Monday, 30 June 2008

देवासुर संग्राम से चंगेज खान के वंशजों तक का सफर -जीनोग्रैफी का जलवा !

डीएनए की इन्ही गुत्थियों मे उलझी है मानवता की विरासत
सबसे रोचक और चौकाने वाले तथ्य तो भारत में मानव के इतिहास, सभ्यता और संस्कृति को लेकर उभर रहे हैं। डीएनए चिन्हकों (एम-174, एम-130) से तो यही संकेत मिलते हैं कि सबसे पहले मानव पुरखों का आगमन दक्षिण भारत में करीब 50 से 60 हजार वर्ष वर्ष पूर्व सीधे अफ्रीका से अरब सागर के जरिये हुआ था । इन्हें अफ्रीकी आदि मानवों के समुद्र तटवर्ती समूह के रुप में (एम-20) जाना गया है। इसी तरह-एम 69, एवं एम-52 जीन चिन्हकों को भारतीय चिन्हकों का दर्जा दे दिया गया है जो मध्य पूर्व देशों से प्रवास कर उत्तर पश्चिम की ओर से कालान्तर में भारत में प्रवेश करने वाली आदिम मानव टोली थी। यह घुमन्तू टोली तकरीबन 25000 वर्ष पहले भारत में उत्तर से आ पहुँची थी । कहीं इसी टोली ने तो सिन्धु घाटी की सभ्यता को जन्म तो नहीं दिया?

भारत में दक्षिण से मानव पुरखों का प्रवेश तो पहले ही हो चुका था। पामेर की पहािड़यों को ला¡घकर एक अन्य घूमन्तू टोली 30 हजार साल पहले मध्य पूर्व से भारत में प्रवेश करती हुई दक्षिण तक पहु¡चती दीखती है, जो एम-20 के रुप में चििन्हत हुई है। इन जीन चिन्हकों का विश्लेषण यह भी इंगित करता है कि उत्तर पश्चिम से भारत में प्रवेश पाने वाली टोलियों ने दक्षिण भारत के तटवर्ती समूहों में पहले से ही बसी हुई आबादियों पर आक्रमण किया होगा, नर समूहों का समूल नाश कर मादाओं से संसर्ग कर आगामी वंशों/सन्तति को जन्म दिया होगा। इस स्थापना का एक पुख्ता प्रमाण यह है कि मौजूदा दक्षिण भारतीय जनसंख्या में आदि स्थानिक नर चिन्हकों का सर्वथा लोप हो गया है। कहीं यथोक्त घटनायें ही जन स्मृतियों में आज भी देवासुर संग्राम और कालान्तर के राम-रावण युद्ध के मिथकों के रुपों में तो नहीं अक्षुण हैं? कहीं यही घुमन्तू टोलिया¡ ही तो आर्य और द्रविड़ संस्कृतियों की जनक और तदन्तर उनमें आमेलन की साक्षी तो नहीं रहीं?

आज `जीनोग्राफी´ ने फिर से इन मुद्दों को चर्चा में ला दिया है। स्पेंंसर की टीम ने अभी हाल ही में तेरहवी शती के मंगोल आक्रान्ता चंगेज खा¡ के वंशजों को भी ढू¡ढ़ निकाला है जो आज भी `हजारा कबीलाई समूह´ के नाम से पाकिस्तान में गुजर बसर कर रही हैं। कहते हैं कि चंगेज खा¡ की बर्बर सेना के योद्धा पराजित सेनाओं, प्रान्तों की औरतों को अपने हरम में सिम्मलित कर लेते थे और उन्होंने ही बहुपत्नी जैसी प्रथा का भी सूत्रपात किया। इस तरह चंगेज खा¡ ने एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया और करीब 1करोड़ लोगों में अपने पुरखों के एक खास `जेनेटिक चिन्हक´ को हस्तान्तरित किया। पाकिस्तान के `हजारा आदिवासियों, में यही चिन्हक आज भी मौजूद हैं। स्पेन्सर की टीम अब यह भी जानने में जुटी है कि कहीं सिकन्दर की विशाल सेना द्वारा भी कोई जेनेटिक चिन्हक´ आगामी पीढ़ियों तक हस्तान्तरित तो नहीं किया गया? और क्या महान सेनानी सिकन्दर के वंशज आज भी भारत या भारत के बाहर कहीं मौजूद हैं?

इसी परिप्रेक्ष्य में एक जेनेटिक मार्कर एम 124 का पता चला है जिसे `वाई गुणसूत्र´ हेप्लोग्रुप´ - आर-2 का नामकरण भी दिया गया है और जिसके वाहक वंशज यूरेशिआई देशों से चलकर उत्तर भारत, पाकिस्तान और मध्य दक्षिण भारत तक आबाद हुए और आज भी विद्यमान हैं। किन्तु कुल आबादी की तुलना में इनका अनुपात मात्र 5 या 10 प्रतिशत ही है।

मानव की इन आदि घुमन्तू टोलियों की जिजीविषा तो देखिये कि 50 हजार वर्ष की लम्बी कालावधि में आये दो हिमयुगों में भी वे बच निकले और अलास्का से होते हुए अन्तत: अमेरिका तक भी जा पहुंचे और वहाँ की निर्जन धरती पर भी मानवता का परचम लहरा दिया।

जैसा कि प्राय: युगान्तरकारी विचारों या मान्यताओं के साथ होता आया है, जीनोग्रैफिक परियोजना के उद्देश्यों पर भी असहमति की उंगलियाँ उठ रही हैं। इसे एक ओर जहाँ नस्लभेदी संस्कृति की एक नई मुहिम कहा जा रहा है, वहीं यह आशंका भी जतायी जा रही है कि देशज/मूल मानव वंशजों की `जीन सामग्री´ का कहीं चोरी छिपे व्यावसायिक लाभ न उठा लिया जाय या फिर उनके खास प्रक्रमों को पेटेन्ट न करा लिया जाय। यह भी शंकायें उठायी जा रही है कि इतिहास की पुनव्र्याख्या से कहीं नये विवाद और जनान्दोलनों की शुरुआत न हो जाय और सामाजिक विघटन की एक नयी तस्वीर उभरने लगे।

स्पेन्सर ने इन सभी आशंकाओं को सिरे से खारिज कर दिया है। उनका तो यही मानना है कि जीनोग्राफी परयिोजना की नीयत बिल्कुल साफ है और इसके परिणामों में जन कल्याण की भावना ही निहित है। लेकिन कई विचारकों की राय में इसी तरह के कार्यों के लिए ही `गड़े मुर्दे उघाड़ना´ सरीखे मुहावरे गढ़े गये हैं जिनका शािब्दक अर्थ ही है- `अनावश्यक कार्य करना।´

अब जीनोग्राफिक परियोजना कोई अनावश्यक कार्य है या फिर मानवता के हित में एक परमावश्यक मुहिम यह तो आने वाला समय (2010?) बतायेगा, जब परियोजना अपनी पूर्णता पर पहुंचेगी और प्राप्त आ¡कड़ों के विश्लेषण तथा व्याख्या का दौर शुरु होगा। तब तक तो हमें इंतज़ार ही करना होगा ।

समापन किश्त ........

8 comments:

Pratyaksha said...

रोचक ! और पचास हज़ार साल पहले अरब सागर पार कर दक्षिण भारत पहुँचे ..मतलब समुद्री सफर की भयानकता , जाने किस नैविगेशन का बेस बनाकर पहुँचे होंगे ...

Gyan Dutt Pandey said...

जीनोग्रैफी तो पौराणिक गाथाओं को री-पेण्ट करने का बड़ा सशक्त आधार प्रस्तुत करती हैं।
भाजपा/आरएसएस वाले जरूर इसका माइक्रोस्कैनर लगा अध्ययन करेंगे!
पोस्ट में बहुत कुछ जानने को मिला। धन्यवाद।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

जानकारी ऐसी जो इतिहास के धुँधलके से सच को रोशनी मेँ ला खडा करे -
सही एवँ विचारणीय पोस्ट !

Udan Tashtari said...

अच्छा लगा पढ़कर. वैसे निश्चित ही २०१० के बाद इस क्षेत्र में जो विश्लेषण आयेंगे वह दिलचस्प होंगे.

दिनेशराय द्विवेदी said...

यह परियोजना इतिहास की सच्ची धाराओं को पुष्ट करेगी, शेष को निरस्त। पर निरस्त होने वाली धारणाओं पर जीवित राजनीति घमासान भी करेगी।

अजित वडनेरकर said...

बहुत बढ़िया पोस्ट । ये बताइये कि अफ्रीका से आने वाले समुद्र मार्ग से आए या स्थल मार्ग से ? मेरा अनुमान है कि वे स्थल मार्ग से आए होंगे।

Anonymous said...

बहुत बढ़िया जानकारी. मेरी वंशावली तो इराक में जाकर मिलती है. पता नही जीनोम वंशावली कहाँ जाकर मिलती है.

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

अवश्य ही यह परियोजना मानव सभ्यता को नई दिशा देगी।
और हाँ, आपकी यह श्रंख्ला पढकर अपनी जीनोम वंशावली ज्ञात करने की उत्कंठा हो चली है। देखिए कब पूरी होती है।