Monday, 28 May 2012

वे बड़े कि हम ......


मनुष्य के संज्ञानबोध का फलक बहुत सीमित है .हम एक इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम के उपरी छोर के गामा विकिरणों और निचले स्तर के अल्ट्रा वायलेट फ्रीक्वेंसी के बीच हिस्से के प्रति ही संवेदित हो पाते हैं ,उसका संज्ञान ले पाते हैं . यही हमरा दृश्य क्षेत्र है . इसे हमारा दृश्य संवेदी अंग रंगों में देखता है जहाँ नीले के ठीक ऊपर अल्ट्रा वायलेट -परा बैगनी क्षेत्र है जिसे कीट पतंगे तो देख लेते हैं मगर हम नहीं ...यही बात आवाज के साथ भी है जहाँ हमारी  सीमाएं निर्धारित हैं -चमगादड़ उच्च तरंग दैर्ध्य वाली वे परा ध्वनियाँ सुन लेते हैं जिनका हमें भान  तक नहीं होता ...और हाथी बहुत कम तरंग दैर्ध्यो वाले आवाज में संवाद कर सकते है और वह भी हमारे पल्ले नहीं पड़ता . 

कुछ मछलियाँ विद्युत् तरंगों के सहारे गंदे पानी में भी गंतव्य तक जा पहुँचती हैं और यह क्षमता  भी मनुष्य में नदारद है . हम धरती के चुम्बकीय क्षेत्र की अनुभूति से भी वंचित हैं जिसका लाभ उठाकर बहुत से पक्षी प्रवास गमन करते हैं . और हम बरसात के बादल भरे  दिनों  में आकाश के उन सूर्य -प्रकाश के ध्रुवित पुंजों को भी लक्षित नहीं कर पाते जिनसे मधुमक्खियाँ सहारा पा अपने छत्ते और फूलों के बीच आने जाने का  रास्ता तय करती हैं ... 

मगर हमारी सबसे बड़ी अक्षमता  है स्वाद और गंध के मामले की जिसमें हम सभी जीव जंतुओं से पिछड़ गए हैं .जीव जगत के ९९ फीसदी सदस्य चाहे वे बड़े जानवरों से लेकर कीड़े मकोड़े  तक क्यों न हो रासायनिक /गंध के इस्तेमाल से  संवाद कर लेते  हैं . इन रसायनों को वैज्ञानिक फेरोमोन कहते हैं . गंध की क्षमता में ब्लड हाउंड कुत्तों और रैटल स्नेक के सामने हम निरे लल्लू ही हैं ... अपनी गंध और स्वाद की अनुभूति की अक्षमताओं ने मनुष्य को इतना लाचार कर दिया है कि इनसे जुड़े बहुत से अनुभवों के लिए वह तरह तरह की उपमाएं ढूंढता फिरता है .. मतलब  गंध और स्वाद के बखान के लिए मनुष्य के पास बहुत कम शब्द संग्रह है . हालांकि मनुष्य इन कमियों की भरपाई के लिए तरह तरह के यंत्र /डिवाईस-जुगतें बना रहा है . कृत्रिम संवेदी नाक है तो जीभ की कृत्रिम स्वाद कलिकाएँ प्रयोगशालाओं में बनायी जा रही हैं जिनके लिए जीव जंतु माडल के रूप में चयनित किये गए हैं . 

नए प्रयोगों में  मनुष्य की निर्भरता जीव जंतुओं पर बढ़ती जा  रही है ..फिर भी हम अपने को सर्वोच्च मानने के मुगालते में ही हैं .... 

Thursday, 17 May 2012

दैत्याकार होते मनु पुत्र !

अभी इसी वर्ष की बीती फरवरी में  रूसी वैज्ञानिकों के एक अभियान दल ने अन्टार्कटिका में एक इतिहास रच दिया .विगत तकरीबन एक दशक से यहाँ के विपरीत मौसम में भी प्रयोग परीक्षणों में जुटे इन वैज्ञानिकों ने ठोस बर्फ की ३.२ किमी गहरी  खुदाई पूरी करते ही एक ऐसा दृश्य देखा कि अभिभूत हो उठे ...यहाँ एक ग्लेशियर नदी कल कल कर बह रही थी ...जो करीब ३.४ करोड़ वर्ष पहले से वहां दबी पडी थी और इतने लम्बे अरसे से सूर्य के किरणों से उसका मिलन नहीं हुआ था .यह युगों से शान्त स्निग्ध बहती जा रही थी .....अभिभूत वैज्ञानिकों ने इसका नाम रखा वोस्टोक...मगर  एक और पहलू भी था, वोस्टोक के जल में करोडो वर्षों पहले के माईक्रोब -सूक्ष्म जीव भी हो सकते थे जिनसे आज की मानवता परिचित नहीं है -और ये अनजाने आगंतुक किसी नयी महामारी को न्योत दें तब ? वोस्टोक के जल का ताप और संघटन बृहस्पति के एक उपग्रह /चाँद यूरोपा की प्रतीति कर रहे थे ...वैज्ञानिकों को यह सूझ कौंधी कि वोस्टोक के विस्तृत अध्ययन से सौर मंडल के समान पर्यावरण वाले ग्रहों -उपग्रहों ,ग्रहिकाओं का भी अध्ययन धरती पर बैठे ही हो सकेगा .. 
वोस्टोक 
ऊपर का दृष्टांत मनुष्य की अन्वेषी और सर्वजेता बनने की भी प्रवृत्ति का उदाहरण प्रस्तुत करती है .आज मनुष्य ने धरती के  बर्फ से बिना ढके तीन चौथायी से अधिक के भू /जल भाग की जांच पड़ताल कर रखी है .मानव चरण वहां पड़ चुके हैं . और एक कहावत हैं न- जहं जहं चरण पड़े संतों के तहं तहं बंटाधार ...ऐसी ही स्थिति अब उजागर होने लगी है क्योकि मनुष्य जहाँ जहाँ पहुँच रहा है पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है ,प्रकृति का ताम झाम बिखर रहा है . धरती के ४.५ अरब के इतिहास में मनुष्य अभी कुछ पलों पहले ही अवतरित हुआ है मगर कारनामें ऐसे कि धरती के तीन चौथायी हिस्से पर कब्ज़ा हो चुका है .. दुनिया  के ९० प्रतिशत पेड़ पौधे मनुष्य की छाया में आ गए हैं . अब तक हमने कितने ही वनों उपवनों को उजाड़ डाला है और हजारों प्रजातियों के विलुप्त हो जाने का दुष्कृत्य कर डाला है मगर हमारे पाँव अभी थमे नहीं हैं . सागरों को हमने अपनी गतिविधियों से मथ डाला है ,सागर संपदा का भयंकर दोहन किया है ,मछलियाँ खात्में के कगार पर हैं ..समुद्रों  में भी कई 'रेगिस्तानी जोन' बन गए हैं जो सीधे सीधे हमारी गतिविधियों की ही देन हैं .

मनुष्य की गतिविधियाँ इतनी तेजी से धरती का हुलिया बिगाड़ रही हैं जो वैज्ञानिकों की पेशानी पर बल डाल रही हैं .अभी तो १०-१२ हजार साल पहले ही  धरती एक हिमयुग से मुक्त हुयी और मानव ने खुद का विस्तार शुरू किया था ...और इतने शीघ्र सब कुछ इतना बदल गया? कहने को तो यह धरती युग 'होलोसीन इपोक'  कहलाता है मगर वैज्ञानिकों ने इस युग का नया नाम ढूंढ लिया है -अन्थ्रोपोसीन, मतलब मनुष्य का युग .यह नामकरण देते हुए नोबेल लारियेट  पौल क्रुटजेन ने कहा है कि" मनुष्य और प्रकृति के बीच वस्तुतः अब कोई लड़ाई ही न रही ,यह अब एकतरफा मामला है -अब मनुष्य ही यह निर्णय कर रहा है कि कुदरत का क्या होना है और भविष्य में वह कैसी रूप लेगी ? "

 अभी मुश्किल से १५-२० हजार साल पहले तक मनुष्य केवल एक गुफावासी आखेटक हुआ करता था ,फिर तकरीबन दस हजार वर्ष पहले से ही मनुष्य ने  कृषि कर्म अपनाया और धरती का चेहरा बदलने लगा . आज धरती के  बर्फ से रहित भाग का ३८% कृषि योग्य जमीन में तब्दील किया जा चुका है ..बर्फ पर खेती संभव नहीं हो पायी है नहीं तो वह वहां भी हरियाली बिखेर चुका होता ..कहते हैं कृषि के चलते मनुष्य की रक्तबीजी जनसंख्या भी बढ़ चली है . मगर १८०० की औद्योगिक क्रान्ति ने तो मनुष्य की विकास की गतिविधियों में मानों एक "विस्फोट ' सा कर दिया ....और अन्थ्रोपोसीन युग की नींव डाल दी ....हम देखते देखते १ अरब से सात अरब के ऊपर जा पहुंचे हैं और हमारे इस तेज वंश वृद्धि पर प्रसिद्ध समाज जैविकीविद ई ओ विल्सन ने चुटकी लेते हुए कहा है कि यह वृद्धि तो जीवाणुओं की प्रजननशीलता को भी मात करती है . आज धरती पर मनुष्य का जैवभार उन सभी दैत्याकार छिपकलियों -डायनासोरों से भी सौ गुना ज्यादा हो चुका है जिनका कभी धरती पर राज्य था ...
इतनी बड़ी महा दैत्याकार जनसंख्या  के पोषण में हमारे कितने ही खनिज ,तेल आदि संसाधन स्वाहा हो रहे हैं . अन्थ्रोपोसीन धरती का बुरा हाल किये दे रहा है . इसके अंगने में अब प्रकृति का कोई काम ही नहीं रहा ....नैसर्गिकता के दिन लद चले हैं ...हाँ संरक्षणवादियों चिल्लपों तो मची है मगर उनकी आवाज विकास के पहिये के शोर में अनसुनी सी रह जा रही है . आखिर हम धरती को अब और कितना रौंदेगें? मगर क्या कोई विकल्प बचा भी है ? 

Wednesday, 9 May 2012

चलो गूगल में देख लेगें ....याद क्या करना!

अंतर्जाल प्रेमियों की कमज़ोर होती याददाश्त अंतर्जाल ने सूचनाओं का एक ऐसा जखीरा हमारे सामने ला दिया है कि हमें अब कहीं और जाने की जरुरत नहीं है .बाद गूगल पर गए और इच्छित जानकारी ढूंढ ली . न लाईब्रेरी की ताक झांक ,न किताब की दुकानों या  घर के शेल्फों पर नजरें दौडाने की जहमत . अंतर्जाल के सर्च इंजिनों पर  सूचनाओं की सहज उपलबध्ता की स्थिति कुछ वैसी ही है जैसा कि कोई शायर कह गया है ,दिल में सजों रखी है सूरते यार की जब मन मन चाहा देख ली....मगर मस्तिष्क विज्ञानियों ने एक खतरा भांप लिया है .उनका कहना है यह मनुष्य की याददाश्त को कमज़ोर कर देगा . पहले सूचनाओं से साबका होने पर लोग उसे याद करके मस्तिष्क  में सुरक्षित रखते थे .मगर अब पैटर्न बदल रहा है ..लोगों का एक लापरवाह रवैया हो गया है कि चलो गूगल में देख लेगें ....

प्रसिद्ध वैज्ञानिक शोध पत्रिका 'साईंस' में   कोलम्बिया विश्वविद्यालय की प्रोफ़ेसर बेट्सी स्पैरो के छपे अध्ययन में खुलासा हुआ है कि अंतर्जाल युग में नवीन जानकारियों -सूचनाओं को प्रासेस करने के तीन चरण हैं .पहला तो यह कि अगर  हमें किसी प्रश्न की जानकारी प्राप्त करनी है तो अगर घर में हैं तो तुरत घर के पी सी और अगर बाहर  हैं तो अगल बगल के वेब ढाबे का रुख करते हैं बजाय इसके कि यह ठीक से उस प्रश्न को समझ लें . जैसे जब अध्ययन के 'सब्जेक्ट ' विद्यार्थियों से जब यह पूछा गया कि उन देशों का नाम बताईये जहाँ के झंडे में केवल एक रंग है तो लोगों के दिमाग में झंडे नहीं बल्कि कंप्यूटर उभर आया ..जबकि ऐसे सवालों के प्रश्न में पहले लोगों के मन में झंडों और देशों का चित्र उभरता था .. दूसरी समस्या है की नयी जानकारी मिलने पर अब तुरत फुरत उसका यथावश्यक इस्तेमाल तो कर लेते हैं मगर उतनी ही तेजी से भूल भी जाते हैं . अब जैसे यह जानकारी कि कोलंबिया शटल हादसा फरवरी २००३ में हुआ था अध्ययन के छात्रों को देते हुए उनमें से आधे को  कहा गया कि यह जानकारी उनके कंप्यूटर में 'सेव' रहेगी जबकि आधे छात्रों को बताया गया कि यह तारीख मिटा दी जायेगी ....बाद में देखा गया कि जिन्हें यह बताया गया था कि जानकारी मिटा दी जायेगी उन्हें यह तारीख याद रही जबकि दुसरे आधे समूह को यह तारीख ठीक से याद नहीं थी ...जाहिर है हम अपनी याददाश्त की क्षमता को तेजी से कम्यूटर को आउटसोर्स कर रहे हैं . 

शोधार्थी अब तक एक तीसरे प्रेक्षण पर पहुँच चुके थे -अब कोई भी नयी बात हम अपने दिमाग में रखने की पहल के बजाय यह उपक्रम करने में लग जाते हैं कि इसे हम कम्यूटर में कहाँ स्टोर करें ... मतलब हम तेजी से कम्यूटरों के साथ एक सहजीविता (सिम्बियाटिक ) रिश्ता बनाते जा रहे हैं ..मतलब कम्यूटर हमारी याददाश्त का संग्राहक बन रहा है . मनोविज्ञानी इसे  ट्रांसैकटिव मेमोरी का नाम देते हैं . इस तरह की 'ट्रांसैकटिव मेमोरी' का उदाहरण हम अक्सर घर में दम्पत्ति के कार्य बट्वारों में देखा जाता है -जैसे पत्नी को बच्चे के फीस आदि जमा करने की याद रहती है तो पति को कई तरह के बिलों के भुगतान की तारीख करनी होती है .अब यह सारा जिम्मा कंप्यूटर के पास जा रहा है . 

मगर इस प्रवृत्ति से मनुष्य के सामने याददाश्त ही नहीं चिंतन और तार्किकता के क्षरण का भी प्रश्न उठ खड़ा हुआ है ...कौवा कान ले गया यह सुनते ही कान देखने के बजाय कौवे की खोज हास्यास्पद है .इसी तर्ज पर कई जानकारियाँ मनुष्य अपने दिमाग पर जोर देकर और संदर्भों के अनुसार दे सकता है .हर जानकारी के लिए कम्यूटर का सहारा लेना एक ऐसी ही प्रवृत्ति है .गूगल जानकारी ढूंढ सकता है ,संदर्भों की सूझ तो खुद हमें होनी चाहिए . गूगल संदर्भ थोड़े ही ढूंढेगा . और यांत्रिकी पर पूरी तरह से निर्भर होते जाना भी कतई ठीक नहीं है .यह हमारी मनुष्यता भी हमसे छीन लेगा..