Sunday 20 July 2008

दोहरी भूमिका में हैं नारी के वक्ष ...1

नारी वक्ष की दो रोल हैं- एक तो शिशु का पोषण (दुग्धपान) तथा यौनाकर्षण। किन्तु व्यवहारविदों की राय में नारी स्तनों की यौनाकर्षण वाली भूमिका ही ज्यादा अहम है। समूचे नर वानर समुदाय (प्राइमेट्स) में मानव मादा ही इतने उभरे अर्द्धगोलाकार मांसल स्तनों की स्वामिनी है। इससे यह स्पष्ट है कि मानव प्रजाति में मादा के स्तनों की मात्र शिशु पोषण वाली भूमिका ही नहीं है, जैसा कि वह नर-वानर वर्ग के कितने ही अन्य सदस्यों-चिम्पान्जी गोरिल्ला, ओरंगऊटान आदि वनमानुषों में हैं।
यह गौर तलब है कि वनमानुषों की मादाओं का स्तर अपेक्षाकृत बहुत पिचका और बिना उभार लिए होता है। नारी स्तनों की सबसे अहम भूमिका दरअसल यौनाकर्षण (सेक्सुअल सिगनलिंग) ही है। व्यवहार विज्ञानियों ने नारी वक्ष की यौनाकर्षण वाली भूमिका की एक रोचक व्याख्या प्रस्तुत की है। उनका कहना है कि नर वानर कुल के तमाम दूसरे सदस्यों में मादाओं के नितम्ब प्रणय काल के दौरान तीव्र यौनाकर्षण की भूमिका निभाते हैं - उनके रंग आकार में सहसा ही तीव्र परिवर्तन हो उठता है। उनके नर साथी इन नितम्बों के प्रति सहज ही आकर्षित हो उठते हैं। यह तो रही चौपायों की बात किन्तु मानव तो चौपाया रहा नहीं।

विकास क्रम में कोई करोड़ वर्ष पहले ही वह दोपाया बन बैठा-दो पैरों पर वह सीधा खड़ा होकर तनकर चलने लगा। वैसे तो और उसके पृष्ठभाग में नितम्ब अपने कुल के अन्य सदस्यों की ही भा¡ति अपनी यौनकर्षण वाली भूमिका का परित्याग नहीं कर पाये हैं- किन्तु मानव के ज्यादातर कार्य व्यापार आमने सामने से ही होने लगे, और नितम्ब पीछे की ओर चले गये। अब जरूरत आगे, सामने की ओर ही वैकल्पिक यौनाकर्षक `नितम्बों´ की थी और यह भूमिका ग्रहण की नारी स्तनों ने। नारी के वक्ष दरअसल उसी आदि यौन संकेत का ही बखूबी सम्प्रेषण करते हैं - सेक्सुअल नितम्बों का भ्रम बनाये रखते हैं, मगर सामने से मानव मादा के स्तनों की यह नयी यौन भूमिका कुछ ऐसी परवान चढ़ी कि उसके मूल जैवीय कार्य यानी शिशु को स्तनपान कराने में मुश्किलें आने लगीं।

अपने उभरे हुए गुम्बदकार स्वरूप में नारी के स्तन शिशुओं का मुंह ढ़क लेते हैं, स्तनाग्र अपेक्षाकृत इतने छोटे होते हैं कि शिशु उन्हें ठीक से पकड़ नहीं पाता। उसकी नाक स्तन से ढक जाती है और वह सांस भी ठीक से नहीं ले पाता। प्राइमेट कुल के अन्य सदस्यों के शिशुओं को यह सब जहमत नहीं झेलनी पड़ती। क्योंकि उनकी मा¡ओ के स्तन छोटे पतले और पिचके से होते हैं और चूचक लम्बे, जिन्हें शिशु आराम से मु¡ह में लेकर दुग्ध पान करते हैं।

नारी के पूरे जीवन में स्तनों की विकास यात्रा सात चरणों में पूरी होती है। जिनमें बाल्यावस्था के `चूचुक स्तन´, सुकुमारी षोडशी के उन्नत शंकुरूपी स्तन, नवयौवना के स्थिर उभरे स्तन तथा मातृत्व और प्रौढ़ा के पूर्ण विकसित, अर्द्धगोलाकार - गुम्बद रूपी स्तन और वृद्धावस्था के सिकुड़े स्तन की अवस्थाए¡ प्रमुख हैं।

क्रमशः

भई गति कीट भृंग की नाई..... !!

यह है कीट भृंग गति !
भारतीय विद्या भवन मुम्बई की आमुख हिन्दी पत्रिका नवनीत के ताजे जुलाई अंक में उक्त शीर्षक का मेरा लेख प्रकाशित हुआ है ।
यह रामचरित मानस के उस प्रसंग के उल्लेख से आरम्भ होता है जब रावण मारीच को स्वर्ण मृग बन कर सीता हरण की योजना में मदद करने को बाध्य करता है ,लेकिन मारीच यह कहकर अपनी असमर्थता प्रकट करता है -

भई गति कीट भृंग की नाई..... जह तंह मैं देखऊँ दोऊ भाई !

दरअसल नवनीत का उक्त लेख मेरी उस अर्धाली के अर्थबोध की लम्बी प्रक्रिया और शोध का फल है ।

आध्यात्म में कीट भृंग गति की बड़ी चर्चा है .आख़िर यह कीट भृंग गति है क्या ?

उक्त लेख में यही विस्तार से विवेचित है .वैस्प-ततैये [बिलनी] की कुछ प्रजातियाँ घरों में मिट्टी के घरौदें बनाती हैं .चूंकि इनका जीवन बस कुछ माह का ही होता है ये घरौंदे बनाकर उसमें अंडे देकर अल्लाह मियाँ को प्यारी हो जाती हैं -अंडे से निकल कर आख़िर इल्लियों को खिलायेगा कौन -मान बाप तो गुजर चुके .इसलिए ततैये कुछ किस्म के कीटों को अपने डंक से मारकर उसी घरौंदे में डाल कर ,घरौंदे का मुंह बंद कर अपने दायित्व के इतिश्री कर लेते हैं ।
अपने डंक से जो रसायन वे कीटों में छोड़ते हैं उनसे कीट मरता नही बल्कि एक तरह की पैरालाईजड अवशता की स्थिति मे जा पहुंचता है .अब वह चूंकि मरा नही है अतः सड़ता गलता नही .ततैये के अंडे से फूट कर निकले बच्चे रखे रखाए भोज की दावत उडाते हैं और फिर अपने मात्र एक वर्ष के जीवन की लीला आरम्भ कर देते हैं ।

कीट भृंग के इस व्यवहार ने सदियों से प्रकृति प्रेमी संत मुनियों को आकर्षित किया होगा और उन्होंने इससे जुडी आध्यात्मिक उपमाएं सोची विचारी होंगी -

मारीच का कहना है कि उसकी गति तो राम लक्ष्मण को देखते ही भृंग के सामने कीट सी हो जाती है -वह बेबस और लाचार है .उसे ताड़का वध के समय राम के उस बाण की याद आती है जिसने उसे सौ योजन दूर जा पटका था ।

नवनीत का लेख थोडा और विस्तृत सन्दर्भों को समेटे हुए है .कहीं मिल जाए तो पढ़ना चाहें .