Thursday, 8 January 2009

पुरूष पर्यवेक्षण -कांख का कमाल,सुगंध का धमाल !

काँखों के कुदरती सुगंध के कारखाने के बावजूद क्रत्रिम सुगंध का फलता फूलता व्यवसाय
व्यवहार विदों के सामने मुश्किल सवाल था कि जब कुदरती तौर पर मनुष्य के पास ख़ुद मोहक गंध का खजाना उसकी कांख - बगलों(आर्म पिट्स )मे ही छुपा है तो फिर तेल फुलेल , इत्र पाऊडर का इतना बड़ा वैश्विक व्यापार कैसे वजूद में आता गया .और यह भी कि मनुष्य फिर क्यों क्यों इस कुदरती सगन्ध स्रोत को प्रायः नेस्तनाबूद करने के उपक्रमों में लगा रहता है -मसलन बगलों की नियमित साफसफाई ,धुलाई, बाहरी गंध छिड़काई और देह -शुचिता पसंद महिलाओं द्वारा लोमनाशन (डेपिलेशन ) तक भी ! दरसल इसका उत्तर मनुष्य के पहनने ओढ़ने की आदतों में छुपा है .
विडम्बना यह है कि सभ्य मनुष्य का शरीर लक दक कपडों से ढंका छुपा रहता है जिससे हमारी त्वचा लाखों करोड़ों दुर्गन्ध उत्पादी जीवाणुओं की प्रजनन स्थली बनी रहती हैं जिसके चलते हमारी जैवीय मोहक गंध भी तीव्र से तीव्रतर होती बदबूदार गंध में तब्दील हो जाती है .यही कारण है कि बगलों की सफाई और उसे सुगन्धित रखने या उसके दुर्गंधनाशन के साजोसामान का व्यवसाय धड़ल्ले से चल रहा है .व्यवहार शास्त्री कहते हैं कि यह साफ सफाई जिन लोगों में एक कम्पल्सिव आब्सेसन की सीमा तक जा पहुँचता है वह अपने कुदरती गंध स्रोतों को मिटा कर ख़ुद अनजाने में अपना ही अहित कर रहे होते हैं -डेज्मांड मोरिस कीसिफारिश तो यह है कि साबुन भी रोजाना न लगाकर दो तीन दिन के अन्तराल से लगाया जाय तो कुदरती गंध फेरोमोन के माकूल असर को बिना उसके दुर्गन्ध में बदले बरकरार रखा जा सकता है .प्रेमी जन इस नुस्खे पर अमल कर सकते हैं ( भक्त जन कृपया दूर दूर रहें , रोज रोज नहायें और हो सके तो डीओदेरेंट और यूं डी कोलोन से नहायें -उन्हें अश्थि चर्म मय देह का मोह तो रहा नहीं ?)
शोधों से पता चलता है कि नर और नारी के फेरोमोन भी लैंगिक विभिन्नता लिए होते हैं और विपरीत लिंग को सहज ही किंतु अप्रत्यक्ष रूप में आकर्षित करते रहते हैं .यह अवचेतन में काम करती रहती है और आप अनजाने ही किसी के वशीभूत होते रहते हैं .बिना मूल कारण जाने ! मगर एक मार्के की बात या मुसीबत यह है कि पूरबियों (ओरिएनटलस् ) में ये गंध ग्रंथियां बगलों में कमतर होती गयी हैं ज्यादातर कोरियाई लोगों में तो ये एक तरह से नदारद ही हैं .जापानियों में भी ये काफी कम हैं -भारतीयों में ? अफ़सोस कोई शोध सूचना नहीं !! पर पूरबियों में इनकी कमीं के जैवीय निहितार्थ क्या हैं कहना मुश्किल है !
और अंत में कांख (बगल ) की एक और महत्ता को बताने के लिए आपको उस पुराकथा की याद दिला दें जब अंगद रावण संवाद में अंगद रावण से यही पूंछता है ना कि क्या तुम वही रावण तो नही जिसे मेरे पिता श्री बालि अपनी कांख में छः माह दबोचे रहे ?

Monday, 5 January 2009

पुरूष पर्यवेक्षण -बलिष्ठ बाहें और बला की बगलें !

बला की बगल या बगल की बला ?
सौजन्य -विकीमेडिया
.......तो पर्यवेक्षण चर्चा बलिष्ठ बाँहों की चल रही थी जो आज भी थोडा आगे बढेगी और बला की बगलों (काँखों -आर्मपिट ) तक जा पहुंचेगी .अपने देखा की किस तरह विकास के दौरान पुरूष की बाहें नारी की तुलना में अधिक बलिष्ठ और शक्तिशाली होती गयीं जो उनमें कार्य विभाजनों का परिणाम थीं .पुरूष शिकार गतिविधियों में लगा रहता था जहाँ अस्त्र शस्त्र संधान के चलते उसकी बाहें उत्तरोत्तर बलिष्ठ होती गईं .आज भी पुरूष द्वारा भाला फ़ेंक प्रतिस्पर्धाओं का उच्चतम आंकडा ३१८ फीट तक जा पहुंचा है जबकि नारी प्रतिस्पर्धकों का उच्चतम रिकार्ड २३८ फीट रहा है .अन्य खेल स्पर्धाओं जिसमें हाथ की भूमिका गौण है परफार्मेंस का यह अन्तर जहाँ महज दस फीसदी ही है भाला फ़ेंक प्रतियोगिताओं में यह फासला ३३ प्रतिशत का है ।
इसी तरह नारी पुरूष की बाहों में एक अन्तर कुहनी का है -कुहनी के जोड़ से नारी अपनी बाहों को ज्यादा आगे पीछे कर सकती हैं जबकि पुरूष में यह लचीलापन नही है ।
बलिष्ठ बाँहों की चर्चा बिना बगलों के उल्लेख के अधूरी रहेंगी .आईये कुछ देखें समझें इन बला की बगलों को या फिर बगलों की बला को ! बगलें बोले तो कांख जो प्रायः अन्यान्य कारणों से शरीर का एक उपेक्षित किंतु प्रायः साफ़ सुथरी ,मच सेव्ड ,सुगंध उपचारित हिस्सा रही हैं इन्हे जीवशास्त्री अक्सिला(axilaa ) बोलते हैं जो एक अल्प रोयेंदार (hairy ) क्षेत्र हैं मगर जैवरासायनिक संदेश वहन में अग्रणी रोल है इनका .नए अध्ययनों में पाया गया है की नर नारी के सेक्स व्यवहार के कतिपय पहलुओं में इनकी बड़ी भूमिका है .
कहानी कुछ पुरानी है पर नतीजे नए हैं ।पहले कुछ पुरानी कहानी -हमारे आदि चौपाये पशु पूर्वजों के यौन संसर्गों में नर मादा की मुद्रा ऐसी थी कि उभय लिंगों की बगलें चेहरों से काफी दूर होती थीं -लेकिन विकास क्रम में आगे चल कर मनुष्य के दोपाया उर्ध्वाधर मुद्रा के अपनाते ही यौन संसर्ग भी पीछे के बजाय अमूमन आमने सामने से हो गया ,लिहाजा इन घनिष्ठ आत्मीय क्षणों में प्रणय रत जोडों के चेहरे भी आमने सामने हो गए .नतीजतन यौन रत संगियों की नाकों और उनके बगलों का फासला काफी कम हो गया उनमें निकटता आ गयी .अब विकास के दौरान मनुष्य -उभय पक्षों की बंगलों के रोएँ ऐसी ग्रंथियों से लैस होने लगीं जिनसे यौनोत्तेजक स्राव -गंध का निकलना शुरू हुआ जिन्हें अब फेरोमोंस ( सेक्सुअल अट्रेकटेंट ) के नाम से जाना जाता है .बगल के रोएँ से जुडी इन एपोक्रायिन ग्रंथियों से निकलने वाला स्राव स्वेद (पसीने ) स्रावों से अधिक तैलीय होता है .ये किशोरावस्था /तारुण्य /यौवनारंभ से ही स्रावित होने लगते हैं .बगल के रोएँ इनकी सुगंध को रोके -ट्रैप किए रहते हैं ।
अंग्रेजों और हमारे कुछ आदि कबीलाई संस्कृतियों में जोड़ा चुनने के लिए युवा जोडों के नृत्य अनुष्ठानों के आयोजन की परम्परा रही है .अंग्रेजों के एक ऐसी ही लोक नृत्य परम्परा में नवयुवक जिसे किसी ख़ास नवयौवना की चाह होती है के सामने नृत्य के दौरान ही सहसा अपने कांख में छुपाये गये रुमाल को लहराना होता है -प्रत्यक्षतः तो वह अपना श्रम दूर करने के लिए मुंह पर हवा देने का काम रूमाल से करता है पर निहितार्थ तो कुछ और होता है -प्रकारांतर से वह अपनी यौन गंध को ही नृत्य साथिन की ओर बिखेर रहा होता है और भावी संगी को फेरोमोन के घेरे में लेने को उद्यत होता है .यह एक पारम्परिक लोक नृत्य है मगर इसके दौरान वह वही काम अंजाम दे रहा होता है जिसमें आजके कई इतर फुलेल डिओडेरेंट उद्योग दिन रात् लगे हुए हैं और जो तरह तरह के अंडर आर्म डिओडेरेंट के उत्पादन में एक आदिम गंध को ही मुहैया कराने का दावा करते नहीं अघाते .हमारे यहाँ महाभारत के मूल में शांतनु और मत्स्य/योजन गंधा की कथा से कौन अपरिचित है ? (जारी )
(नव वर्ष संकल्प ) प्रत्याखान: (डिस्क्लेमर :यह श्रृंखला महज एक व्यवहार शास्त्रीय विवेचन है,इसका नर नारी समानता /असामनता मुद्दे से कोई प्रत्यक्ष परोक्ष सम्बन्ध नही है )

Thursday, 1 January 2009

पुरूष पर्यवेक्षण :बलिष्ठ बाहों का जलवा !

मुश्क और इश्क छुपाये नही छुपता :चित्र सौजन्य फ्लिकर
मनुष्य की विकास यात्रा में उसकी चौपाये पशु विरासत से मुक्ति और केवल दो पैरों पर खडा हो जाना एक बड़ी घटना थी. इसे अगले दोनों पावों की हाथों के रूप में मिली स्वच्छन्दता के जश्न के रूप में भी देखा समझा जाता है .अब मनुष्य के हाथ आखेटों /शिकार के दौरान पूरा सहयोग करने को स्वतंत्र हो चुके थे . हाथों के जरिये हथियार फेंकना ,मजबूत पकड़ के साथ कही चढ़ जाना ,किसी विरोधी को मारना पीटना और थपडियाना और यहाँ तक कि उँगलियों से बारीक काम करना मनुष्य की दिनचर्या बनती गयी -अब चूंकि इनमें से ज्यादातर काम पुरूष के जिम्मे था अतः उसकी बाहें विकासयात्रा के दौरान उत्तरोत्तर बलिष्ठ होती गयीं .
हाथ में कंधे से नीचे के ऊपरी हिस्से में अकेली ह्यूमर हड्डी और कुहनी के जोड़ से नीचे की दुकेली हड्डियों -अल्ना और रेडियस ने मनुष्य की दिनचर्या की अनेक उलझनों को संभाल लिया -बताता चलूँ कि कनिष्ठा (कानी ) उंगली की सिधाई में हमारी अल्ना हड्डी होती है तो अंगूठे की सिधाई में रेडियस ! और जो बाँहों की मुश्कें उभरती हैं ..अरे क्या कहा आपने ?आप नहीं जानते मुश्कों को (याद कीजिये वह कहावत -इश्क और मुश्क छुपाये नही छुपते ) हाँ तो वही मुश्कें ह्यूमर हड्डी यानी बाहों के ऊपरी हिस्सों में ही तो उभरती हैं ।और ढेर सारी मांसपेशियां भी हैं जो बाहों को गति देती हैं और तरह तरह के कामों में सहायता करती हैं -ब्रैकियेलिस ,कोरैसो ब्रैकियेलिस ,ट्रायिसेप , फ्लेक्सर ,इक्सेंटर ,प्रोनैटर ,सुयीटर आदि मांसपेशियां हाथों की तरह तरह की गतिविधियों को अंजाम देती रहती हैं -हाथों को आगे पीछे करना ,कलाईयों को घुमाना ,हथेली ऊपर नीचे करना अदि आदि ...नियमित रियाज से बाहों की मुश्कों को काफी उभारा जा सकता है जैसा कि पुरूष सौन्दर्य प्रतियोगिताओं में शरीक हो रहे मिस्टर बनारस से लेकर मिस्टर यूनिवर्स तक का यह प्रिय शगल है जो अपनी अपनी मुश्कें उभार कर अतिशय पौरुष का प्रदर्शन करते हैं .बली ,महाबली और खली बन जाते हैं .मगर कुछ सर्वेक्षणों से आश्चर्यजनक रूप से जो बात सामने आई है वह यह है कि ऐसे "खली " मर्दों की मर्दानगी ज्यादातर महिलाओं को फूटी आँख भी नही सुहाती -व्यवहार मनों- विज्ञानियों का मानना है कि ऐसा इसलिए होता है कि ऐसे पुरुषों की अपने देह यष्टि के प्रति अतिशय विमोह और आत्ममुग्धता के चलते नारियां अवचेतन रूप में उनसे विकर्षित होती जाती हैं .ऐसे आत्मरति इंसानों को अपनी अपनी सहचरी की कहां सुधि ? ऐसे आत्मविमोही नर नारीसौन्दर्य के प्रति सहज रुझान को भी त्याग ख़ुद के ही शरीर को आईने में देख देख आत्मरति की सीमा तक जा पहुँच आत्ममुग्ध होते रहते हैं -अब कोई रूपगर्विता इसे बर्दाश्त भी कैसे कर सकती है भला !-लिहाजा नारियां ऐसे मुश्क वालों से दूर दूर खिंचती जाती हैं .
यद्यपि पुरूष शरीर सौष्ठव की ये पराकाष्ठा नारी को हतोत्साहित करती है तथापि स्वस्थ और संतुलित रूपसे विकसित सुगठित बाहें एक तीव्र लैंगिक संकेत तो संप्रेषित करती ही हैं -कई जैविक लैंगिक विभेदों में बाहों की भी खास भूमिका है .पुरूष की उत्तरोत्तर बलिष्ठ होती बाहों की तुलना में नारी की बाहें अमूमन छोटी ,कमजोर और पतली हैं -इसके पार्श्व में एक लंबे वैकासिक अतीत की भूमिका रही है जिसमें सामाजिक कार्य विभाजनों मेंपुरुषों के जिम्मे नित्य प्रति शिकार करने के दौरान अस्त्र शस्त्र संधान अदि सम्मिलित थे !
(नव वर्ष संकल्प ) प्रत्याखान: (डिस्क्लेमर :यह श्रृंखला महज एक व्यवहार शास्त्रीय विवेचन है,इसका नर नारी समानता /असामनता मुद्दे से कोई प्रत्यक्ष परोक्ष सम्बन्ध नही है )

Sunday, 21 December 2008

विज्ञान कथा पर राष्ट्रीय परिचर्चा -कतिपय चित्र स्मृतियाँ !


कहते हैं कि याददाश्त बेहद ख़राब दोस्त है जो कि ठीक ऐन वक्त पर धोखा दे देती है .इसलिए बनारस में पिछले माह ,नवम्बर में संपन्न राष्ट्रीय विज्ञान कथा परिचर्चा के कुछ फोटो यहाँ सहेज रहा हूँ ताकि धुंधली पड़ती यादों को कभी कभार ताजा कर सकूं ।ऊपर का चित्र है विषय प्रवर्तन का और यह भार मुझे ही वहन करना पडा! डायस
सुशोभित है विज्ञानं कथा के पुराधाओं से -महाराष्ट्र के डॉ वाई एच देशपांडे ,राजस्थान के एस एम् गुप्ता ,दिल्ली से डॉ मनोज पटैरिया (अध्यक्ष ) .जे आर एच विश्विद्यालय के वाइस चांसलर और मशहूर गणितग्य प्रोफेसर एस एन दुबे ( मुख्य अतिथि ),लखनऊ से साहित्यकार हेमंत कुमार , बाल भवन दिल्ली की पूर्व निदेशक डॉ मधु पन्त ,डॉ राजीव रंजन उपाधायाय !

यह चित्र है विशिष्ट प्रतिभागी जनों का ,सामने गेरुए रंग के वस्त्र में दिख रहे हैं पूर्व एयर वाइस मार्शल विश्व मोहन तिवारी जी .
कौन है चित्र में दक्षिण भारत से आयी कई विज्ञान कथा विभूतियाँ हैं .राजस्थान के मशहूर विज्ञान कथा लेखक हरीश गोयल भी हैं ! (नीचे )



नीचे चित्र है उस यादगार पल का जब माईकल क्रिख्तन जिसने जुरासिक पार्क बनायी थी की मृत्यु पर शहनाई की शोक धुन श्रद्धांजलि देते हुए मरहूम भारत रत्न बिस्मिल्ला खां के भतीजे उस्ताद अली अब्बास खान और सहयोगी !

एक प्रतिभागी समूह परिचर्चा का दृश्य है नीचे जिसमें डॉ मधु पन्त के साथ दिल्ली विश्वविद्यालय की सुश्री रीमा सरवाल ,बिट्स पिलानी की डॉ गीता बी आदि हैं .


एक प्रतिभागी बड़े मनोयोग से क्षेत्रीय भाषाओं के विज्ञान कथा प्रकाशनों को देख रहे हैं .



Saturday, 22 November 2008

कंधे पर लदी पुरूष सौन्दर्य यात्रा !

पुरूष का कंधा नारी के लिए अतीत से आज तक सिर टिकाने को सहज ही उपलब्ध है
Image Reference: VC019055
जी हाँ यह पुरूष पर्यवेक्षण यात्रा तो अब कंधे पर लदे वैताल के मानिंद ही हो चली है ! पर मुझे इसे पूरा करना ही है -तो आगे बढ़ें -
चर्चा पुरूष कन्धों की विशालता को लेकर हो रही थी -चिम्पान्जियों को अपने कंधे तब ऊंचे करने पड़ते हैं जब कोई घुसपैठिया उनकी टेरिटरी में आ धमकता है -ऐसे समय में चिम्पांजी अपने कंधे की एक भयावह भंगिमा बनाता है और उसके कंधे के बाल भी ऊर्ध्वाधर खड़े हो जाते है -घुसपैठिया आम तौर पर भाग खडा होता है .हमारे (पुरुषों) कंधे के एकाध बचे बाल दरअसल आज भी हमें हमारे उसी "बालयुक्त" अतीत की ही प्रतीति कराते हैं .आज हमारे कंधे बाल विहीन से भले हो गए हों मगर अब भी कंधे को भरा पूरा दिखाने के अवसर मिलते रहते हैं और मजे की बात यह कि आज भी एकाध बचे खुचे बाल चिम्पांजी के बाल सरीखे सीधे खड़े हो उठते हैं ।
वे माने या माने पर आज भी पुरुषों का कंधा नारी के बोझिल से हुए सर को एक सकून भरा आसरा देते हैं -एक आम पुरूष की लम्बाई आम नारी से कम से कम पाँच इंच अधिक होती है जिससे पुरूष के ऊंचे कंधे नारी को सिर टिकाने का मानों शाश्वत आमंत्रण देते रहते हैं .पुरूष का कंधा नारी आज भी नारी के सिर को टिकाने के एक सुरक्षित और भरोसेमंद स्थल के रूप में सहज ही उपलब्ध है.यह आश्वस्ति भरा पुरसकून स्थल गुफाकाल से ही नारी के आश्रय के लिए उपलब्ध रहा है ।
अब चूंकि विकास की प्रक्रिया बहुत धीमीहै और जीनों में सहज परिवर्तन भी लाखो वर्षों में होता है अभी भी पुरूष के इस पोस्चर में कोई बदलाव नही आया है .और अभी तो लाखो वर्षों ऐसयीच ही चलेगा भले ही पुरूष अपने शिकारी अतीत को काफी पीछे छोड़ आया है -आफिस में कलम घिस्सू या पी सी के की बोर्ड पर उंगली थिरकू बने रहने के बाद भी पुरूष का कंधा नारी को आराम दिलाने के अपनी आतीत सौहार्द के साथ उपलब्ध है .
क्या कंधे भी देह की भाषा में कुछ योगदान करते हैं ? जी बिल्कुल ! दो स्कंध भंगिमाएं तो बिल्कुल जानी पहचानी हैं .एक तो शोल्डर शेक है तो दूसरा शोल्डर स्रग -पहला तो मनोविनोद के क्षणों मे कन्धों की ऊपर नीचे की गति है तो दूसरा विभिन्न सिचुयेशन में 'मैं नही जानता ' ,'मुझसे क्या मतलब ?','अब मैं क्या कर सकता हूँ ','अब तो कुछ नही हो सकता ' की इन्गिति करता है -आशय यह कि यह भंगिमा नकारात्मक भावों को इंगित करती है .

Wednesday, 19 November 2008

मजबूत कन्धों पर आ टिका अब पुरुष पर्यवेक्षण !

विकास के दौर में जब मनुष्य चौपाये से दोपाया बना तो उसके स्वतंत्र हो गए दोनों बाहुओं के संचालन की एक नयी जिम्मेदारी उस पर आ पडी .लिहाजा बाहुओं को सपोर्ट करने वाले कन्धों को प्रकृति ने मजबूत मांसपेशियों से लैस करना शुरू कर दिया . जिसके चलते हाथों को शिकार पकड़ने में तरह तरह के आयुधों के सहज संधान में काफी सुविधा हुई .जाहिर है पुरुषों के कंधे ऑर बाहें आम स्त्री की तुलनामें मजबूत होते गए .दोनों हाथों के संधि क्षेत्र यानी कंधा पुरूषों में काफी मजबूत होता गया ऑर एक स्पष्ट से लैंगिक विभेद का बायस बन बैठा .पुरुषों का कंधा नारी की तुलना मे ज्यादा चौडा ऑर भारी होता गया है .एक सामान्य पुरुष का शरीर कंधे से नीचे से पतला होता जाता है जबकि ठीक इसके उलट नारी कंधे से नीचे फैलाव पाती जाती है -यह नारी विभेद कूल्हों के चलते और उभर उठता है ।

अब इतने स्पष्ट लैंगिक विभेद के अपने सांस्कृतिक फलितार्थ /निहितार्थ तो होने ही थे .अब पुरुषों को मर्दानगी के प्रदर्शन एक और जरिया मिल गया था .अब कन्धों को उभारने वाली साज सज्जा और अलंकरण का चलन चल पडा .राजा महराजाओं ,राजकुमारों के पहनावों में कंधे उभार पाने लगे -आज भी ज़रा सेना के किसी कमीशंड अधिकारी को देखे कैसा उसका कंधा चौडा और अलंकरणों से लदाफदा होता है .जापानी थियेटर के काबुकी पात्र और अमेरकी फुटबाल खिलाड़ियों के भारी भरकम कन्धों को आपने भी देखा होगा .जापानी पुरुष अपने कंधे को उभारने के लिए जो परिधान -ब्रोकेड पहनता है कामी नारीमू कहलाता है .इसी तरह अमेरिकी फुटबालर अपने कन्धों से अधिक पुरुशवत लगते हैं ।
मगर मजे की बात तो यह है कि इतिहास ऐसे भी उदाहरणों का गवाह बना है जब पश्चिम में नारी मुक्ति आन्दोलनों की कुछ झंडाबरदार जुझारू नारी सक्रियकों ने पुरुष्वत दिखने की चाह में अपने कन्धों को उभार कर दिखाने का उपक्रम शुरू किया .नारी मुक्ति की अगुआ महिलाओं ने १८९० मे ही यह अनुष्ठान आरम्भ कर दिया था -लैंगिक समानता की चाह लिए महिलाओं को मानो 'शोल्डर समानता ' रास आ गयी थी .इस प्रवृत्ति ने फैशन विशेषगयों .इतिहासकारों का धयान अपनी ओर खींचा .ब्रितानी नारियों ने १८९५ के आस पास ऐसी पोशाकें पहननी शुरू की कि ऐसा लगता था कि उस परिधान के स्कंधिका -ब्रोकेड के भीतर फूले हुए गुब्बारे रख दिए गएँ हों .ऐसी मुक्त हो चली नारियां पुरुषों से हर कदम से कदम मिला कर विश्वविद्यालय की डिग्रियां .खेल के मैदानों और उनके पारम्परिक पुरुष कार्य क्षेत्र तक चहल कदमी करने लगीं थीं .मगर यह भी कोई बात हुई कि उनके पुरुष्वत परिधानों के भीतर अभी भी कोरसेट और पेटीकोट मौजूद हुआ करते थे .वे सार्वजनिक रूप से तो पुरुशवत तो हो चली थीं मगर निजी तौर पर कमनीया नारी ही थीं .....जारी !

Friday, 14 November 2008

विज्ञान कथा पर राष्ट्रीय परिचर्चा का समापन ....

विज्ञान कथा पर पहली राष्ट्रीय परिचर्चा ( १०-१४ नवम्बर , 08 ) का कल समापन हो गया ! यदि आपको रुचिकर लगे तो यहाँ आप मिनट टू मिनट कार्यक्रम और यहाँ अतिथि प्रतिभागियों का विवरण देख सकते हैं -कल ही परिचर्चा का समापन हुआ है और आज अचानक ही सब सूना सूना सा हो गया है .पूरे विवरण को ब्लॉग करना है पर शायद कुछ समय लग जाय ,क्योंकि अभी तो सिर पर आयोजक का भूत ही सवार है, रचना धर्मिता डरी सहमी पिछवाडे से झाँक सी रही है की यह मुआ आयोजक हटे तो मैं कुछ अर्ज करुँ -तो मित्रों थोडा सब्र करें ! इस बीच चाँद पर हमारा तिरंगा लहर उठा है -यह हमारे लिए अपूर्व गौरव और स्वाभिमान की बात है .इस पर भी कुछ लिखना है -एक अलग फोरम की मित्र मंडली ने एक चर्चा यहाँ पहले ही छेड़ दी है -आप चाहें तो वहाँ पधार सकते हैं .