Monday, 9 March 2009

पुरूष नितम्ब पर्यवेक्षण -२ (होली विशेष )

पुरूष नितम्ब के कुछ पहलुओं को आपने पिछली पोस्ट में देखा! होली विशेष पर कुछ ये भंगिमा भी देखिये !
विनयी भाव से आगे की ओर पूरा झुक कर नितम्बों का प्रदर्शन एक तुष्टिकरण (अपीजमेंट ) की भाव भंगिमा है .यह मनुष्य में दूसरे कापियों और बंदरों से ही विकसित होकर आयी है .कपि बानरों में नितम्ब को इस तरह से प्रस्तुत करने का मतलब होता है " लो देखो मैंने तुम्हारे सामने ख़ुद को एक निर्विरोधी निष्क्रिय मादा की भूमिका में समर्पित कर दिया हूँ अब मुझ पर अपनी प्रभुता जतानी हो तो दुहाई है आक्रमण न करो बल्कि रति क्रिया का विकल्प दे रहा हूँ इसे स्वीकार कर लो !" (यह कपि -बन्दर व्यवहार नर और मादा में कामन है ) इस तरह की देह मुद्रा अपना लेने पर प्रायः आक्रामक बन्दर नितम्ब प्रदर्शी बन्दर को अभयदान दे देता है या कभी कभार महज दिखावे भर के लिए उस पर आरूढ़ हो रति कर्म सा कुछ अनुष्ठान भर कर देता है !

अब इस कपि व्यवहार के मानवीय निहितार्थों पर शोध अनुसन्धान व्यव्हारविद कर रहे हैं -समलैंगिकता के संदर्भ में दबंग पुरूष के साहचर्य से जुड़े इस असमान्य व्यवहार पर तो विवादित विचार हैं मगर कई जगहों पर नितम्बो पर बेंत बरसाने का प्रयास कहीं उस कपि व्यवहार की ही प्रतीति तो नही कराता ? !
अन्यथा सामान्य सामजिक रहन सहन में नितम्ब कोई घनिष्ठ संबंधी ही छू सकता है .प्रेमी- प्रेमिका ,पति -पत्नी और हाँ वात्सल्य भाव से माँ बाप भी अपने बच्चों के नितम्ब पर दुलार की थपकी देते हैं .माँ नन्हे बच्चे को नितम्ब पर हौले हौले थपकी देकर सुलाती है !
मगर जरा पश्चिमी संस्कृति जिसका प्रभाव भारत में अब है की एक बानगी देखिये जिसमें कई उम्रदार सगे संबंधी या फैमिली फ्रेंड भी किशोरियों के नितम्बों पर थपकियाँ देकर प्रत्यक्षतः तो वात्सल्य भाव का प्रदर्शन करते हैं मगर अपरोक्ष रूप में वे अपनी हल्की कामुक इच्छा की ही तृप्ति कर रहे होते हैं .क्षद्म वात्सल्य की आड़ लेकर ! यह एक चिंतित करने वाला व्यवहार है ! पर यह वहीं ज्यादा प्रचलन में है जहाँ चाल चलन की ज्यादा उन्मुक्तता और आधुनिक परिवेश है !
होली का थोड़ा सात्विक लाभ लेकर मैं पुरुषांग विशेष की चर्चा भी निपटा लेना चाहता था पर अपरिहार्य कारणों से लगता है यह अब सम्भव नही हो पायेगा -चर्चा तो होली पर ही तैयार हो जायेगी हो सकता है पोस्ट बाद में हो सके !
आप सभी को होली की रंगारंग शुभकामनाएं !

Friday, 6 March 2009

पुरूष नितम्ब -एक पर्यवेक्षण ! (होली विशेष )

क्या पुरूष नितम्ब भी आकर्षण के केन्द्र हैं ?चित्र सौजन्य -Enlighter
नारी नितम्ब वर्णन पर कुछ काबिल दोस्तों की भृकुटियाँ तन गयीं थीं -कुछ ने चुनौती भी दे डाली थी कि मैं उसी तर्ज पर पुरूष पर्यवेक्षण करके दिखा दूँ तो वे जानें ! तो जानी ये लो हाजिर है पुरूष पर्यवेक्षण की यह अगली कड़ी -नितम्ब निरीक्षण ! पर एक बात पहले ही कह देता हूँ -मैं हूँ तो सार्वजनिक शिष्टाचार और जीवन मूल्यों का धुर समर्थक(निजी जीवन की बात बिल्कुलै अलग है ) पर ये होली कहीं कहीं हावी हो जाय तो मुआफ कर दीजियेगा ! मैं यह और आगे के दो ढाई अंग होली को भेंट कर रहा हूँ !

पूरी दुनिया में पाये जाने वाले १९३ नर वानर प्रजातियों में से केवल मनुष्य ही उभरे हुए मांसल गुम्बदाकार नितम्बों का हकदार है .वह अपनी विकास यात्रा में जैसे ही उठ खडा हो दो पैरों पर चलना लग गया और शेष कपि भाई भतीजों से अलग एक विशिष्ट जीवन शैली का वाहक बन बैठा तो उसके पैरों पर अधिक भार के आने तथा कुछ सेक्स जनित कारणों से नितम्बों की ग्लूटियल पेशी पुष्ट होने लगी ! फैलाव पाने लगीं !

नितम्बों को हंसी ठिठोली का फ़ोकस माना जाता है .कितने ही गंदे चुटकुले मनुष्य के इस अंग को समर्पित हैं -लातों के भूत बातों से नहीं मानते वाली हिंसा में ये बिचारे नितम्ब ही प्रमुख रूप से पाद प्रहार झेलते हैं ! यह आश्चर्य है कि गुप्तांग के इतने सामीप्य के बाद भी विशेष देखभाल की कौन कहें ये अक्सर चिकोटी या प्रहार की पीडा झेलते हैं .नितम्बों का सार्वजनिक प्रदर्शन कई देशों में अश्लील और कानून कलह का बायस बन बैठा है .यहाँ तक कि कुछ मामले सर्वोच्च न्यायालय तक जा पहुंचे हैं जहाँ क़ानून के जानकारों ने सार्वजनिक नितम्ब प्रदर्शन के औचत्य पर जोरदार बहस की है.स्विट्जरलैंड का तो एक मुकदमा नजीर बन बैठा जब सर्वोच्च न्यायालय ने नितम्ब प्रदर्शन को आपत्तिजनक तो माना पर अश्लील नहीं . अश्लील इसलिए नहीं कि यह मनुष्य का कोई प्रजनन अंग थोड़े ही है ।

नितम्ब नारी के मामले में तो यौनाकर्षण की भूमिका में हैं हीं -एक सर्वेक्षण में यह भी उजागर हुआ कि यह अंग नारियों की भी पसंद है .रायशुमारी में जाहिर हुआ कि नारी की रुझान छोटे मगर कसे (मस्कुलर ) हुए नितम्बों में होती है -व्यवहारविदों द्वारा इस अभिरुचि के विश्लेषण पर पाया गया कि ऐसा इसलिए है कि छोटा पुरूष नितम्ब नारी के सहज ही भारी नितम्बों से बिल्कुल विपरीत होकर पुरुषत्व की भूमिका को इंगित करता है .छोटे कसे हुए गठे नितम्ब इस तरह पौरुष शक्ति का भान कराते हैं ! और शायद ये यौन क्रिया में भी अतिशय सक्रियता ( athletic पेल्विक thrusting ) के प्रति आश्वस्त करते हैं !

मानव अंगों में नितम्बों का प्रमुख होना मानवीयता का द्योतक है इसलिए भूतों, पिशाचों ,जिन और राक्षसों के चित्रांकन में नितम्बों को एक तरह से गायब ही कर दिया गया है .और यह भी मान्यता बन बैठी कि पुष्ट मानव नितम्ब का दर्शन मात्र ही बुरी आत्माओं को भयग्रस्त कर देती हैं -इसलिए पुराने भित्तिचित्रों ,शिला -शिल्पांकनों में मानव नितम्बों को उभार कर दिखाया गया है ताकि बुरी नजरों से मानवता बची रहे ! जर्मनी में आज भी ग्राम्य इलाकों में लोग बाग भयंकर तूफानों के समय मुख्यद्वार पर तूफ़ान की दिशा में नितम्ब अनावृत हो खडे हो जाते हैं ।

भारत के कई मंदिरों की बाह्य भित्ति नितम्बों के विविध दृश्यावलियों से भरे हैं -अब इसके पीछे कामोत्तेजना और बुरी नजरों से रक्षा की भावना में से कौन प्रमुख है कौन गौण यह चिंतन और मनन का विषय हो सकता है -इस बार की होली पर यह विषय बौद्धिक विमर्श के लिए चुना जा सकता है ! और विमर्श तो चलते ही रहते हैं !
जारी .....

Thursday, 5 March 2009

हवाई मौत जो सर्र से गुजर गयी !

यह तो इटोकावा है मगर जो गुजरी वह भी ऐसी ही मगर छोटी मौत थी ! सौजन्य :बी बी सी
पिछले सोमवार को जब हम ब्लागिंग स्लागिंग और जिन्दगी के दीगर लफड़ों में मुब्तिला थे तो एक मौत हवाई रास्ते सर्र से मानवता के सिर पर से गुजर गयी ! मौत क्या पूरी कयामत कहिये ! एक क्षुद्र ग्रहिका (एस्टरायड) आसमान में काफी नीचे तक ,करीब ७२००० किमी तक बिना नुक्सान पहुंचाए गुज़री ! इसका नाम २००९ ,डी डी ४५ था और यह ३०मीटर की परिधि की थी ! बताता चलूँ की यह दूरी चन्द्रमा की दूरी से पाँच गुना कम थी .यह क्षुद्र ग्रह थोडा और नीचे आ गया होता तो यहाँ साईबेरिया के तुंगुस्का क्षेत्र में सन १९०८ के दौरान हजारों परमाणु बमों को भी मात वाले विनाश सा मंजर दिखला जाता जो एक ऐसे ही क्षुद्र ग्रह के आ गिरने से हुआ था !

दरअसल मंगल और बृहस्पति ग्रहों के बीच टूटे फूटे अनेक सौर्ग्रहीय अवशेष ,धूमकेतुओं के टुकड़े आदि एक पट्टी में सूरज की परिक्रमा कर रहे हैं जहा से कभी कभी कभार ये पथभ्रष्ट होकर धरती का रूख भी कर लेते हैं ! धरती पर आसमान से दबे पाँव आने वाली इन मौतों का खतरा हमेशा मंडराता रहता है ।

अब नासा के जेट प्रोपोल्सन प्रयोगशाला से जारी ऐसे खतरनाक घुमंतू मौतों की सूची पर एक नजर डालें तो आज ही एक और क्षुद्र ग्रह धरती की ओर लपक रहा है ! पर इससे भी खतरे की कोई गुन्जायिश नही है -मगर ऐसे ही रहा तो बकरे की माँ कब तक खैर मनाएंगी ...एक दिन आसमानी रास्ते से दबे पाँव आयी मौत कहीं ....? कौन जाने ? मगर फिकर नाट वैज्ञानिक इन नटखट सौर उद्दंदों पर कड़ी और सतर्क नजर रखे हुए हैं जरूरत पडी तो जैसे को तैसा की रणनीति के तहत वे इन्हे परमाणु बमों से उड़ा देंगें या रास्ता बदल देने पर मजबूर कर देंगें !

सारी दुनिया की रक्षा का भार वैज्ञानिक उठाते आरहे हैं पर कितने अफ़सोस की बात है कि समाज उन्हें वह इज्जत नही देता ,उन्हें वैसा सर आंखों पर नहीं उठाता जितना वह नेताओं पर अभिनेताओं पर मर मिटने तक उतारू रहता है !

सृजन नहीं बस विकास के हैं प्रमाण ! ( डार्विन द्विशती )

धरती पर अलौकिक सृजन और इसके पीछे किसी "इंटेलिजेंट डिजाइन " की भूमिका की सोच को जहाँ तर्कों के सहारे सिद्ध करने की चेष्ठाये हो रही हैं ,जीवों के विकास के कई पुख्ता प्रमाण मौजूद हैं ! कुछ को हम सिलसिलेवार आपके सामने लायेंगें ! बस थोड़े धीरज के साथ यहाँ आते रहिये और विकास की इस महागाथा में मेरे साथ बने रहिए !




यह है आर्कियोप्टरिक्स का फासिल


जीवाश्मिकी एक ऐसा ही अध्ययन का विषय है जो जमीन के नीचे दबे "गडे मुर्दों " की ही तर्ज पर अनेक जीव जंतुओं के अतीत का उत्खनन करता है ! मतलब जमीन में दफन सचाई जो विकास वाद के सिद्धांत को पुष्ट करती है ! इस धरा पर अब तक असंख्य जीव जंतु पादप जीवन व्यतीत कर काल कवलित हो उठे हैं ! उनमें से अपेक्षाकृत थोड़े ऐसे भी हैं कि धरती के गर्भ में मृत होकर भी अपने रूपाकार सरंक्षित किए हुए हैं -वे एक तरह से पत्थर सरीखे बन गए हैं जिन्हें जीवाश्म कहते हैं -यानी फासिल !

जीवाश्म दरअसल जैवीय अतीत की के वे स्मारक हैं जो विकास की गुत्थी सुलझाने में बडे मददगार हुए हैं ! इनमें परागकण ,स्पोर ,और सूक्ष्म जीवों की बहुतायत हैं जिनमें से अधिकाँश तो कई समुद्रों की पेंदी में मिले हैं ! कुदरत द्बारा इनको संरक्षित करने का काम बखूबी किया गया है जैसे वह ख़ुद विकासवाद के पक्ष में प्रमाणों की ओर इंगित कर रही हो ! कुदरत का ही एक तरीका ही जिसे पेट्रीफिकेशन या पत्थरीकरण कहते हैं जिसमें सम्बन्धित जीव समय के साथ पत्थर जैसी रचना में तब्दील होता जाता है ! ऐसे ही जीवाश्मों का एक बड़ा जखीरा एरिजोना प्रांत के बढ़ ग्रस्त इलाकों से मिला था ! वहाँ ज्वालामुखीय लावे में भी जीवों का रूप संरक्षण होता रहा है .

एक सबसे हैरतअंगेज जीवाश्म बावरिया क्षेत्र से मिला था जो रेंगने वाले जीवों यानि सरीसृपों और चिडियों के बीच की विकासावस्था का था -मुंह में दांत था , डैने विशाल थे !यह उडनेवाला डायनासोर सा लगता था . इसका नामकरण हुआ आर्कियोप्तेरिक्स !



कुछ ऐसा ही दीखता था आर्कियोप्टरिक्स



इसी
तरह कनेक्टीकट घाटी में डायिनोसर के जीवाश्म पाये गये जिन्हें पहले तो
विशालकाय पक्षी समझ लिया गया था क्योंकि उनमे भी चिडियों के पैरों सदृश तीन उंगलियाँ ही थीं ! भारत में गुजरात और मध्यप्रदेश में भी डाईनोसोर के अनेक जीवाश्म पाये गये हैं !


यह है घोडे के विकास के क्रमिक चरण

घोडे और हांथीं के तो विकास के सभी चरणों के सिलसिलेवार जीवाश्म मिल चुके हैं जिन्हें देखते ही विकासवाद की कहानी मानों आंखों के सामने साकार हो उठती है !



और यह हाथी के पुरखे !

जारी ....

Sunday, 1 March 2009

चन्द्र -शुक्र युति का वह नजारा ! यह एस्ट्रोफोटो तो देखिये !!

पिछली २७ फरवरी को आसमान में सायंकाल चंद्रमा और शुक्र के करीब दिखने के इस दृश्य ने व्योम विहारियों को काफी रुझाया .गत्यात्मक ज्योतिष ने भी इसी अपने एजेंडे के तहत हायिलाईट करने का अवसर नहीं गवाया और इस सामान्य सी खगोलीय घटना को इस लहजे से प्रस्तुत किया कि मैंने उस दृश्य को न देखना ही मुनासिब समझा -दरअसल मैं फलित ज्योतिष को एक बकवास से कमतर नहीं मानता और अंधविश्वासों की श्रेणी में इसे सबसे ऊपर मानता हूँ ,और भोली भाली जनता को गुमराह कर धनार्जन का एक अधम,अनैतिक जरिया मानता हूँ ! उद्विग्न मन से मैंने उस पोस्ट पर यूं टिप्पणी दी -
"यह एक सामान्य खगोलीय घटना है पर उतना प्रामिनेंट दिखेगा भी नही जितना उभार कर आप उसे दिखा /प्रस्तुत कर रही हैं ! मैं एक सरकारी कर्मचारी हूँ और मुझे पता है कि मेरे सुख दुःख का इससे कोई रिश्ता नहीं है ! मैं आज्माऊंगा भी नहीं !
-मुझे आपके दिल दुखाने का अफ़सोस होता है -सारी मैम ,मगर मजबूर हूँ!"

मगर इस फैसले से मैं एक सुन्दरतम खगोलीय घटना के अवलोकन से चूक गया ! काश मैं गत्यात्मक जोतिष के फलितार्थों से उतना अलेर्जिक न हुआ होता तो इस दृश्य को अवश्य निहार कर धन्य होता !

मेरी बुकमार्क पसंदों में से एक बैड अस्ट्रोनोमी ने उस आकाशीय दृश्य से अभिभूत हो कर एक पूरी पोस्ट ही अपने ब्लॉग पर डाली -आप अवश्य जायं,पढ़ें भी और कुछ अद्भुत दृश्यावली -एस्ट्रो फोटोज का दीदार करें !

Friday, 27 February 2009

जारी है कूल्हा पर्यवेक्षण !

एकीम्बो मुद्रा :सौजन्य ,वर्ल्ड आफ स्टाक
आईये गत कूल्हांक से आगे बढ़ें ! अगर रति क्रीडाओं में कूल्हे की भूमिका की चर्चा यहाँ सार्वजनिक मर्यादा के लिहाज से न भी किया जाय ( वैसे मेरे परम मित्र चाहते हैं कि मैं यहाँ कोई भेद भाव न रखूँ -उनसे क्षमा याचना सहित ! उनकी क्लास पृथक से !) तो भी हम यहाँ कुछ कूल्हा गतिविधियों की चर्चा अवश्य करना चाहेंगे !
एक सर्वकालिक ,सार्वजनीन कूल्हा मुद्रा है जिसे अंगरेजी में एकीम्बो मुद्रा (akimbo posture ) कहते हैं । पुरूष का अपने दोनों हाथ कूल्हे पर टिका कर खडा होने का जिसमें कूहनियां थोडा बाहर की ओर निकलती हुयी डबल हैंडिल वाली चाय केतली की मुद्रा बनाती हैं ! यह एक दबंग भाव भंगिमा है .मगर असामाजिक सी ! यह दोनों हाथों को आगे बढाकर आलिंगनके आह्वान के ठीक विपरीत है .अब भला कोई कूल्हों पर हाथों को टिका कर आलिंगनबद्ध कैसे हो सकता है ! यह मुद्रा समूची दुनिया में जाने अनजाने प्रायः पुरूष अपनाते देखे जाते हैं जो देखने वाले पर विकर्षण का भाव डालता है !
फुटबाल के खेल में गोल दागने से चूक गये किसी खिलाड़ी को देखिये वह यही मुद्रा अपनाए दीखता है ! मानों कह रहा हो -दूर हटो मैं बहुत गुस्से में हूँ ! इस मुद्रा के कई और भाष्य हैं -अगर आप किसी सोशल कार्यक्रम में शिरकत कर रहे हैं औरकिसी भी बाजू के लोगों -लुगाईयों को पसंद नहीं कर रहे तो उस साईड का ही हाथ -अर्ध एकीम्बों मुद्रा में उस साईड के कूल्हे पर रख दें -बस बात बन जायेगी ! उस साईड के लोग इशारा समझ जायेंगे कि आप उन्हें पसंद नही कर रहे ( इन दिनों दनादन ब्लॉगर मीट के प्रतिभागी खास गौर करें कृपया ) -यह मुद्रा पूरे विश्व में इतनी देखी परखी गयी है कि मैं आप का तो नही जानता मगर अवसर आने पर मैं इसका इस्तेमाल जरूर करना चाहूंगा ! यह सामाजिक भीड़ भाड़ के अवसरों पर बिन कहे आपके मूड का प्रगटन करने का तरीका है .दोनों हाथ कूल्हे पर टिकें हैं तो मतलब साफ़ है दायें बाएं बाजू का कोई भी आपके पास न फटके !
और हाँ अगर किसी बाजू की जेन्ट्री /भद्रजनों पर मन आ ही जाय तो उधर के कूल्हे पर टिका हाथ धीरे से नीचे खिसका दें बस काम बन जायेगा -आप उधर के लोगों को निकट आने का संकेत कर चुकेंगें ! कई बास नुमा लोग ऐसी मुद्राएँ जाने अनजाने अंगीकार करते देखे गए हैं .और अर्ध एकीम्बों मुद्राए तो शादी विवाह ,दीगर सामजिक अवसरों ,पार्टियों अदि में देखे जा सकते हैं .हमारे यहाँ इस मुद्रा का कोई नामकरण नही हुआ है क्योकि यह एक अप्रत्यक्ष भाव संचार वली मुद्रा है जबकि प्रत्यक्ष भाव संचार की मुद्राओं जैसे जैसे नमस्कार .तस्बेदानियाँ आदि के नामकरण कई भाषाओं में मिलते हैं !
ऐसे ही एक कूल्हा व्यवहार प्रेमीजनों में खासा लोकप्रिय है -एक दूसरे के कमर में हाथ डाले और कूल्हे पर पंजों को टिकाये हुए चहलकदमी करने का ! यह आगे चलते रहने और फिर भी आलिंगनबद्ध हो जाने की बलवती इच्छा के बीच की एक समझौता वाली कोल्हू मुद्रा है .वैसे चहलकदमी करते रहते और तत्क्षण आलिंगनबद्ध हो जाने के मनोभाव विपरीतार्थी होते हैं -तब कमर को बाहुबद्ध करके चलते रहना भी एक समझौता परक भंगिमा बन जाती है -यद्यपि इस मुद्रा में भी आगे चलते रहना कम दिक्कत तलब नही होता -पर गहन प्रेम आगा पीछा कहाँ देखता है ? मगर आस पास आजू बाजू के लोग ऐसे जोडों को तुरत पहचान जाते हैं जो इससे बेखबर अर्ध आलिंगन में मस्त खरामा खरामा आगे बढ़ते रहते हैं ! उनके इस चाल चलन से आस पास के लोग उनकी घनिष्ठता को ताड़ जाते हैं !
कमर को बाहुबद्ध करने की ललक पुरुषों में ज्यादा देखी गयी है .एक अध्ययन में पाया गया कि ७७ फीसदी पुरुषों ने अपने महिला साथी के कमर को हाथ से घेरने में सक्रिय भूमिका दिखाई जबकि उनकी महिला मित्र ने इसे स्वीकार तो किया पर इस दौरान उनकी भूमिका पैसिव ही रही -इसी तरह मात्र १४ फीसदी महिलाओं ने कमर बाहु सम्बन्ध में ख़ुद पहल की और ९ फीसदी नारियों ने एक दूसरे को कमर बाहु बद्ध किया जबकि पुरूष पुरूष कमर बाहु बद्ध सम्बन्ध शून्य पाया गया ! ( समलिंगियों को छोड़ कर ) !
कुल/कूल्हा मिलाकर कमर और कूल्हा वस्तुतः नारी की ही थाती हैं और पुरूष पर्यवेक्षण में भी यही पहलू ही उभरता है !

Thursday, 26 February 2009

...और अब कूल्हा पर्यवेक्षण !

पुरूष पर्यवेक्षण के कूल्हे -पडाव पर आपका स्वागत है .अब कूल्हे और कोल्हू के शब्द और अर्थ साम्य पर कोई भाषाविद ही आधिकारिक टिप्पणी कर सकता है मगर यह बता दूँ कि अंगरेजी का हिप शब्द 'टू हॉप ' (क्रिया ) से बना है .मतलब फुदकना ! पर ये फुदकना किस अर्थ में भला ? आप सोचिये हम शुरू करते हैं कूल्हा पर्यवेक्षण !

दरअसल कूल्हा पुरूष के मामलात में कोई ख़ास मायने नही रखता -यह जैसे नारी के एकाधिकार में ही है ! नारी की श्रोणि मेखला (पेल्विक गर्डिल ) का भारीपॅन ही कूल्हे के आकार प्रकार को रूपायित करता है .यह पुरूष से ज्यादा चौडाई और गोलाई लिए है और इस मामले में लैंगिक अन्तर को तरह तरह से बढ़ाने चढाने के यत्न किए जाते रहे हैं !

कूल्हे मटकाने में जहाँ नारियों को महारत हासिल है कुछ संदर्भों में यह काम मन -बेमन से पुरुषों की झोली में आ टपकता है -जैसे महिलाओं की नक़ल करते पुरूष हास्य कलाकार और समलिंगी पुरूष की अदाएं ! मगर पुरूष कलाकार कूल्हों को मटकाने में प्रायः हिचकते से हैं क्योंकि ज़रा भी लापरवाही हुई तो पुरूष की कूल्हे मटकाने की अदा भोंडे /अश्लील से मैथुन क्रिया की प्रतीति करा सकता है ! मजे की बात यह है कि नारी कैसे और कितना भी कूल्हे मटकाए वह सहज श्रृंगारिकता की ही परिधि में ही रहता है ! ऐसा विद्वानों का विचार है !


जब हिप की बात उठी है तो भला हिप्पियों की याद क्यों नही आयेगी ? पर मजे की बात तो यह है कि हिप्पियों का हिप से कोई लेना देना नही है ! दरअसल विगत सदी के छठे दशक का हिप्पी आन्दोलन एक दूसरे शब्द हिप्स्टर (Hipster ) का ऋणी है -हिप्स्टर १९५० के दशक के एक नृत्य सगीत समूह 'जाज ' के किसी सदस्य के लिए प्रयुक्त होता था और वहाँ भी यह शब्द एक तत्कालीन मिलटरी गतिविधि से लिया गया था -मिलटरी के वे समूह जो बहुत अनुशासित तरीके से कदमताल करते थे "हिप "कहलाते थे .अब कहाँ मिलटरी के अनुशासित हिप और कहाँ लखैरे हिप्पी ! मिलटरी से उदगम पाने वाला एक शब्द कैसे अपना मूलार्थ खो कर एक सर्वथा विपरीत अर्थ ग्रहण कर बैठा एक अलग ही कहानी है कुछ कुछ हमारे यहाँ बुद्ध से बुद्धू बनने जैसा ही ! मगर यहाँ तो बात हम कूल्हे की कर रहे थे ......
जारी .......