इथोलोजी ,कुछ और बेसिक्स ! -मनुष्य बोलता है इन जीव जंतुओं में !
मुझे, प्राणी व्यवहार पर अपनी जो कुछ भी अल्प जानकारी है अपने मित्रों ,जिज्ञासु जनों में बाटने में अतीव परितोष की अनुभूति होती है और फिर जब हिन्दी ब्लाग जगत का एक विज्ञ समुदाय इसमे रूचि ले रहा है तो एक उत्तरदायित्व बोध भी इस अनुभूति के साथ सहज ही जुड जाता है .अभी तक मैंने प्राणी व्यवहार से मानव व्यवहार तक के व्यवहार प्रतिरूपों की चंद बानगियाँ यहाँ प्रस्तुत की हैं -विगत एक ब्लॉग में मैंने कुछ बेसिक जानकारियाँ भी दी थी ताकि इस विषय की मूल स्थापनाओं को जाना जा सके और प्राणी व्यवहार को उसके सही ,विज्ञान सम्मत परिप्रेक्ष्य में समझा जा सके ।
आज उसी क्रम में कुछ और बातों को रख रहा हूँ .सायकोलोजी भी मानव व्यवहार का अध्ययन है पर इथोलोजिकल परिप्रेक्ष्य में मानव व्यवहार का अध्ययन मनुष्य की पाशविक विरासत की समझ से जुडा है .अब अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है के सवाल को एक मनोविज्ञानी अल्बर्ट पिंटों को एक पृथक मानव इकाई के रूप में मे ही लेकर हल करेगा किंतु एक इथोलोजिस्ट अल्बर्ट पिंटो की समस्याओं को उसके जैवीय विकास और अन्य उन्नत पशु प्रजातियों -कपि-वानर कुल में समान व्यवहार के सन्दर्भ में व्याख्यायित करेगा .आशय यह कि एक मनोविज्ञानी मनुष्य के व्यवहार को महज एक आइसोलेटेड इकाई के रूप में देखता है जब कि व्यवहार विज्ञानी उसे जंतु व्यवहार के विकास के आईने में देखता है ।
लेकिन प्रेक्षक चूंकि मनुष्य स्वयं है अतः प्रायः जंतु वयहारों की व्याख्याओं में 'मानवीयकरण '[ऐन्थ्रोपोमार्फिज्म ] का आरोपण हो जाता है -लेकिन यह जंतु व्यवहारों के अद्ययन में एक चूक के रूप में देखा जाता है .इस चूक के कई उदाहरण हैं .इस बात को हम अपने साहित्य की कई अवधारणाओं ,संकल्पनाओं से सहज ही समझ सकते हैं -किस्साये तोता मैना में मनुष्य ने अपनी व्यथा कथा को तोता मैना में आरोपित कर दिया है -अब भला तोते मैंने आदमी के मनोभावों से संचालित थोड़े ही हैं -साहित्य की समझ वाले तो इसे जानते समझते हैं पर कई भोले भली आदमी आज भी यह जानते है कि सचमुच तोता मैना का वैसा ही आचरण हो सकता है ।वे समझते हैं कि पपीहा पी कहाँ पी कहाँ की रट लगा कर अपने साथी को ही खोज रहा है ,चकवा चकई भी विरह के मारे हैं - इथोलोजिस्ट ऐसे मानवीयकरण से बचता है .वह जानता है कि मनुष्य ही बोलता रहा है इन जीव जंतुओं में !
इसका मतलब नही कि जंतुओं मे भावनाएँ नही होतीं -उनमें भी कई 'मानवोचित, व्यवहार देखे गए जिन पर व्यवहार्विदों में विचारमंथन चल रहा है -जैसे -संस्कृति ,औजारों का उपयोग ,नैतिकता ,तार्किकता और व्यक्तित्व केवल मानव विशेस्ताएं ही नहीं हैं इन्हे कुछ जानवर भी प्रदर्शित करते हैं -जिनकी चर्चा आगे होगी .
5 comments:
आगे की चर्चा भी कर ही लिजिये तब कुछ कहेंगे. :)
हम तो दोनों फील्ड में अल्पज्ञ हैं, अन्यथा ईथोसाइकोलॉजी नामक फील्ड बना दोनो का फ्यूज़न तैयार कर देते - अगर यह कारनामा किसी ने पहले से न झटक लिया हो! :)
आपके चिट्ठे पर नियमित आता हूं । साई ब्लॉग वाकई हाई फाई ब्लॉग है ।
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पाठ के आखिर में आप स्वयं भी मानते हैं कि पशु-पक्षियों में मानवोचित व्यवहार देखा गया। मैंने इस वाले पहले पाठ में पहले भी लिखा था कि हमारा दर्शन कहता है कि ‘गुण ही गुण को बरतते हैं’। हर जीव में भूख-भय और प्रेम और नफरत होती है। इसका कारण यह है कि यह देह सभी के जीवन का आधार है। मृत्यु से आदमी डरता है तो चींटी भी। इसका कारण यह कि मन, बुद्धि और अहंकार सब जीवों में समान हैं। हां, मनुष्य के शरीर और बृद्धि में लचीलापन अधिक है इसलिये वह अपने विवेक से नया सृजन कर लेता है अन्य जीव नहीं। इसलिये मनुष्य पशु-पक्षियों के भावों को समझकर व्यक्त करता है पर वह ऐसा नहीं कर सकते। कहना यह चाहिए कि देह के निर्माण में सभी तत्व एक समान होने के कारण सभी- जीवों-मनुष्य, पशु और पक्षियों-के अनेक व्यवहारो में समानता होती है और इसमें कोई आश्चर्य जैसी बात नहीं है।
दीपक भारतदीप
बहुत रोचक और जानकारी युक्त. आनंद आ रहा है.
आपके ब्लाग का नियमित पाठक होता जारहा हूँ.
जारी रहें.
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