Monday 5 January 2009

पुरूष पर्यवेक्षण -बलिष्ठ बाहें और बला की बगलें !

बला की बगल या बगल की बला ?
सौजन्य -विकीमेडिया
.......तो पर्यवेक्षण चर्चा बलिष्ठ बाँहों की चल रही थी जो आज भी थोडा आगे बढेगी और बला की बगलों (काँखों -आर्मपिट ) तक जा पहुंचेगी .अपने देखा की किस तरह विकास के दौरान पुरूष की बाहें नारी की तुलना में अधिक बलिष्ठ और शक्तिशाली होती गयीं जो उनमें कार्य विभाजनों का परिणाम थीं .पुरूष शिकार गतिविधियों में लगा रहता था जहाँ अस्त्र शस्त्र संधान के चलते उसकी बाहें उत्तरोत्तर बलिष्ठ होती गईं .आज भी पुरूष द्वारा भाला फ़ेंक प्रतिस्पर्धाओं का उच्चतम आंकडा ३१८ फीट तक जा पहुंचा है जबकि नारी प्रतिस्पर्धकों का उच्चतम रिकार्ड २३८ फीट रहा है .अन्य खेल स्पर्धाओं जिसमें हाथ की भूमिका गौण है परफार्मेंस का यह अन्तर जहाँ महज दस फीसदी ही है भाला फ़ेंक प्रतियोगिताओं में यह फासला ३३ प्रतिशत का है ।
इसी तरह नारी पुरूष की बाहों में एक अन्तर कुहनी का है -कुहनी के जोड़ से नारी अपनी बाहों को ज्यादा आगे पीछे कर सकती हैं जबकि पुरूष में यह लचीलापन नही है ।
बलिष्ठ बाँहों की चर्चा बिना बगलों के उल्लेख के अधूरी रहेंगी .आईये कुछ देखें समझें इन बला की बगलों को या फिर बगलों की बला को ! बगलें बोले तो कांख जो प्रायः अन्यान्य कारणों से शरीर का एक उपेक्षित किंतु प्रायः साफ़ सुथरी ,मच सेव्ड ,सुगंध उपचारित हिस्सा रही हैं इन्हे जीवशास्त्री अक्सिला(axilaa ) बोलते हैं जो एक अल्प रोयेंदार (hairy ) क्षेत्र हैं मगर जैवरासायनिक संदेश वहन में अग्रणी रोल है इनका .नए अध्ययनों में पाया गया है की नर नारी के सेक्स व्यवहार के कतिपय पहलुओं में इनकी बड़ी भूमिका है .
कहानी कुछ पुरानी है पर नतीजे नए हैं ।पहले कुछ पुरानी कहानी -हमारे आदि चौपाये पशु पूर्वजों के यौन संसर्गों में नर मादा की मुद्रा ऐसी थी कि उभय लिंगों की बगलें चेहरों से काफी दूर होती थीं -लेकिन विकास क्रम में आगे चल कर मनुष्य के दोपाया उर्ध्वाधर मुद्रा के अपनाते ही यौन संसर्ग भी पीछे के बजाय अमूमन आमने सामने से हो गया ,लिहाजा इन घनिष्ठ आत्मीय क्षणों में प्रणय रत जोडों के चेहरे भी आमने सामने हो गए .नतीजतन यौन रत संगियों की नाकों और उनके बगलों का फासला काफी कम हो गया उनमें निकटता आ गयी .अब विकास के दौरान मनुष्य -उभय पक्षों की बंगलों के रोएँ ऐसी ग्रंथियों से लैस होने लगीं जिनसे यौनोत्तेजक स्राव -गंध का निकलना शुरू हुआ जिन्हें अब फेरोमोंस ( सेक्सुअल अट्रेकटेंट ) के नाम से जाना जाता है .बगल के रोएँ से जुडी इन एपोक्रायिन ग्रंथियों से निकलने वाला स्राव स्वेद (पसीने ) स्रावों से अधिक तैलीय होता है .ये किशोरावस्था /तारुण्य /यौवनारंभ से ही स्रावित होने लगते हैं .बगल के रोएँ इनकी सुगंध को रोके -ट्रैप किए रहते हैं ।
अंग्रेजों और हमारे कुछ आदि कबीलाई संस्कृतियों में जोड़ा चुनने के लिए युवा जोडों के नृत्य अनुष्ठानों के आयोजन की परम्परा रही है .अंग्रेजों के एक ऐसी ही लोक नृत्य परम्परा में नवयुवक जिसे किसी ख़ास नवयौवना की चाह होती है के सामने नृत्य के दौरान ही सहसा अपने कांख में छुपाये गये रुमाल को लहराना होता है -प्रत्यक्षतः तो वह अपना श्रम दूर करने के लिए मुंह पर हवा देने का काम रूमाल से करता है पर निहितार्थ तो कुछ और होता है -प्रकारांतर से वह अपनी यौन गंध को ही नृत्य साथिन की ओर बिखेर रहा होता है और भावी संगी को फेरोमोन के घेरे में लेने को उद्यत होता है .यह एक पारम्परिक लोक नृत्य है मगर इसके दौरान वह वही काम अंजाम दे रहा होता है जिसमें आजके कई इतर फुलेल डिओडेरेंट उद्योग दिन रात् लगे हुए हैं और जो तरह तरह के अंडर आर्म डिओडेरेंट के उत्पादन में एक आदिम गंध को ही मुहैया कराने का दावा करते नहीं अघाते .हमारे यहाँ महाभारत के मूल में शांतनु और मत्स्य/योजन गंधा की कथा से कौन अपरिचित है ? (जारी )
(नव वर्ष संकल्प ) प्रत्याखान: (डिस्क्लेमर :यह श्रृंखला महज एक व्यवहार शास्त्रीय विवेचन है,इसका नर नारी समानता /असामनता मुद्दे से कोई प्रत्यक्ष परोक्ष सम्बन्ध नही है )

17 comments:

अभिषेक मिश्र said...

पारंपरिक लोक नृत्य से आकर्षित करने की जानकारी अनूठी लगी.

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

भाई साहब, लगता है डर गये। तभी तो disclaimer (दावात्याग) चिपकाने की जरूरत पड़ गयी.. :)

क्या-क्या बदला जा सकता है जी? प्रकृति की सत्ता को नकारने से क्या मिलेगा?

रंजू भाटिया said...

हमेशा की तरह रोचक कड़ी लगी यह भी ..कई नई बातें पता चलती है इस के माध्यम से

P.N. Subramanian said...

कुछ कुरेद कर अधिक जानने की क्षमता है ही नही हममे. बहुत अच्छी नयी नयी जानकारी है. डिस्क्लेमैर की बात पर: डरना तो पड़ता है.

admin said...

श्रंखला की यह कडी भी हमेशा की तरह रोचक और तमाम प्रकार की नई जानकारियों से परिपूर्ण है, शुक्रिया।

ताऊ रामपुरिया said...

उत्कृष्ट जानकारी. आपके लेख की बाते बिल्कुल वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाली हैं. आपकी इस श्रंखला मे शुरु से ही बहुत सटिक जानकारी दी जा रही है. बहुत धन्यवाद आपको.

रामराम.

राज भाटिय़ा said...

बहुत ही नयी ओर सही जानकारी आप के इस लेख से मिली, यह सब बाते तो कुदरती है, ओर इस मै बहस करने की तो कोई गुंजाईश ही नही....
धन्यवाद

योगेन्द्र मौदगिल said...

वाह भाई जी वाह... आपकी विवेचना भी गजब की रहती है... बधाई...

प्रवीण त्रिवेदी said...

यह कडी भी हमेशा की तरह रोचक और तमाम प्रकार की नई जानकारियों से भरी पूरी है, शुक्रिया।
डिस्क्लेमर के रूप में नव-वर्ष का संकल्प पसंद आया !!!

और अब आयें ....मेरी मदद करें

प्रवीण त्रिवेदी said...

अगली कड़ी भी जल्दी आनी चाहिए !!!
हम सब आपका इंतजार बेसब्री से करेंगे !!!

Shastri JC Philip said...

"जैवरासायनिक संदेश वहन", वाह क्या सही एवं सरल शब्दावली चुनी है आप ने!!

इस लेख में आपने काफी महत्वपूर्ण जानकारी बहुत सरल शब्दों में समझाई है उसके लिये आभार!

शारीरिक साफसफाई एवं जैवरासायनिक संदेश वहन के संबंध को भी किसी अलेख में स्पष्ट करने की कोशिश करें.

वैज्ञानिक आलेखों के साथ डिस्क्लेमर लगाना बंद कर दें.

1. जो विज्ञान को विज्ञान के नजरिये से देखते हैं उनके लिये इस तरह के डिस्क्लेमर की जरूरत नहीं है.

2. जो विज्ञान को पीलिया के चश्मे द्वारा देखता है उसके लिये तो इस तरह का डिस्क्लेमर आसमान से टपका प्रमाण है कि आप जरूर इस लेख द्वारा विषमता फैला रहे हैं.

यह भी जोड दूँ कि आप के प्रबुद्ध पाठकों को पीलिया नहीं है!!

सस्नेह -- शास्त्री

दिनेशराय द्विवेदी said...

इन सत्यों को सब जानते हैं मगर स्वीकार करने से हिचकिचाते हैं।

नितिन | Nitin Vyas said...

अनूठी जानकारी!, बांटने का शुक्रिया।

Himanshu Pandey said...

मैं क्या कहूं, पढ़ कर तृप्त हो रहा हूं.
धन्यवाद.

Gyan Dutt Pandey said...

रोचक। अण्डर-आर्म डिऑडरेण्ट पर व्यापक शोध हुआ होगा पर वह डिऑडरेण्ट निर्माताओं का प्रयोजित और क्लासीफाइड ही होगा। उस पर ज्यादा जानकारी मिलनी चाहिये।

Astrologer Sidharth said...

अरविन्‍द् जी नमस्‍कार
बहुत सुंदर ब्‍लॉग है। पहली बार आपके ब्‍लॉग पर आया हूं। बहुत अच्‍छा लगा। बुकमार्क कर लिया है। आपको नियमित रूप से पढने का प्रयास करूंगा। कंटेट के लिहाज से कई दिनों बाद उपयोगी ब्‍लॉग पढने को मिला है।
उपयोगी जानकारी के लिए आभार

सिद्धार्थ जोशी
बीकानेर

योगेन्द्र मौदगिल said...

जय हो दादा... क्या पकड़ है आपकी...!!!! संदर्भ : मेरी आज की गजल..