दायाँ या बाया कान ?फ़र्क पड़ता है जी !
मनुष्येतर प्राणियों-स्तनधारियों और कई नर वानर कुल के सदस्यों में कानों को हिलाने डुलाने की क्षमता होती है -जो ऐसा कानों की कई मांसपेशियों के जरिये करते हैं .मनुष्य भी कानों की कुछ -यही कोई नौ अवशेषी मांस पेशियों के जरिये अपने कानों में जुम्बिश तो ला सकता है मगर खूब हिला डुला नहीं सकता.कुछ लोग अपवाद स्वरुप कड़े अभ्यास से कानों को हिलाने डुलाने में अभ्यस्त हो जाते हैं ।
कुछ लोगों के कानों के बिल्कुल ऊपरी किनारे पर एक अवशेषी उभार आज भी दिखता है जिसे डार्विन पॉइंट कहते हैं .यह वह अवशेषी सरंचना है जो यह बताती है कि कभी हमारे पुरखों के कान भी नोकदार 'घोस्ट 'नुमा होते थे .विज्ञान कथाओं (साईंस फिक्शन ) में परग्रही लोगों के कानों को आज भी नोकदार दिखाया जाता है .
जहाँ तक कानों के व्यवहार पक्ष की बात है उनकी भावनाओं के प्रगटीकरण में डाईरेक्ट भूमिका है .कतिपय भावनात्मक अंतर्विरोधों के समय कान रक्ताभ हो उठते है क्योंकि रक्त वाहिकाओं का अच्छा संजाल कानों तक काफी रक्त संचार कर देता है .
रक्त संचार से कानों के किनारे तक सुर्ख से हो उठते है और ऊष्मित भी हो उठते हैं ।प्लायनी ने लिखा था -" यदि कान सुर्खरू और गरम हो उठें तो मानिये कोई पीठ पीछे आपकी ही बातें कर रहा है "
चौपाये से दो पाया बनने की हमारी विकास यात्रा में हमारे कानों ने एक कामोद्दीपक अंग की भूमिका भी अपना ली .मुख्य रूप से कानों के नीचे का लोब(ललरी ) कामोद्दीपन की भूमिका लिए हुए है .यह लोबनुमा रचना दूसरेनर वानरों -बन्दर /कापियों में नही मिलती .व्यवहार विज्ञानी मानते हैं कि यह रचना हमारी प्रजाति की बढ़ी हुयी कामुकता की ही परिणति है .काम विह्वलता के गहन क्षणों में ये कर्ण लोब कुछ कुछ फूल से उठते और रक्ताभ हो उठते हैं -प्रचुर रक्त संचार के चलते ये संस्पर्श सुग्राही हो उठते हैं ,बहुत ही संवेदी हो उठते हैं .इसलिए ही प्रेमीजन उनका भिन्न भिन्न तरीकों से आलोडन -उद्दीपन करते जाने जाते हैं .चरम विह्वलता में ये कानों को दातों से दबाते भी हैं .सेक्स संबन्धी मामलों के विख्यात अध्येता रहे किन्से महानुभाव ने अपने सहयोगियों के साथ इंस्टीच्यूट फार सेक्स रिसर्च इन इंडियाना में किए गए शोध के दौरान यह भी पाया था कि ," एकाध नर/ नारी तो मात्र कानों के सतत उद्दीपन से चरम सुख पानें में कामयाब हो गए थे!
चलते चलते .....नए अध्ययन बताते हैं कि दायाँ कान व्याख्यान सुनने और बायाँ संगीत सुनने के प्रति ज्यादा सुग्राही होता है -यहाँ पढ़ें .
अभी जारी ........
11 comments:
रोचक लगी कान की बातें ..
रोचक बातें हैं। आगे आने वाले पोस्ट की प्रतीक्षा रहेगी।
मुझे तो बापू के लम्बे (और तथाकथित बदसूरत) कान बहुत अच्छे लगते हैं चित्र में।
बहुत ही रोचक ढंग से आपने कानों का वर्णन किया है। बधाई।
मिश्राजी अति उपयोगी एवं गूढ ज्ञान दायें कर्ण से गृहण किया एवं बांये कान को कहीं संगीत की दूकान पर ले जाकर संतुस्ट करवाएंगे ! :)
वाकई आप इतनी गूढ़ बातें बताते हैं की बरबस आपकी दूकान के चक्कर लगाना ही पड़ते हैं ! धन्यवाद !
इस "कर्णप्रिय" लेख के लिये आभार!!
डा अरविंद, मुझे लगता है कि शरीर के वे सार अवयव जो एक "जोडी" के रूप में मौजूद हैं उन सब के कार्य एवं दक्षता में आपस मे कुछ न कुछ फरक है.
-- शास्त्री जे सी फिलिप
-- समय पर प्रोत्साहन मिले तो मिट्टी का घरोंदा भी आसमान छू सकता है. कृपया रोज कम से कम 10 हिन्दी चिट्ठों पर टिप्पणी कर उनको प्रोत्साहित करें!! (सारथी: http://www.Sarathi.info)
रोचक लगी कान की बातें ..
सुंदर रचना. बधाई स्वीकारें.
कान-ग्यान सुखद, रुचिकर एवं ग्यानवर्धक लगा.
उम्मीद है आगे ‘कान पकड़कर उठने-बैठने’ की चर्चा भी होगी। ‘कान पकड़कर माफ़ी मांगना’ भी समझाया जाएगा। गुरूजी कान क्यों ‘उमेठते’ थे यह भी रहस्य खुलने वाला है...। क्यों, कैसा अन्दाज लगाया?
पढ़ते जा रहे हैं पर्यवेक्षण...इत्मिनान से. जारी रहिये.
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