Monday, 28 May 2012

वे बड़े कि हम ......


मनुष्य के संज्ञानबोध का फलक बहुत सीमित है .हम एक इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम के उपरी छोर के गामा विकिरणों और निचले स्तर के अल्ट्रा वायलेट फ्रीक्वेंसी के बीच हिस्से के प्रति ही संवेदित हो पाते हैं ,उसका संज्ञान ले पाते हैं . यही हमरा दृश्य क्षेत्र है . इसे हमारा दृश्य संवेदी अंग रंगों में देखता है जहाँ नीले के ठीक ऊपर अल्ट्रा वायलेट -परा बैगनी क्षेत्र है जिसे कीट पतंगे तो देख लेते हैं मगर हम नहीं ...यही बात आवाज के साथ भी है जहाँ हमारी  सीमाएं निर्धारित हैं -चमगादड़ उच्च तरंग दैर्ध्य वाली वे परा ध्वनियाँ सुन लेते हैं जिनका हमें भान  तक नहीं होता ...और हाथी बहुत कम तरंग दैर्ध्यो वाले आवाज में संवाद कर सकते है और वह भी हमारे पल्ले नहीं पड़ता . 

कुछ मछलियाँ विद्युत् तरंगों के सहारे गंदे पानी में भी गंतव्य तक जा पहुँचती हैं और यह क्षमता  भी मनुष्य में नदारद है . हम धरती के चुम्बकीय क्षेत्र की अनुभूति से भी वंचित हैं जिसका लाभ उठाकर बहुत से पक्षी प्रवास गमन करते हैं . और हम बरसात के बादल भरे  दिनों  में आकाश के उन सूर्य -प्रकाश के ध्रुवित पुंजों को भी लक्षित नहीं कर पाते जिनसे मधुमक्खियाँ सहारा पा अपने छत्ते और फूलों के बीच आने जाने का  रास्ता तय करती हैं ... 

मगर हमारी सबसे बड़ी अक्षमता  है स्वाद और गंध के मामले की जिसमें हम सभी जीव जंतुओं से पिछड़ गए हैं .जीव जगत के ९९ फीसदी सदस्य चाहे वे बड़े जानवरों से लेकर कीड़े मकोड़े  तक क्यों न हो रासायनिक /गंध के इस्तेमाल से  संवाद कर लेते  हैं . इन रसायनों को वैज्ञानिक फेरोमोन कहते हैं . गंध की क्षमता में ब्लड हाउंड कुत्तों और रैटल स्नेक के सामने हम निरे लल्लू ही हैं ... अपनी गंध और स्वाद की अनुभूति की अक्षमताओं ने मनुष्य को इतना लाचार कर दिया है कि इनसे जुड़े बहुत से अनुभवों के लिए वह तरह तरह की उपमाएं ढूंढता फिरता है .. मतलब  गंध और स्वाद के बखान के लिए मनुष्य के पास बहुत कम शब्द संग्रह है . हालांकि मनुष्य इन कमियों की भरपाई के लिए तरह तरह के यंत्र /डिवाईस-जुगतें बना रहा है . कृत्रिम संवेदी नाक है तो जीभ की कृत्रिम स्वाद कलिकाएँ प्रयोगशालाओं में बनायी जा रही हैं जिनके लिए जीव जंतु माडल के रूप में चयनित किये गए हैं . 

नए प्रयोगों में  मनुष्य की निर्भरता जीव जंतुओं पर बढ़ती जा  रही है ..फिर भी हम अपने को सर्वोच्च मानने के मुगालते में ही हैं .... 

Thursday, 17 May 2012

दैत्याकार होते मनु पुत्र !

अभी इसी वर्ष की बीती फरवरी में  रूसी वैज्ञानिकों के एक अभियान दल ने अन्टार्कटिका में एक इतिहास रच दिया .विगत तकरीबन एक दशक से यहाँ के विपरीत मौसम में भी प्रयोग परीक्षणों में जुटे इन वैज्ञानिकों ने ठोस बर्फ की ३.२ किमी गहरी  खुदाई पूरी करते ही एक ऐसा दृश्य देखा कि अभिभूत हो उठे ...यहाँ एक ग्लेशियर नदी कल कल कर बह रही थी ...जो करीब ३.४ करोड़ वर्ष पहले से वहां दबी पडी थी और इतने लम्बे अरसे से सूर्य के किरणों से उसका मिलन नहीं हुआ था .यह युगों से शान्त स्निग्ध बहती जा रही थी .....अभिभूत वैज्ञानिकों ने इसका नाम रखा वोस्टोक...मगर  एक और पहलू भी था, वोस्टोक के जल में करोडो वर्षों पहले के माईक्रोब -सूक्ष्म जीव भी हो सकते थे जिनसे आज की मानवता परिचित नहीं है -और ये अनजाने आगंतुक किसी नयी महामारी को न्योत दें तब ? वोस्टोक के जल का ताप और संघटन बृहस्पति के एक उपग्रह /चाँद यूरोपा की प्रतीति कर रहे थे ...वैज्ञानिकों को यह सूझ कौंधी कि वोस्टोक के विस्तृत अध्ययन से सौर मंडल के समान पर्यावरण वाले ग्रहों -उपग्रहों ,ग्रहिकाओं का भी अध्ययन धरती पर बैठे ही हो सकेगा .. 
वोस्टोक 
ऊपर का दृष्टांत मनुष्य की अन्वेषी और सर्वजेता बनने की भी प्रवृत्ति का उदाहरण प्रस्तुत करती है .आज मनुष्य ने धरती के  बर्फ से बिना ढके तीन चौथायी से अधिक के भू /जल भाग की जांच पड़ताल कर रखी है .मानव चरण वहां पड़ चुके हैं . और एक कहावत हैं न- जहं जहं चरण पड़े संतों के तहं तहं बंटाधार ...ऐसी ही स्थिति अब उजागर होने लगी है क्योकि मनुष्य जहाँ जहाँ पहुँच रहा है पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है ,प्रकृति का ताम झाम बिखर रहा है . धरती के ४.५ अरब के इतिहास में मनुष्य अभी कुछ पलों पहले ही अवतरित हुआ है मगर कारनामें ऐसे कि धरती के तीन चौथायी हिस्से पर कब्ज़ा हो चुका है .. दुनिया  के ९० प्रतिशत पेड़ पौधे मनुष्य की छाया में आ गए हैं . अब तक हमने कितने ही वनों उपवनों को उजाड़ डाला है और हजारों प्रजातियों के विलुप्त हो जाने का दुष्कृत्य कर डाला है मगर हमारे पाँव अभी थमे नहीं हैं . सागरों को हमने अपनी गतिविधियों से मथ डाला है ,सागर संपदा का भयंकर दोहन किया है ,मछलियाँ खात्में के कगार पर हैं ..समुद्रों  में भी कई 'रेगिस्तानी जोन' बन गए हैं जो सीधे सीधे हमारी गतिविधियों की ही देन हैं .

मनुष्य की गतिविधियाँ इतनी तेजी से धरती का हुलिया बिगाड़ रही हैं जो वैज्ञानिकों की पेशानी पर बल डाल रही हैं .अभी तो १०-१२ हजार साल पहले ही  धरती एक हिमयुग से मुक्त हुयी और मानव ने खुद का विस्तार शुरू किया था ...और इतने शीघ्र सब कुछ इतना बदल गया? कहने को तो यह धरती युग 'होलोसीन इपोक'  कहलाता है मगर वैज्ञानिकों ने इस युग का नया नाम ढूंढ लिया है -अन्थ्रोपोसीन, मतलब मनुष्य का युग .यह नामकरण देते हुए नोबेल लारियेट  पौल क्रुटजेन ने कहा है कि" मनुष्य और प्रकृति के बीच वस्तुतः अब कोई लड़ाई ही न रही ,यह अब एकतरफा मामला है -अब मनुष्य ही यह निर्णय कर रहा है कि कुदरत का क्या होना है और भविष्य में वह कैसी रूप लेगी ? "

 अभी मुश्किल से १५-२० हजार साल पहले तक मनुष्य केवल एक गुफावासी आखेटक हुआ करता था ,फिर तकरीबन दस हजार वर्ष पहले से ही मनुष्य ने  कृषि कर्म अपनाया और धरती का चेहरा बदलने लगा . आज धरती के  बर्फ से रहित भाग का ३८% कृषि योग्य जमीन में तब्दील किया जा चुका है ..बर्फ पर खेती संभव नहीं हो पायी है नहीं तो वह वहां भी हरियाली बिखेर चुका होता ..कहते हैं कृषि के चलते मनुष्य की रक्तबीजी जनसंख्या भी बढ़ चली है . मगर १८०० की औद्योगिक क्रान्ति ने तो मनुष्य की विकास की गतिविधियों में मानों एक "विस्फोट ' सा कर दिया ....और अन्थ्रोपोसीन युग की नींव डाल दी ....हम देखते देखते १ अरब से सात अरब के ऊपर जा पहुंचे हैं और हमारे इस तेज वंश वृद्धि पर प्रसिद्ध समाज जैविकीविद ई ओ विल्सन ने चुटकी लेते हुए कहा है कि यह वृद्धि तो जीवाणुओं की प्रजननशीलता को भी मात करती है . आज धरती पर मनुष्य का जैवभार उन सभी दैत्याकार छिपकलियों -डायनासोरों से भी सौ गुना ज्यादा हो चुका है जिनका कभी धरती पर राज्य था ...
इतनी बड़ी महा दैत्याकार जनसंख्या  के पोषण में हमारे कितने ही खनिज ,तेल आदि संसाधन स्वाहा हो रहे हैं . अन्थ्रोपोसीन धरती का बुरा हाल किये दे रहा है . इसके अंगने में अब प्रकृति का कोई काम ही नहीं रहा ....नैसर्गिकता के दिन लद चले हैं ...हाँ संरक्षणवादियों चिल्लपों तो मची है मगर उनकी आवाज विकास के पहिये के शोर में अनसुनी सी रह जा रही है . आखिर हम धरती को अब और कितना रौंदेगें? मगर क्या कोई विकल्प बचा भी है ? 

Wednesday, 9 May 2012

चलो गूगल में देख लेगें ....याद क्या करना!

अंतर्जाल प्रेमियों की कमज़ोर होती याददाश्त अंतर्जाल ने सूचनाओं का एक ऐसा जखीरा हमारे सामने ला दिया है कि हमें अब कहीं और जाने की जरुरत नहीं है .बाद गूगल पर गए और इच्छित जानकारी ढूंढ ली . न लाईब्रेरी की ताक झांक ,न किताब की दुकानों या  घर के शेल्फों पर नजरें दौडाने की जहमत . अंतर्जाल के सर्च इंजिनों पर  सूचनाओं की सहज उपलबध्ता की स्थिति कुछ वैसी ही है जैसा कि कोई शायर कह गया है ,दिल में सजों रखी है सूरते यार की जब मन मन चाहा देख ली....मगर मस्तिष्क विज्ञानियों ने एक खतरा भांप लिया है .उनका कहना है यह मनुष्य की याददाश्त को कमज़ोर कर देगा . पहले सूचनाओं से साबका होने पर लोग उसे याद करके मस्तिष्क  में सुरक्षित रखते थे .मगर अब पैटर्न बदल रहा है ..लोगों का एक लापरवाह रवैया हो गया है कि चलो गूगल में देख लेगें ....

प्रसिद्ध वैज्ञानिक शोध पत्रिका 'साईंस' में   कोलम्बिया विश्वविद्यालय की प्रोफ़ेसर बेट्सी स्पैरो के छपे अध्ययन में खुलासा हुआ है कि अंतर्जाल युग में नवीन जानकारियों -सूचनाओं को प्रासेस करने के तीन चरण हैं .पहला तो यह कि अगर  हमें किसी प्रश्न की जानकारी प्राप्त करनी है तो अगर घर में हैं तो तुरत घर के पी सी और अगर बाहर  हैं तो अगल बगल के वेब ढाबे का रुख करते हैं बजाय इसके कि यह ठीक से उस प्रश्न को समझ लें . जैसे जब अध्ययन के 'सब्जेक्ट ' विद्यार्थियों से जब यह पूछा गया कि उन देशों का नाम बताईये जहाँ के झंडे में केवल एक रंग है तो लोगों के दिमाग में झंडे नहीं बल्कि कंप्यूटर उभर आया ..जबकि ऐसे सवालों के प्रश्न में पहले लोगों के मन में झंडों और देशों का चित्र उभरता था .. दूसरी समस्या है की नयी जानकारी मिलने पर अब तुरत फुरत उसका यथावश्यक इस्तेमाल तो कर लेते हैं मगर उतनी ही तेजी से भूल भी जाते हैं . अब जैसे यह जानकारी कि कोलंबिया शटल हादसा फरवरी २००३ में हुआ था अध्ययन के छात्रों को देते हुए उनमें से आधे को  कहा गया कि यह जानकारी उनके कंप्यूटर में 'सेव' रहेगी जबकि आधे छात्रों को बताया गया कि यह तारीख मिटा दी जायेगी ....बाद में देखा गया कि जिन्हें यह बताया गया था कि जानकारी मिटा दी जायेगी उन्हें यह तारीख याद रही जबकि दुसरे आधे समूह को यह तारीख ठीक से याद नहीं थी ...जाहिर है हम अपनी याददाश्त की क्षमता को तेजी से कम्यूटर को आउटसोर्स कर रहे हैं . 

शोधार्थी अब तक एक तीसरे प्रेक्षण पर पहुँच चुके थे -अब कोई भी नयी बात हम अपने दिमाग में रखने की पहल के बजाय यह उपक्रम करने में लग जाते हैं कि इसे हम कम्यूटर में कहाँ स्टोर करें ... मतलब हम तेजी से कम्यूटरों के साथ एक सहजीविता (सिम्बियाटिक ) रिश्ता बनाते जा रहे हैं ..मतलब कम्यूटर हमारी याददाश्त का संग्राहक बन रहा है . मनोविज्ञानी इसे  ट्रांसैकटिव मेमोरी का नाम देते हैं . इस तरह की 'ट्रांसैकटिव मेमोरी' का उदाहरण हम अक्सर घर में दम्पत्ति के कार्य बट्वारों में देखा जाता है -जैसे पत्नी को बच्चे के फीस आदि जमा करने की याद रहती है तो पति को कई तरह के बिलों के भुगतान की तारीख करनी होती है .अब यह सारा जिम्मा कंप्यूटर के पास जा रहा है . 

मगर इस प्रवृत्ति से मनुष्य के सामने याददाश्त ही नहीं चिंतन और तार्किकता के क्षरण का भी प्रश्न उठ खड़ा हुआ है ...कौवा कान ले गया यह सुनते ही कान देखने के बजाय कौवे की खोज हास्यास्पद है .इसी तर्ज पर कई जानकारियाँ मनुष्य अपने दिमाग पर जोर देकर और संदर्भों के अनुसार दे सकता है .हर जानकारी के लिए कम्यूटर का सहारा लेना एक ऐसी ही प्रवृत्ति है .गूगल जानकारी ढूंढ सकता है ,संदर्भों की सूझ तो खुद हमें होनी चाहिए . गूगल संदर्भ थोड़े ही ढूंढेगा . और यांत्रिकी पर पूरी तरह से निर्भर होते जाना भी कतई ठीक नहीं है .यह हमारी मनुष्यता भी हमसे छीन लेगा..  

Monday, 2 April 2012

तितलियों के काले पंखों से अब ऊर्जा की इन्द्रधनुषी आभा


नए ऊर्जा स्रोतों की तलाश इक्कीसवी सदी की कतिपय बड़ी चुनौतियों में से एक है .एक सम्भावना पानी और सूरज की रोशनी से प्राप्त की जा सकने वाली हाईड्रोजन गैस है जो हमारी ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति में मददगार हो सकती है. यह प्रक्रिया एक ऐसे प्रविधि से संभव है जिसमें सूर्य के प्रकाश से उन उत्प्रेरकों के काम में तेजी लाई जाती है जो पानी को आक्सीजन और हाईड्रोजन के घटकों  में तोड़कर मुक्त कर सकें ...इस काम के लिए सूर्य की रोशनी के बड़े संग्राहकों की जरुरत है .

सैन डियागो में अभी २६ मार्च को संपन्न एक वैज्ञानिक गोष्ठी में कुछ शोधकर्ताओं ने ऐसी ही एक प्रविधि का विवरण प्रस्तुत किया है .तोंग्क्सियांग फैंन  ने तितलियों की दो प्रजातियोंत्रोइदेस  एअचुस, और  पपिलियो  हेलेनुस   के पंखों में सूर्य की रोशनी को कैद करने के ऐसे ही गुण को देखा परखा है . तितली के पंख सूर्य ऊर्जा को सहजता से कैद करने की नैसर्गिक क्षमता लिए हुए हैं . कीट विज्ञानी यह पहले से ही जानते आये हैं कि तितलियों के पंख के शल्क (स्केल्स) सूर्य की ऊर्जा को शोषित कर जाड़े के ठण्ड दिनों में भी इन नन्हे कीटों  को गरम बनाए रखने में मददगार रहते  हैं . अब शंघाई टैंग विश्वविद्यालय के शोध छात्र डाक्टर फैन की अगुयायाई में इसी प्रविधि की नक़ल कर कृत्रिम तरीके से बड़े सौर संग्राहकों के निर्माण में जुट गए हैं ...

प्रयोग प्रेक्षण में ली जाने वाली तितलियाँ काले पंखों वाली हैं जिनसे ऊर्जा का बड़े पैमाने पर शोषण तो होता है मगर अपक्षय बहुत कम ...वैज्ञानिक इसी तरह की प्रौद्योगिकी के विकास में जुट गए हैं ..इसके लिए तितलियों के पंखों पर के शल्कों की बड़े बारीकी से जांच चल रही है और ऐसी ही एक कृत्रिम प्रतिकृति के निर्माण पर जोर है ...शल्कों की रचनाएं कई कोणों वाली हैं -और ऐसे पदार्थ पर अनुसन्धान चल रहा   है जो इनकी  प्रतीति  कर सके ..अभी तो तितलियों के वास्तविक पंखों को ही टेम्पलेट के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है और उन्हें 'डिप-कैलसिनिंग' प्रक्रिया से टाईटनम  डाई आक्साईड में बदला जा रहा है ...

काले पंखों का जादू 
ज्ञात हो कि टाईटनम  डाई आक्साईड में पानी को हाइड्रोजन और आक्सीजन में तोड़ने की क्षमता है .इसी तितली पंख उद्भूत टाईटनम  डाई आक्साईड के ऊपर प्लैटिनम नैनो पार्टिकल के लेपन से इसकी आक्सीजन  -हाइड्रोजन विलगन क्षमता को बढ़ाने में भी सफलता मिली है .यह अनुसन्धान बायोमीमिक्री की नयी शाखा के एक बड़े लाभकारी उपयोग की संकेत दे रही है -तितलियों  के काले पंखों का जादू अब ऊर्जा की इन्द्रधनुषी आभा बिखेरने को बेताब है .. 

Sunday, 25 March 2012

मिल गयी है अमरता की कुंजी

जी हाँ,मिल गयी है अमरता की कुंजी!नभ थल में नहीं सागर की अतल गहराईयों में ....मजे की बात है कि पुराण काल से ही हमारे यहाँ अमरता की संजीवनी यानी अमृत को सागर प्रसूता ही माना गया है ..हमारे आदि पुरखों को किंचित यह आभास था कि अमरता का मूल मन्त्र कहीं सागर की गहराइयों में ही छुपा है ...और आज भी अमृत की तलाश को सागर संधान हो रहा है ....आधुनिक विज्ञान मानो मानवता को अमृत कलश थमाने को उद्यत है ....

नयी खोज का प्रमाणिक विवरण तो यहाँ है मगर साईब्लाग के पाठकों के लिए एक बानगी  प्रस्तुत है ....धरती को तो मृत्युलोक ही कहते हैं अर्थात जो यहाँ आया है उसका जाना तय है ....जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु:...मगर मनुष्य ने कब कहाँ हार मानी है ..वह अमरता का मन्त्र ढूँढने में लगा रहा है ...अब उसकी खोज उसे एक समुद्री जीव की ओर  ले गया है जो तकनीकी दृष्टि से कभी नहीं मरता ...घोर विपरीत परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर वह फिर से जवान और बच्चा होने के उलटे चक्र की ओर चल पड़ता है ....यह है अपनी जानी पहचानी जेली फिश जिसे अगर कोई शिकारी उदरस्थ न कर ले या फिर यह दुर्घटना वश या बीमारियों के चपेट में जान गँवा न बैठे तो यह अमर है ....इस प्रजाति का नाम है ट्यूरीटोप्सिस  न्यूट्रीकुला(Turritopsis nutricula )  जिसे इम्मार्टल जेलीफिश भी कहते हैं ....यह प्रजाति जवान होने पर यानी अपने जीवन काल के मेड्यूसा अवस्था से फिर अपने बाल्यकाल अर्थात पालिप अवस्था को लौट चलने की अद्भुत बेमिसाल  क्षमता रखती है ....

वैज्ञानिकों की बोली भाषा में जेली फिश जो प्राणी समुदाय के मेटाज़ोआ श्रेणी की नुमाईंदगी करती है में रिवर्स एजिंग यानी जीवन के उलटे चक्र की इस विशेषता को ट्रांसडिफरेंसियेशन  कहा जाता है . इस प्रक्रिया के तहत पहले इस जीव की छतरी सिमट जाती है फिर सम्वेदिकाएं और फिर अन्य शारीरिक अवयव/पदार्थ  (मीसोग्लिया ) शोषित हो उठते हैं ...और अब छतरी के विपरीत सिरे से यह किसी सतह पर चिपक कर फिर नए शिशु जेलीफिश -"पालिप"  का अलैंगिक उत्पादन शुरू कर देती है -और यह पूरी प्रक्रिया जैवीय अमरता की  एक अद्भुत मिसाल पेश करती है ....अब वैज्ञानिक कोशिका स्तर पर ट्रांसडिफरेंसियेशन प्रक्रिया को जानने समझने में जुट गए हैं और अगर इस प्रक्रिया का दुहराव अन्य प्राणियों या मनुष्य की कोशिकाओं में किया जाना संभव हो जाय तो फिर क्या अमरता की हमारी चिर कामना पूरी नहीं  हो जायेगी? ...हालांकि अमरता की अपनी मुसीबतें भी हैं .....यह धरती बिना प्राणत्याग के कितने मनुजों की भार ढोती रहेगी ..संसाधन कहाँ से आयेगें? और जब अभी सौ वर्ष का ही जीवन अनेक रोगों ,कष्ट से व्याप्त है तो अमर जीवन क्या नरक तुल्य नहीं हो जाएगा .....? ? 

बहरहाल इन बातों पर सोच विचार के लिए तो हमारा पूरा जीवन ही पड़ा है तब तक आप जेली फिश की अमरता की कहानी का यह यू -ट्यूब देख डालिए ....


Saturday, 25 February 2012

फेसबुक दोस्ती पर शोधकर्ताओं की नज़र

दोस्त बनने ,दोस्ती होने जैसी मनुष्य की सामाजिक वृत्ति पर एक रोचक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने सोशल साईट फेसबुक की मदद ली है .क्या निजी रुचियाँ भी नए नए दोस्त बनने बनाने में मददगार होती हैं? बेशक . मगर यह इस पर निर्भर करता है कि आपकी अभिरुचि /हाबी क्या है? अगर आपकी संगीत में रूचि है तो संगीत  पसंद करने वाले दोस्त सहजता और जल्दी से आपकी ओर खिंचेगे जबकि अगर आप किताब पढ़ने के शौक़ीन हैं तो पुस्तक पढ़ाकू लोगों पर इसका असर नहीं होता -मतलब अपनी इस हाबी से आप फेसबुक पर भी लोगों को आकर्षित नहीं कर सकते....मतलब किताब पढ़ने का शगल आपको अंतर्जाल पर अकेला रखता  है ....

इन अध्ययनों को हाल ही में प्रोसीडिंग्स आफ नेशनल अकैडमी आफ सायिन्सेज में जगह मिली है .हार्वर्ड विश्वविद्यालय के तीन शोधार्थी -केविन लेविस,मार्को गोंजालेज और जेसन कौफमन ने  अपना अध्ययन फेसबुक पर मित्रों के आपसी अंतर्सबंधों पर केन्द्रित किया .यह अध्ययन इस बात पर भी प्रकाश डालता है कि हम कैसे अपने मित्रों का चयन करते हैं और मित्रता कैसे अभिरुचियों और विचारों के के व्यापक संचार में भूमिका निभाती है ...कई वर्षों तक चलने वाला यह अध्ययन अंतर्जाल पर हमारे सामाजिक चयन के व्यवहार और समवयी सम्बन्धों को भी विश्लेषित करता है .

मानव जीवन में आपसी सम्बन्ध सामाजिक संरचना के  मूलभूत  आधार हैं .अतएव कौन किसे पसंद करता है यह अध्ययन  हमें मानवीय व्यवहार के कई पहलुओं जैसे सामजिक विलगाव ,असमानताओं ,सहमतियाँ -असहमतियां ,आपसी सहयोग ,अवसरों/.कैरियर  की उपलब्धता आदि पर एक स्पष्ट दिशानिर्देश  दे सकता है .मगर क्या अंतर्जाल पर विभिन्न संस्कृतियों ,देश काल परिस्थितियों,अभिरुचियों या पुस्तकों, सिनेमा  आदि की अलग अलग पसंद वाले लोगों पर ऐसा अध्ययन सचमुच कोई निर्णायक परिणाम दे सकेगा? विद्वानों में मतभेद भी है . फेसबुक पर प्रायः  लोग अपनी अभिरुचियों ,पसंदगी को हायिलायिट करते रहते हैं -ऐसे में क्या नए लोग उनकी पसंद के मुरीद हो जाते हैं या फिर समय के साथ उनके साथ ढल जाते हैं -इस अध्ययन में इन बिन्दुओं को भी लिया गया था . 

यह अध्ययन मुख्यतः  कालेज छात्रों पर किया गया और यह पाया गया कि समान संगीत और फिल्म  की अभिरुचि वास्तव में ज्यादा लोगों को आपस में जोड़ती है बनिस्बत पुस्तक प्रेमियों के ....यह नहीं होता कि मित्र बनने के बाद आप या आपके मित्र की आपस की रुचियाँ भी समान हो जायं -यह भले ही हो कि पहले की समान अभिरुचियाँ मित्रता की सोपान बनें .इस नए अध्ययन ने मानव व्यवहार के अब तक कई अस्पर्शित पहलुओं को उजागर किया है .

Friday, 11 November 2011

डॉ.खुराना के अवसान ने एक बार फिर इन मुद्दों को प्रासंगिक बना दिया है ....

विगत ९ नवम्बर(२०११)  को भारतीय मूल के वैज्ञानिक और नोबेल पुरस्कार विजेता हरगोबिन्द खुराना की मृत्यु हो गयी ..उन्हें १९६८ में नाभकीय अम्लों के  प्रोटीन संश्लेषण की प्रक्रिया के रह्स्यावरण पर नोबेल से सम्मानित किया गया था ....वे भारत से एक फेलोशिप पर इंग्लैण्ड के लीवरपूल विश्वविद्यालय १९४५ में गए और वहां से पी एच डी की उपाधि प्राप्त की और भारत लौट आये ..यहाँ उन्हें उपेक्षा ही उपेक्षा मिली ...हताश और बेरोजगार वे वापस इंग्लैण्ड फिर कनाडा और अततः अमेरिका में विस्कांसिन विश्वविद्यालय में एन्जायिम पर शोध रत हुए ...डॉ. खोराना अविभाजित भारत के मुल्तान के रायपुर(पंजाब) कस्बे में 9 जनवरी 1922 को जन्मे थे ...पिता पटवारी थे जिन्होंने बच्चों को शिक्षा देने को अपने जीवन की सर्वोच्च प्राथमिकता मानी थी .....१९७६ में खोराना एक बार तब फिर सुर्ख़ियों  में आये जब  'मनुष्य द्वारा निर्मित/संश्लेषित  पहले जीन' का श्रेय उन्हें मिला ....आज की जैव प्रौद्योगिकी डॉ. खुराना के शोध की बहुत ऋणी है और क्रेग वेंटर द्वारा  प्रयोगशाला में जीवन के निर्माण की तो एक तरह से बुनियाद डॉ .खोराना ने ही रख दी थी ......
डॉ हरगोबिन्द खोराना(९ जनवरी १९२२-९ नवम्बर २०११)  

आज क्षोभ इस बात का है कि डॉ खोराना को अपने देश में जिस तरह का सम्मान और तवज्जो मिलना चाहिए था वह उन्हें नहीं मिला और आज उनके दिवंगत होने से वे सारे सवाल जिनके कारण आज भी वैज्ञानिक शोधों में भारत की हालत दयनीय बनी हुयी है प्रासंगिक हो उठते हैं ...डॉ .खोराना को जब नोबेल मिलने की घोषणा हुयी थी तब एकबारगी ब्रेन ड्रेन-प्रतिभा पलायन का मुद्दा जोर शोर से उठा था ....मगर ऐसी ही प्रतिभाएं अपने देश में  उपेक्षा का दंश सहती रहती हैं, उनकी कुशाग्रता में जंग लगती जाती है -ब्रेन रस्टिंग से तो फिर भी ब्रेन ड्रेन ही अच्छा है जिससे दूसरे देश में ही सही मगर वहां सफलीभूत हुए शोध का फायदा पूरी मानवता को तो मिल जाता है ....


आज भी भारतीय परिदृश्य में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है ..प्रतिभाओं की घोर उपेक्षा आज भी है ..मौलिक सोच और कल्पनाशीलता को पूछने वाला कोई नहीं है ....शोध संस्थानों और विश्वविद्यालयों के मुखिया नए शोध छात्रों की खुद की  मौलिक प्रतिभा को बढ़ने देने के अवसर के बजाय अपने सोच और कार्यों को उनपर लादते जाते हैं..फंडिंग संस्थाएं बस घिसी पिटे और/ या तो  पश्चिम के अन्धानुकरण से उपजे विषयों पर ही शोध कराने की सहमति और बजट देती हैं ..वहां भी यही वातावरण रहता है कि आखिर रिस्क कौन ले ..देश की ब्यूरोक्रेसी खुद अपनी  ही सर्वज्ञता पर मुग्ध रहती है और वैज्ञानिकों को दोयम या तीयम  दर्जे का नागरिक मानती है ..उनकी आत्ममुग्धता का आलम यहाँ तक जा पहुँचता है कि सम्बन्धित विषयों में खुद की अल्पज्ञता के बावजूद भी वे वैज्ञानिकों के शोध प्रकल्पों और तकनीकों तक की प्रक्रिया और औचित्य पर सवाल उठाने लग जाते हैं ......फलस्वरूप वैज्ञानिकों का हतोत्साहन ही नहीं उन्हें अपमान का घूँट भी पीना पड़ता है ..कमोबेस यही हालात भारत में वैज्ञानिकों के साथ हर जगहं  है और दमघोटूं माहौल में कुछ अति महत्वाकांक्षा के शिकार अयोग्य वैज्ञानिक जब राजनेताओं की चाकरी /चारण कर महत्वपूर्ण पदों को हथिया लेते हैं तो कोढ़ में खाज बन  जाते हैं ...वे उनकी छत्र छाया इसलिए भी पाना चाहते हैं ताकि ब्यूरोकरैट के कोप से बचे रहें ....यह एक ऐसा दुश्चक्र बना हुआ है जिसने भारत से 'नोबेल -कार्यों', का पत्ता साफ़ कर रखा है ....यह स्थिति कैसे दूर होगी यह विचारणीय है ...

डॉ खुराना के अवसान ने एक बार फिर इन मुद्दों को प्रासंगिक बना दिया है ....