लिए आपको उस पुराकथा की याद दिला दें जब अंगद रावण संवाद में अंगद रावण से यही पूंछता है ना कि क्या तुम वही रावण तो नही जिसे मेरे पिता श्री बालि अपनी कांख में छः माह दबोचे रहे ?

21 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

यूरेका! यूरेका! यूरेका! यूरेका! यूरेका!

पता चल गया!

रावण एक बैक्टीरिया था।

Anonymous said...

इन गंधों में आकर्शण विकर्षण होता है. हम आप से असहमत हो ही नही सकते. सुंदर जानकारी के लिए आभार.

Tarun said...

रावण के बैक्टिरिया था फिर भी बालि की कांख में कुछ असर ना हुआ।

अरविन्द जी अगर आप हर पैराग्राफ के बाद एक खाली लाईन दें तो पढ़ने में पोस्ट और भी सरल लगेगी।

रंजू भाटिया said...

रोचक है यह सब जानना

anuradha srivastav said...

रोचक..............

निर्मला कपिला said...

रोचक जानकारी के लिये शुक्रिया

ताऊ रामपुरिया said...

बेहद उपयुक्त जानकारी. दिमाग मे कुछ बाते खट खट करती हैं, आप जिन बातों के बारे मे जानकारी दे रहे हैं ये भी वैसी ही हैं. एक तरह से आप दिमाग की भूख को मिटा रहे हैं. आपका बहुत २ आभार.

रामराम.

Udan Tashtari said...

बहुत रोचक जानकारी दी..अब किसी कोरियाई के बाजू में बैठने के पहले सोचना पड़ेगा. :)

आभार इस बेहतरीन जानकारीयुक्त आलेख के लिए.

Unknown said...

रोचक जानकारी के लिये शुक्रिया

Gyan Dutt Pandey said...

मैने भी कहीं पढ़ा था कि कांख के नेचुरल पसीने की गन्ध सेक्स उद्दीपक है।
पर क्या बतायें,जिन्दगी बिना उद्दीपन के गुजार ली! :(

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

कांख के बहाने कई रोचक जानकारियाँ हाथ आ लगीं, शुक्रिया।

प्रवीण त्रिवेदी said...

बढ़िया और पुरानी जानकारी को निश्चित वैज्ञानिक आधार देने वाली जानकारी!!!

Himanshu Pandey said...

रामायण के अंगद का संवाद इस प्रविष्टि को एक अलग ही अर्थ देता है, और रोचकता भी.
कुछ विशेष कह ही नहीं पाता यहां.

समय चक्र said...

अरविंद जी
अपने बहुत सही सटीक अच्छी जानकारी दी है और इसको मैंने स्वयं परखा है . घरो में सपोज भाई की भाई से सेंडो बनियान बदल जाए तो आप बनियान की गंध से अपनी बनियान को पहिचान सकते है चाहे वह कितनी पुरानी हो .सब की कांख की गंध अलग अलग होती है यह सत्य है . आभार

Abhishek Ojha said...

बढ़िया चल रही है श्रृंखला... आपकी बातों पर ध्यान देना पड़ेगा. फोकट का डीयो, परफ्यूम खर्चा बढ़ा देते हैं और कुछ फायदा भी नहीं होता :-)

Ashok Pandey said...

हम तो वैसे भी कभी पाउडर, क्रीम, इत्र नहीं लगाते। बरात-शरात में किसी ने इत्र छिड़क दिया तो अलग बात है। इसलिए यह सब पढ़कर बांछे खिल गयीं कि हमारी आदत वैज्ञानिक दृष्टि से उचित है :)
तरुण जी की बात पर कृपया गौर फरमाएं। कई बार मुझे भी आपके आलेखों को पढ़ना बोझिल लगा है। उसकी कारण अनुच्‍छेदों के बीच स्‍पेस का नहीं होना ही है।

Ashok Pandey said...

हम तो वैसे भी कभी पाउडर, क्रीम, इत्र नहीं लगाते। बरात-शरात में किसी ने इत्र छिड़क दिया तो अलग बात है। इसलिए यह सब पढ़कर बांछे खिल गयीं कि हमारी आदत वैज्ञानिक दृष्टि से उचित है :)
तरुण जी की बात पर कृपया गौर फरमाएं। कई बार मुझे भी आपके आलेखों को पढ़ना बोझिल लगा है। उसका कारण अनुच्‍छेदों के बीच स्‍पेस का नहीं होना ही है।

राज भाटिय़ा said...

अति रोचक

योगेन्द्र मौदगिल said...

वाह.. भाई जी, वाह... दोहरी जानकारियां.. आपके साथ-साथ द्विवेदी जी को भी बधाई...

arun prakash said...

रोचक तथ्य प्रस्तुति , किंतु अलग अलग पुरुषों व स्तरों के गंध फेरोमान के होते हुए भी अलग अलग होते हैं तभी तो किसी की खास गंध से कुछ कुछ होने लगता है वैसे अब लगता है कि नारी पर्यवेक्षण में आपने मत्स्य गंधा का जिक्र जान बुझ कर छोड़ा था ,बेहतर होता आप इसी सन्दर्भ में नर व नारी के देह गन्धो कि जटिलताओं व विशिष्टताओं पर पृथक से प्रकाश डालते | वैज्ञानिक दृष्टि से परिपूर्ण लेख के लिए आभार

hem pandey said...

जानकारीपूर्ण आलेख के लिए साधुवाद.