Wednesday 3 October 2007

साइब्लाग की भूमिका नंबर दो-धर्म और विज्ञान

धर्म और विज्ञान पर किसी भी चर्चा को शुरू करने के पहले महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन के इस कथन को उधृत कर देने का लोभ संवरण कर पाना मुश्किल हो जाता है कि "धर्म के बिना विज्ञान लंगडा है और विज्ञान के बिना धर्म अंधा " आख़िर वह कौन सी सोच रही होगी जिसके तहत आइन्स्टीन ने उक्त विचार व्यक्त किए. साइब्लाग की भूमिका नंबर दो मे इसका थोडा विश्लेषण किया जाए .पहले ,धर्म के बिना विज्ञान के अंधा होने की बात .दरअसल विज्ञान सत्य की खोज तो करता है किंतु वह सत्य मानव का हित साधक है या अहितकारी इससे विज्ञान का कुछ लेना देना नही है . जबकि हमारी प्रबल मान्यता सत्यम शिवम सुन्दरम की रही है .यह एक धार्मिक सोच है -सत्य वह हो जो सुंदर हो ..शिव हो यानी मंगलकारी हो -बहुजन हिताय बहुजन सुखाय हो .विज्ञान हमे कोई जीवन दर्शन अभी तक नही दे सका है ,शायद यह इसकी प्रकृति मे नही है या कह सकते हैं कि जीवन दर्शन देना विज्ञान का धर्म नही है -और यही वह पहलू है जो विज्ञान को अधूरा बनाता है ,लंगडा कर देता है- इस अर्थ मे कि वह मानवता के व्यापक हित मे नही है . यहीं धर्म का मार्गदर्शन जरूरी हो जाता है -वह धर्म जो अच्छे बुरे का संज्ञान देता हो ,आदर्श जीवन की रूपरेखा बुनता हो .मानव मानव के बीच प्रेम सदभाव और भाईचारे का बीज बोता हो ,विज्ञान की खोजों का बहुजन हिताय मार्ग बताता हो .एक आदर्श और उपयुक्त जीवन की आचार संहिता बुनता हो .विज्ञान के साथ इस तरह का धर्म अगर जुड़ जाय तो बस बात बन जाए.

आईये अब सिक्के के दूसरे पहलू पर .धर्म बिना विज्ञान के अंधा क्यों है ? इसलिए की आज धर्म के जिस रूप से हम परिचित हैं वह अद्यतन नही है ,एक अवशेष है ,रूढ़ हो चला है .धर्म के शाश्वत मानवीय मूल्यों जो जन जन के हित की बात सर्वोपरि रखता है -परहित सरिस धर्म नही भाई के बजाय हम सभी उसके पोंगापन्थी स्वरूप को बनाए रखना चाहते हैं -हम अभी भी लोगों को स्वर्ग नरक के चक्कर मे अपने निहितार्थों के चलते फंसाये रहते हैं .धर्म के नाम पर मार काट तक मचा देते है .आज जरूरत एक संशोधित धर्म की है जो तार्किकता और विज्ञान के आलोक मे एक नया जीवन दर्शन दे, अपने अच्छे शाश्वत मूल्यों को बनाए रखते हुए भी .आज विज्ञान की आंखें उसका मार्गदर्शन कराने को तत्पर हैं .

विज्ञान और धर्म का समन्वय काल की सबसे बड़ी पुकार है .