Saturday 29 August 2015

बच्चों को दें वैज्ञानिक मनोवृत्ति का संस्कार



                                             बच्चों को दें वैज्ञानिक मनोवृत्ति का संस्कार 
 अरविन्द मिश्र 
मेघदूत मैंशन, चूडामणिपुर 
तेलीतारा,बख्शा 
                                                           जौनपुर -222102, उत्तर प्रदेश 

आधुनिक ज्ञान विज्ञान की वैश्विक भाषा अंग्रेजी की एक मशहूर हिदायत है -कैच देम यंग। अर्थात उनमें किसी भी जीवनपर्यन्त सीख को बचपन से ही अंकुरित करें. बच्चों का मानस पटल एक अनलिखी स्लेट है. उनका खुला दिमाग, उनकी जिज्ञासु प्रवृत्ति दरअसल विज्ञान के प्रति उनकी अभिरुचि जगाने के लिए बहुत अनुकूल है. वे प्रश्न पर प्रश्न पूंछते रहते हैं. कभी ऐसे सवालों का जवाब हमारे आदि मनीषी तत्कालीन उपलब्ध सीमित ज्ञान के जरिये दिया करते थे। यमुना का पानी नीलापन लिए क्यों है? सवाल हुआ तो जवाब कालिया मर्दन के जरिये दिया गया -जिस नाग के विष के जरिये यमुना का पानी नीला हो गया -बालमन की जिज्ञासा शांत हो गयी।

ऐसे कई कथानक हैं जिनसे हमारा पौराणिक कथा साहित्य समृद्ध हुआ है। हिमालय क्यों इतना ऊँचा है और विंध्याचल नीचे बिखरा हुआ। अगस्त्य के दक्षिणायन होने की कथा का सूत्रपात हुआ। समुद्र का पानी खारा क्यों है -ऋषि निःसृत मूत्र प्रवाह का रोचक कथानक सृजित हुआ। सवाल दर सवाल आये- नित नूतन कथाओं का सृजन हुआ। मगर आज इन कहानियों की पुनर्रचना की आवश्यकता है और नए सवालों के जवाब बालमन को छूने वाली शैली में दिए जाने की जरुरत है। 

विज्ञान कथाओं के जरिये वैज्ञानिक मनोवृत्ति का प्रसार
आशय यह है कि भारत में सदियों से कहानी कहने सुनने का प्रचलन है...दादा, दादी की कहानियाँ दर पीढ़ी बच्चों ने सुनी है, भले ही उनमें ज्यादातर परीकथाएँ भी रही हों मगर वे अपने समय की मजेदार कहानियाँ रही हैं.. तब मानव का विज्ञान जनित प्रौद्योगिकी से उतना परिचय नहीं हुआ था. नतीजन परी कथाओं में पौराणिक तत्वों , फंतासी और तिलिस्म का बोलबाला था मगर वैज्ञानिक प्रगति के साथ ही नित नए नए गैजेट, आविष्कारों, उपकरणों, मशीनों की लोकप्रियता बढ़ी, लोगों के सोचने का नजरिया बदला और बच्चों को भी अब यह आभास हो चला है कि परियाँ, तिलस्म, जादुई तजवीजें सिर्फ कल्पना की चीजे हैं। आज आरंम्भिक कक्षाओं के बच्चों को भी यह ज्ञात है कि चन्द्रमा पर कोई चरखा कातने वाली बुढि़या नहीं रहती बल्कि उस पर दिखने वाला धब्बा दरअसल वहां के निर्जीव गह्वर और गड्ढे हैं. अपनी धरती को छोड़कर इस सौर परिवार में जीवन की किलकारियां कहीं से भी सुनायी नहीं पड़ी हैं.

आज मनुष्य अन्तरिक्ष यात्राएं करने लग गया है और सहसा ही अन्तरिक्ष के रहस्यों की परत दर परत हमारे सामने खुल रही है। बच्चों को इस नए परिवेश के अनुसार विज्ञान गल्पों के सृजन की बड़ी जरुरत है. आइसक आजिमोव ने कई बार बच्चों की कक्षा में विज्ञान कथा के जरिये उन्हें विज्ञान की बुनियादी बातें बताने की वकालत की है। अब अगर बच्चों को चाँद के बारे में बताना है तो क्यों नहीं शुरुआत जुले वर्न की ट्रिप टू मून किया जाय। भारतीय विज्ञान कथाकारों की भी हिन्दी में कई कथाएं हैं जिन्हे बालकक्षाओं में शामिल किया जा सकता है। इस और शिक्षाविदों के ध्यानाकर्षण की जरुरत है.

विज्ञान की पत्रिकाएं और ऑनलाइन सामग्री
हिन्दी की कई विज्ञान पत्रिकाएं हैं खासकर विज्ञान प्रगति और विज्ञान जो हर घर में होनी चाहिए। मुझ जैसे अनेक लोगों की विज्ञान की ओर झुकाव का मुख्य कारण बचपन से घर में इन पत्रिकाओं का नियमित आना रहा है। मल्टीमीडिया के जरिये अब शिक्षण का युग शुरू हो गया है। इसके जरिये बच्चों को घर में और कक्षा में भी विज्ञान के प्रति अभिरुचि उत्पन्न की जा सकती है। आज ऑनलाइन पत्रिकाओं के संस्करण की शुरआत हो चुकी है। विज्ञान कथा पत्रिका ऑनलाइन उपलब्ध है. विज्ञान प्रगति और विज्ञान आपके लिए भी ऑनलाइन उपलब्ध। इनके ग्राहक भी स्कूल कालेज बन सकते हैं. ये पत्रिकाएं ऑफ़लाइन ग्राहक बनने पर मुफ्त ही ऑनलाइन पढ़ी जा सकती हैं. आशय यही है कि बच्चों में वैज्ञानिक मनोवृत्ति लिए विज्ञानमय परिवेश उनमें विज्ञान के प्रति एक सहज अनुराग का संस्कार डालेगा।

विज्ञान की पद्धति का प्रसार

विज्ञान के मूल में जिज्ञासा प्रश्न और संशय का होना है। बच्चों में इन प्रवृत्तियों को निरंतर प्रोत्साहित करते रहना चाहिए। यह वैज्ञानिक पद्धति से विवेचन की उनकी क्षमता को समृद्ध करेगा। लेकिन इसके लिए भी उनमें परिवेश और प्रकृति का सतत और सूक्ष्म अवलोकन करने के भाव को उकसाना चाहिए। वह जितना ही निरखे परखेगा उतने ही सवाल मन में कौंधेगें। और एक खोज /अन्वेषण का मार्ग प्रशस्त होता जाएगा। अवलोकन से प्रश्न और उनके कई संभावित जवाब ,फिर एक बुद्धिगम्य संकल्पना और उसकी जांच /परीक्षण /सत्यापन फिर निष्कर्ष -यही तो है विज्ञान की पद्धति हम तथ्य और सिद्धांतों तक जा पहुंचते है -अन्वेषण हो पाते हैं। इस वैज्ञानिक पद्धति का संस्कार बच्चे में डाला जाना जरूरी है. अन्यथा हम वैज्ञानिक मनोवृत्ति का व्यापक प्रसार करने में कभी सफल नहीं हो पायेगें!

प्रकृति निरीक्षण

हमारी मौजूदा शिक्षा प्रणाली में प्रकृति निरीक्षण के लिए कोई स्थान नहीं रह गया है। बच्चों में पशु पक्षी अवलोकन, प्राकृतिक इतिहास (नेचुरल हिस्ट्री कलेक्शन ) व्योम विहार जैसे शौक की ओर उन्मुख करने का कोई प्रयास नहीं रहा है। आज के स्कूली छात्र हमारे चिर परिचित परिंदों पशुओं तक नहीं पहचानते। एक ब्रितानी बच्चे का अपने प्रमुख पशु पक्षियों को लेकर सामान्य ज्ञान बहुत अच्छा है। आज हमारा वन्य जीवन तेजी से विनष्ट हो रहा है.पशु पक्षी विलुप्त हो रहे हैं -चीता भारतीय जंगलों से कबका विलुप्त हो चुका है। अगर हम बच्चों में इन विषयों के प्रति जागरण नहीं लाते तो उनसे अपेक्षा कैसे कर सकते हैं कि आगे चलकर वे वन्य जीवों की रक्षा के प्रति जिम्मेदारी उठायेगें!

ज्वलंत मुद्दों के प्रति संवेदीकरण

आरंभिक कक्षाओं से ही बच्चों को स्थानिक एवं वैश्विक मुद्दों के प्रति संवेदित करने के लिए उनके पाठ्य पुस्तकों में सरल अध्याय होने चाहिए -गद्य और पद्य दोनों विधाओं में। पर्यावरण ,बढ़ती जनसँख्या, मौसम में बदलाव, घटते संसाधन और बढ़ती ऊर्जा जरूरते, ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोत, कृत्रिम बुद्धि आदि विषय हैं जिनमें बच्चों को संवेदित होना जरूरी है ताकि इन मुद्दों पर उनकी चिंतन प्रक्रिया आरम्भ हो सके. बांग्लादेश में अभी विगत अगस्त माह में बच्चों को बीमारियों और मौसम के बदलाव विषय पर जानकारी देकर उनके ज्ञान परीक्षण की रिपोर्ट प्लास वन ऑनलाइन पत्रिका में छपी (http://journals.plos.org/plosone/article?id=10.1371/journal.pone.0134993)है। उनके लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन की गाइडलाइन के अनुसार कक्षा दस के लिए मैनुअल तैयार कर बच्चों पढ़ाया गया। उन्हें भविष्य के लिए तैयार किया जा रहा है।

भारत के लिए इसी तरह ज्वलंत मुद्दों पर पाठ्यक्रम तैयार किये जा सकते हैं और विज्ञान संचार को समर्पित विज्ञान परिषद जैसी संस्थाओं को इस ओर शिक्षाविदों,विज्ञान संचारकों के सहयोग से पहल करनी चाहिए।