Tuesday, 14 October 2008

पुरूष पर्यवेक्षण -जीभ के जलवे !

यह कौन महाशय हैं पहचाना आपने ? इनकी जीभ तो देखिये !! क्या कहना चाहते हैं ये ?
रहिमन जिह्वा बावरी कह गयी सरग पताल आपुन तो भीतर गयी जूता खाई कपार
जी हाँ, जीभ स्वाद ग्रहण करने के साथ ही मनुष्य की वाचालता में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेती है .जीभ रहित मनुष्य एक तरह से गूंगा है तो जीभ सहित वह वाचालता की हदें भी पार कर जाता है .जीभ की सतह पर यही कोई १० हज़ार स्वाद कलिकाएँ होतीहैं जो मूल रूप से चार स्वादों की अनुभूति कराती हैं -मीठा और नमकीन जीभ के अग्र भाग ,खट्टा दोनों साईडॉ तथा कड़वा जीभ के पिछले हिस्से से महसूसा जाता है .जीभ की गति बहुत न्यारी है -यह सतत हिल डुल कर मुंह की साफ़ सफाई में भी जुटी रहती है -दांतों मे फंसे भोजन के छोटे टुकणों की भी यह सफाई करती चलती है ।
बोलने चालने में दांत का कितना बड़ा योगदान है वे अच्छी तरह जानते होंगे जो कभी दंत चिकित्सक के सानिध्य से गुजरे होंगे .जब चिकित्सक थोड़ी ही देर के लिए जीभ की गति को रोकता है तो कितना अनकुस लगता है .जीभ को ज़रा उँगलियों से नीचे दबाकर बातचीत का उपक्रम करें -आपको भी यह यथार्थ समझ में आ जायेगा !
अब आईये जीभ के कुछ खासमखास उपयोगों की भी चर्चा कर लें { पवित्रता वादी कृपया क्षमा करेंगे !).गहन प्रणय व्यवहारों के दौरान चुम्बन की एक 'जिह्वान्वेशी ' ( टंग प्रोबिंग ) किस्म दरसल चुम्बन के ही उदगम -अतीत की ओर हमारा ध्यान खींचती है .मजे की बात तो यह है की चुम्बन की जन्म कथा का सम्बन्ध काम क्रीडा से तो कतई नहीं है .यह मातृत्व के उन सुनहले दिनों की याद दिलाती है जब आधुनिक युग के तरह तरह के बेबी फ़ूड नहीं हुआ करते थेऔर माताएं बच्चों की दूध छुडाई ( वीनिंग ) को लेकर तरह तरह का उपक्रम करती रहती थीं .माँ पहले तो खाद्य पदार्थ को लेकर उसे अपने मुंह में कूट पीस कर लुगदी बनाती थी और फिर उसे बच्चे के मुंह में सीधे जीभ के सहारे अंतरित कर देती थी .यह था चुमबन का उदगम ! अब यह तरीका वैसे तो सभ्य समाज से विदा पा चुका है पर अभी भी कई आदिवासी संस्कृतियों में यह प्रचलन में है .
दरअसल चुम्बन पाना ,चुम्बन देना दोनों ही गहरे प्रेम का प्रगटीकरण है .और इस प्रक्रिया में जीभ कोई तटस्थ दर्शक तो रहती नहीं बल्कि यथावशय्क वह बढ़ चढ़ कर हिसा लेती है .मगर सावधान ! कभी कभी जिह्वान्वेशन जीभ की ही सेहत के लिए भारी पड़ सकता है -चरमानंद के पलों में यदि सावधानी नहीं बरती गयी तो आनंदानुभूति में जबड़ों के सहसा भिंच जाने से जीभ कट भी सकती है .
जीभ के यौनांग अन्वेषणों के पीछे भी व्यवहार विद बचपन में वात्सल्य भाव से यौनांगों की देखभाल का रिश्ता पाते हैं .मगर इसके अलावा भी जीभ को नर अंग के प्रतीक के रूप में भी देखा जाता है .नारी होठ और पुरूष जिह्वा को उनके यौनांगों के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल के कई संकेत भी दुनिया में प्रचलन में हैं .दक्षिण अमेरिका में पुरुषों को अर्ध खुले होठों के बीच से जीभ को धीमें धीमें दायें बाएँ घुमा कर यौनामंत्रण देते देखा जाता है ।
नगर वधुएँ भी अपने ग्राहकों को आमन्त्रित करने के लिए कुछ ऐसे ही इशारे करती है मगर इन्हे सभ्यसमाज अश्लील मानता है ।
भारतीय चिंतन में शायद इसलिए ही जीभ पर कडा अंकुश /अनुशासन रखने की हिमायत की गयी है -यह रसना तो है ही वाचालता और नाना प्रकार के सुख भोगों के लिए भी प्रवचन -प्रताडित होती है ।
दुःख की मारी है हमारी जीभ बिचारी !

Sunday, 12 October 2008

पुरूष पर्यवेक्षण -और अब दंत छवि का अवलोकन !

वरदंत की पंगति कुंद कली .........छवि मोतिन माल अमोलन की .कवि की इस अभिव्यक्ति को समझने लिए आपमें सौदर्य बोध के साथ ही प्रकृति -निरीक्षण का भी खासा अनुभव होना चाहिए ,अब अगरआपने कुंद पुष्प की कलियों को नहीं देखा है तो इसका अर्थ समझने से रहे .खैर मोतियों की माला तो बहुतों ने देखी है ,यहाँ उनसे दांतों की पंक्ति बद्ध शोभा की तुलना हुई है .सचमुच सुंदर पंक्तिबद्ध दांत मुंह की शोभा में चार चाँद लगाते हैं -कास्मेटिक सर्जरी के जरिये अब दांतों को और भी सुंदर और प्रेजेंटेबल बनया जा रहा है .सुंदर स्वच्छ दातों को उदघाटित करता मुक्त हास भला किसे अपनी ओर आकर्षित नहीं करता -नर नारी में यह बात समान है .दांतों में आभूषण जड्वाने के भी परम्परा विश्व की अनेक संस्कृतियों में रही है .भारत में लोगबाग दांतों पर सोने की परत चढ़वाते आए हैं .यह उनके सामाजिक स्तर और समृद्धि का परिचायक भी है -ऐसे शौकीन लोग प्रायः दिख जाते हैं । शायद कोई ब्लॉगर भाई भी स्वर्णमंडित दंत लिए हों ! महाभारत का वह मार्मिक प्रसंग तो याद है ना आपको जब दानी कर्ण ने अपने स्वर्णमंडित दांत ही सूर्य को अर्पित कर दिए थे ।
अब दांतों से जुडी थोड़ी अंदरूनी बात हो जाय .हमारे वानर कपि बन्धुबांधवों की ही भाति मनुष्य का मुंह मूलतः खाद्य सामग्रियों की जांच पड़ताल और चबाने के उद्द्येश्य से बना है जिसमें दांतों की मुख्य भूमिका है .किसी बच्चे को देखिये वह हर चीज मुंह में डाल डाल कर माँ बाप को तंग किए रहता है .मगर उम्र बढ़ने के साथ ही अन्य पशुओं की तुलना में यह खाद्य जांच पड़ताल हाथों के जिम्मे हो जाती है ।यहाँ तक किमनुष्य में दांतों से किसी को काट खाने की जरूरत भी कम होने लगती है -मार पीट का जिम्मा भी हाथ ही संभालते है -अपवाद के तौर पर कटखने आदमी भी दीखते हैं मगर यह आत्मरक्षा का अन्तिम विकल्प ही है -जब हाथ लाचार हो जायं .बच्चे अक्सर काट लेते हैं .जैसे कि बड़े बन्दर तो दातों से अक्सर कटखना प्रहार करते हैं - मगर वयस्क मनुष्य में दांतों से रक्षा का यह काम हांथों द्वारा संभाल लिए जाने से उसके दांत दीगर जानवरों की तुलना में छोटे होते गए हैं .उसके हिंस्र कैनायिन दांत तो बहुत ही छोटे हैं .अब दांत खाना चबाने की ही सीमित भूमिका में रह गए हैं .या फिर जाडें में ठण्ड से कटकटानें या असह्य दर्द में भिंच जाने या फिर सोते समय किसी दमित क्रोध के प्रगटीकरण के लिए कटकटानें के ही काम आते हैं .यह हमारे उस कपि अतीत का ही एक अभिव्यक्ति शेष है जब हारता बनमानुष दातों के इस्तेमाल पर आ उतरता था ,अब जब भी किसी को आप सोते वक्त दांत किटकिटाते देंखे तो जान लें कि वह किसी दबंग से टकराहट में हार खाकर स्वप्न में उससे बदला ले रहा है ।
दांत का चमकता इनामेल मनुष्य के शरीर का कठोरतम हिस्सा है -मगर ज्यादा सूगर खाने वाले इसे लैक्टिक अम्ल के निर्माण के चलते सडा गला डालते हैं .भारत में तो गनीमत है मगर पशिमी देशों मे ज्यदातर जवान होकर अपनी बत्तीसी का बड़ा हिस्सा गवां चुके होते है -दंत सर्जरी के आभारी ऐसे लोग कृत्रिम दांतों का सेट लगा कर चिर युवा से लगते हैं .हमें दांत के दो सेट -बचपन के दूध के दांत और बाद वाले वयस्क दांत कुदरत से तोहफे में मिले हैं.काश शार्क मछली की तरह हमारे भी ऐसे दांत होते जो गिरने पर हमेशा नया उग आते हैं !

Thursday, 9 October 2008

पुरूष पर्यवेक्षण -होठों पर इक नजर !

पुरूष पर्यवेक्षण के दौरान कुछ सूक्ष्म बातों पर भी ध्यान जा रहा है जैसे कि ये दो शब्द -मुख और मुंह ! क्या ये दोनों समानार्थी हैं ? मुझे तो नहीं लगता .मुख बोले तो पूरा मुखमंडल और मुंह बोले तो मुंह मंडल जिसमें होठ ,दांत और जीभ भी समाहित हैं .यदि किसी को इस वर्गीकरण पर ऐतराज हो कृपया बताये ।
जब हम मुंह की बात करते हैं तो होठों पर अनायास ही नजरें उठती हैं .चहरे पर होठ भावाभिव्यक्ति में बहुत महत्वपूर्ण रोल निभाते हैं -इनके आकार प्रकार में कई ऐच्छिक परिवर्तन लाये जा सकते हैं .होठों के ऊपर नीचे दायें बाएं करने से चेहरा अजब गजब भाव ग्रहण कर लेता है .होठों से सीटी बजाने से लेकर चुम्बन का चुम्बकीय हवाई सिग्नल भी ये होठ दे देते हैं .पर यह सब होठ करते कैसे हैं ? यह जानना रुचिकर हो सकता है ।
दरअसल होठ एक बहुत ही शक्तिशाली पेशी से संयुक्त होते है जिसे आर्बिक्यूलेरिस ओरिस कहते हैं इसकी ही गति या संकुचन से चुम्बन के आमंत्रण से लेकर होठ सिल लेने जैसी चुप्पी साधी जा सकती है .जब कोई मुक्केबाज रिंग में प्रतिद्वंदी से भिड़ता है तो ज़रा गौर से देखिये कि कैसे वह किसी मुक्के की प्रत्याशा में सहसा ही मुंह को भीच लेता है ,उसके होठ भिंच उठते हैं .यह सब कमाल उस पेशी का ही है . बदलते मूड को भांप कर होठ भी वैसा ही भाव बनते हैं या फिर इनकी गति से चेहरे का भाव बदल उठता है ।
प्रायः चार प्रकार के होठीय सिग्नल पहचाने गए हैं -खुले होठ ,बंद होठ ,होठों की अग्र गति और पच्छ गति.ये प्रफुल्लता से लेकर अवसाद तक की इन्गिति करते हैं । आर्बिक्यूलेरिस ओरिस नाम मुख्य होठ की पेशी चेहरे की दूसरी पेशियों से मिलकर चेहरे की कई भाव भंगिमाओं का प्रगटीकरण करती है .एक संक्षिप्त परिचय यूँ है -
१.levatar -इसकी मदद से ऊपरी होंठ दुःख ,घृणा और क्षोभ को प्रगत करते हैं ।
२.Zygomaticus - ऊपर उठ मुस्कराहट और हंसी
३.Triangularis-उदासी
.Depressor -निचले होठ को और भी नीचे करके तिरस्कार की अभिव्यक्ति
५.Levator menti -ठुड्डी को ऊपर करके निचले होठ को आगे बढाकर निष्ठुरता-अवज्ञा का प्रगटीकरण
६.Buccinataor -यह गालों को दातों तक खींच कर लाती है -फूँक मारने और खाना खाते समय की मुखमुद्रा !
७.Platysma - भय ,पीडा ,और खामोश गुस्से की अभिव्यक्ति !
इन सभी पेशियों के आपसी तारतम्य से होठ गुस्से के इजहार ,अट्ठहास आदि भावों को भी प्रगट करते हैं .खुश मिजाजी और दुखी चेहरे को अभिव्यक्त करने होठों को महारत हासिल है .खुले मन की हंसी में ऊपरी होठ ऊपर उठ कर ऊपरी दांतों तक को दिखा देते हैं .यदि हंसी में कोई नीचे के दांत भी दिखा देता है तो समझिये उसकी नेकनीयत नही है .वह बनावटी हंसी हस रहा है .होठों के फैलाव से खींसे भी निपोरी जाती हैं ।
दूसरे प्राणियों की तुलना में मात्र मनुष्य में ही होठों की श्लेष्मा सतह बाहर की ओर से दिखती है -यह एक यौन संकेतक भी है .घनिष्ठ क्षणों में ये थोडा फुले हुए ,ज्यादा रक्ताभ और थोडा बाहर की ओर निकलते हुए दीखते हैं .ये बहुत संवेदनशील हो उठते हैं -होठों के मामले में नारियां पुरुषों से बाजी मार ले गयी है क्योंकि उनके होठ अमूमन पुरूष से ज़रा से बड़े से होते हैं ! नर होठ -साभार

Wednesday, 8 October 2008

गाँव से यह स्कूप लेकर लौटा हूँ !

भरपेट भोजन के बाद चल पड़े डगमग


गाँव गया था,जौनपुर -मेरे तीन दिन के प्रवास में दो साँप दिखे -दोनों शुभ संयोग से विषहीन ! एक तो वोल्फ स्नेक था जिसके बारे में इस ब्लॉग पर पहले ही चर्चा हो चुकी है .दूसरा साँप पानी का साँप था जिसे चैकेर्ड कीलबैक वाटर स्नेक कहते हैं .इसका प्राणी शास्त्रीय नाम xenochropis piscator है .जब यह देखा गया तो यह एक बड़े से मेढक को निगल चुका था-इसके शरीर के फूले हिस्से को देखकर आप ख़ुद अंदाजा लगा सकते हैं .बहरहाल जैसा कि आम तौर पर गावों में होता है लोगबाग की भीड़ इसका काम तमाम करने को जुटने लगी और मेरे बच्चे इसकी तस्वीर उतारने में मशगूल हो गए -वीडियो भी लिया गया है ,देखिये लोड हो पता है या नहीं .नहीं तो फिलहाल फोटो से ही और कुछ अपनी कल्पना से वहाँ मचे हो हल्ले का अंदाजा लगाईये -बड़ी मुश्किल से मैं लोगों को इसे मार देने से रोक पाया -भीड़ भाड़ और हो हल्ला सुन कर इसने निगल चुके मेढक राम को उगल दिया -वे अधमरे से चित्र में देखे जा सकते हैं .बाद में Rana tigrina प्रजाति के ये महाशय जिन्हें गाँव में गोपाल मेढक भी कहते है चैतन्य हो गए और फूट निकले .बेटे कौस्तुभ और बेटी प्रियेषा साँप को पहले ही एक सुरक्षित स्थान पर ले जाने में सफल हो चुके थे ।
जाऊं तो जाऊं किधर जाऊँ ?

पानी के साँप को जौनपुर में पंडोल या देडहा भी कहते हैं अन्य अंचलों में इसका स्थानीय नाम दूसरा होगा .यह मछली और मेढक ख़ास तौर से पसंद करताहै -प्रायः तालाबों के निकट और धान के खेतों में दिखता है .ये दिन रात सक्रिय रहते हैं .ये वैसे तो गुस्सैल स्वभाव के होते हैं और छेड़े जाने पर किचकिचा के काट सकते है मगर 'सलीके '
से पेश आने पर पालतू भी हो सकते हैं .ये बिल्कुल ही विषहीन होते हैं -सौंप के खाल के व्यापारियों के साफ्ट टार्गेट हैं -तेजी से इनकी संख्या कम हो रही है -इनका पर्यावास भी खतरे में है -तालाब भी तेजीसे पट रहे हैं ।
इसके मुंह की पेशियाँ इतनी लचीली होती हैं कि ये काफी बड़े आकार के मेढक ,मछली और परिंदों को समूचा जिंदा निगल सकते हैं । जान बची तो लाखो पाये




इस पूरे प्रकरण का वीडियो मैं किसी न्यूज़ चैनेल को बेचने की फिराक में हूँ ताकि एक बाबा के झूठ मूठ संजीवनी के प्रलाप कीबजाय किसी सौ फीसदी सच्ची ख़बर को मीडिया में उछाला जा सके .है कोई बोली लगाने वाला ?
पुनश्च -आपको साँप को करीब से देखने के लिए फोटो को एनलार्ज कर देखना होगा !
और ये रहा वीडियो ! बड़ा मजेदार है जरूर देखिये !!

Friday, 3 October 2008

पुरूष पर्यवेक्षण : दाढी का सफाचट होना !

बस यही एक ही दाढी मुझे पसंद आयी
आईये तनिक विचार कर ही लें कि दुनिया के असंख्य लोग क्यों सुबह सुबह हजामत करने करवाने को अमादा हो जाते हैं ? उत्तर बड़ा सीधा सा है ( शायद आप सोच भी लिए हों ) .दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ती भीड़ भाड़ वाली इस दुनिया में दबंग और आक्रामक दीखते रहना अब बड़ा रिस्की हो गया है .कब कहाँ बात का बतडंग हो जाए कौन जानता है -दाढी दबंगता,दबंगई की द्योतक है -कम से कम यह हमारे अवचेतन में पुरूष पुरातन की छवि ला देती है .अब की दुनिया में यह छवि खतरे से खाली नहीं !तो दाढी से पिंड छुडाने का मतलब हुआ ऐसी ईमेज को प्रेजेंट करना जो प्रेम की वांछना रखती है न कि संघर्ष की ! जो सहयोग चाहती है न कि प्रतिस्पर्धा !!
दाढी विहीन चेहरा अपने सहकर्मियों को आश्वस्त करता है कि ," भाई ! मैं तो दोस्ती का तलबगार हूँ और तुमसे भी दोस्ती का वायदा चाहता हूँ .चलो हम पारंपरिक प्रतिस्पर्धा को दरकिनार कर मिल जुल कर रहें और जीवन को धन्य करें " इसी लिहाज से शेविंग दुनिया भर में एक गैर दबंगता का व्यवहार प्रदर्शन (अपीज्मेंट बिहैवियर ) बन गया .इसके कई और फायदे भी हैं .चूंकि बच्चों की दाढी नहीं होती इसलिए बिना दाढी वाला चेहरा बच्चों की सी मासूनियत की ही प्रतीति कराता है .बिना दाढी कासाफ़ सुथरा चेहरा भावों का खुला प्रदर्शन करता है -दूसरों से पूरा संवाद करता है .यहाँ चोर की दाढी में तिनका की खोज किसी दूसरे अंग के हाव भाव से नही की जाती -चहरे का हर हाव भाव प्रगट होता चलता है -इसलिए बिना दाढी का चेहरा आमंत्रित करता है .दाढी से ढंका छुपा चेहरा दोस्ताना नहीं लगता.
शेविंग किसी भी पुरूष के चहरे को बाल सुलभ सरलता और साफ़सुथरा , स्वच्छ परिक्षेत्र प्रदान कर देती है -रोजमर्रा के दुनियावी कामों के लिए फिट बना देती है .मगर दाढी विहीन चेहरा लोगों को थोडा स्त्रीवत भी तो बना देता है -और बिना दाढी वाले अक्सर इसीलिये दाढीवालों से कटूक्तियां /फब्तियां सुनते रहते हैं बिचारे !तो एक विश्वप्रसिद्ध समझौता हो गया -मूंछ का अवतरण ! दाढी तो सफाचट हुयी पर मर्दानगी की निशानी अभी भी बरकरार है -मूंछों पर ताव बरकरार है -हिटलर से लेकर चार्ली चैपलिन की मूंछों और उसके आगे तक भी मूंछों कीकहानी पुरूष की एक बेबसी भरी मर्दानगी की ही चुगली करती रही है .चहरे की दबंगता तो दाढी के सफाचट होते ही गयी पर पौरुष की एक क्षीण रेखा अभी भी तमाम चेहरों पर विराजमान है -मिलट्री ( मैन )की मूंछों की साज सवार और उनके घड़ी की सुईओं के मानिंद हमेशा ११ बजाते रहना एक आक्रामक अतीत का ही ध्वंसावशेष है ! वे यह ताकीद भी करती हैं कि भई मिलो तो मगर लेकिन इज्ज़त से पेश आओ !
ढाढी प्रकरण सामाप्त हुआ !

Thursday, 2 October 2008

पुरूष पर्यवेक्षण -दाढी महात्म्य जारी .........

पुराने जमाने में दाढी शक्ति ,सामर्थ्य और मर्दानगी की निशानी समझी जाती थी .जिसकी दाढी मूछ किसी भी कारण से मुड़वा उठती थी उसे काफी शर्मिन्दगी उठानी पड़ती थी .उस समय गुलामों ,दुश्मनों और बंदियों की दाढी मूछ मुड़वाने का चलन था .यह उनके लिए किसी अपमान से कम नही था .दाढी पर लोग सौगंध तक खा जाते थे और पब्लिक इस सौगंध पर भरोसा भी रखती थी .यहाँ तक की कई देवताओं तक को दाढी वाला माना जाता था .अपने आदि देव शंकर महराज ही लंबे जटा जूट वाले दिखाए जाते थे .प्राचीन मिस्र के धार्मिक अनुष्ठानों पर धर्मदूतों की लम्बी दाढी लोगों को आकर्षित करती थी .यह उनकी कुलीनता और बुद्धि के स्तर का प्रतीक थी ।
दाढी महात्म्य के चलते ही कई पुरानी सभ्यताओं -पर्सियन ,सुमेरियन ,असीरिया तथा बेबीलोन के शासक अपने दाढियों के साज सवार में काफी समय जाया करते थे .दाढी पर तरह तरह के रंग रोशन ,इत्र ,तेल फुलेल लगाए जाते थे .कहीं कहीं तो दाढी पर स्वर्ण कणों की फुहार भी होती थी
स्वैच्छिक तौर पर दाढी मूछ मुड़वाने की शुरुआत ईश्वरीय सत्ता के सामने दास्य भाव के प्रदर्शन से हुई लगती है .फिर प्राचीन ग्रीस और रोम की सेनाओं में दाढी को सफाचट रखने का फरमान जारी हुआ जिससे दुश्मनों से आमने सामने के टक्कर में कहीं सैनिक अपनी दाढी को नुचने से बचाने के ऊहापोह में मात न खा जायं .कहते हैं कि सिकन्दर महान ने अपनी सेना के लिए यह स्थायी आदेश दे दिया था कि कोई भी सैनिक दाढी मूंछ नहीं रखेगा .जिससे उसके सैनिक बेखौफ लड़ सकें .सेनापति को युद्ध के मैदान में इसतरह अपने युद्ध रत सैनिकों के पहचान में सुभीता हो गया .
इसतरह दो तरह के रिवाज शुरू गए -एक दाढीवाला दूसरा बिना दाढीवाला ! अब अपने अपने रोल माडल या मुखिया की तरह दाढी रखने या दाढी सफाचट रखने का फैशन शुरू हो गया .एक फ़्रांसीसी राजा ने अपने ठुड्डी के घाव को छुपाने के लिए दाढी उगा ली -फिर क्या था उसके अनेक अनुयायी भी ठीक उसी तरह दाढी रखने लगे -शायद फ्रेंच कट दाढी इसी के चलते फैशन में आयी .मगर इन ख़ास वर्गों के अलग लोग बाग़ दाढी रखने से परहेज करने लगे .मगर एलिजाबेथ के काल का एक समय ऐसा भी था कि दाढी रखने वालों पर टैक्स लगाया जाने लगा -जिसके चलते दाढी जहाँ आम आदमी के चेहरे से विलोपित होती गयी वही धनाढ्य वर्ग की पहचान भी बनती गयी जो टैक्स चुका कर भी दाढी रख रहे थे .भारत में भी ढोंगी संन्यासी भगवान् के नाम पर अपनी दाढी मूछ मुड़वाने लगे -मूछ मुडाई भये संन्यासी !
अभी कुछ और भी है .......

Tuesday, 30 September 2008

पुरूष पर्यवेक्षण :दास्ताने दाढी है जारी ......

दाढी छुपा सकती है मुहांसों से भरे चहरे को !चित्र सौजन्य -howstuffworks
ज्यादातर व्यवहार विद मानते हैं कि दाढी दरअसल पौरुष भरे यौवन की पहचान है -एक लैंगिक विभेदक है बस ! पौरुष का यह प्रतीक मात्र दिखने में ही भव्य नहीं बल्कि यह अपने रोम उदगमों में अनेक गंध -ग्रंथियों को भी पनाह दिए हुए है .मतलब यह चहरे के कई पौरुष स्रावों के लिए माकूल परिवेश बनाए रखती है .किशोरावस्था के आरम्भ से ही चहरे की गंध (सेंट ) ग्रंथिया भी सक्रिय हो उठती हैं -नतीजतन चहरे पर खील-मुहांसों की बाढ़ आ जाती है !जिस किशोर का भी चेहरा अतिशय मुहांसों से भरा हो तो वह बला का की काम सक्रियता( सेक्सिएस्ट ) वाला हो सकता है -कुदरत का यह कैसा क्रूर परिहास है!
दाढी से भरा पूरा चेहरा वास्तव में एक दबंग /आक्रामक पुरूष की छवि को ही उभारता है .वैज्ञानिकों ने सूक्ष्म निरीक्षणों में पाया है कि कोई भी पुरूष जब आक्रामक भाव भंगिमा अपनाता है है तो वह अपनी ठुड्डी को थोडा ऊपर उठा देता है और दब्बूपने में ठुड्डी स्वतः गले की ओर खिंच सी आती है .अब चूँकि पुरूषकी ठुड्डी और जबडा किसी भी नारी की तुलना में अमूमन भारी भरकम होता है -दाढी इसी दबंगता को उभारने की भूमिका निभाती है .हमारा अवचेतन दाढी को इसी आदिकालीन जैवीय लैंगिक सिग्नल के रूप में ही देखता है ।
तो तय हुआ कि दाढी पुरूष को पौरुष प्रदान करती है -पर तब एक प्रश्न सहज ही उठता है कि फिर रोज रोज यह दाढी सफाचट करने की 'दैनिक त्रासदी' का रहस्य क्या है आख़िर ?यह प्रथा कब क्यों और कैसे शुरू हो गयी और वैश्विक रूप ले बैठी ! यह कुछ अटपटा सा नहीं लगता कि पुरूष अपने ही हाथों अपने पौरुष को तिलांजलि दे देता है और वह भी प्रायः हर रोज !
आख़िर क्या हुआ कि दुनिया की अनेक संस्कृतियों के युवाओं ने इस लैंगिक निशाँ से दरकिनार होने को ठान ली ?किसी भी से पूँछिये दाढी बनाना सचमुच एक रोज रोज के झंझट भरे काम से कम नहीं नही है -हाँ नए नए शौकिया मूछ दाढी मुंडों की बात दीगर है वहां तो कुछ गोलमाल ही रहता है -रेज़र कंपनियां ,आफ्टर शेव और क्रीम लोशन उद्योग तो बस उनके इसी टशन की बदौलत ही अरबों का वारा न्यारा कर रही हैं ! डॉ दिनेशराय द्विवेदी और मेरे जैसे वयस्कों के लिए तो रोज रोज की समय की यह बर्बादी अखरने वाली ही होती है .
एक साठ साला आदमी जिसने १८ वर्ष की उम्र से ही यह दैनिक क्षौर कर्म शुरू कर दिया हो और कम से कम १० मिनट रोज अपना समय इसके लिए जाया करता रहा हो तो समझिये वह कम से कम २५५५ घंटे यानी पूरे १०६ दिन सटासट -सफाचट में ही जाया कर चुका है .तो आख़िर इतनी मशक्कत किस लिए ?? जानेंगे अगले अंक में !