Wednesday, 23 July 2008

नाभि अलंकरण :नख शिख सौन्दर्य यात्रा का अगला विराम

नाभि अलंकरण :फोटो सौजन्य -iStockphoto
नारियां तोंद मुक्त होती हैं .उनके पेट की बनावट ही कुछ ऐसी होती है कि मोटी से मोटी महिला भी तोंद रहित लगती है। यहाँ तक कि गर्भ धारण में भी उनके पेट का आकार तोंदनुमा नहीं दिखता। वसा के अधिक जमाव के बावजूद भी उनका पेट आगे निकले के बजाय चौड़ाई में फैलता है और कूल्हों को घेर लेता है। पुरुष की तुलना में नारी का पेट अधिक लम्बा व गोलायमान होता है, नाभि और गुप्तांग के बीच की दूरी भी अधिक होती है।

महिलाओं के पेट की इसी सुघड़ता ने कला चित्रकारों का मन हमेशा आलोडित किया है, जो इस नारी अंग को पुरुषों के लिए लैंगिक आकर्षण का एक पसंदीदा विषय मानकर अपनी तूलिका को गति देते रहें हैं। यहाँ (पापी) पेट का सवाल एक दूसरे नजरिये से उभरता है और कितने ही नारी ``माडल´´ अपने सुघड़ पेटों की बदौलत ऐश्वर्य सुख भोगती हैं। उनकी इस पेट की कमाई में उनकी नाभि का योगदान कुछ कम नहीं है।

दरअसल नारी पेट की कामोद्दीपकता में उसकी नाभि चार चाँद लगाती है। नारी की नाभि की आकृति गोलाकार अथवा लम्ब रूप (वर्टिकल) हो सकती है। मोटी महिलाओं की नाभि ज्यादातर मामलों में गोलाकार तथा पतली महिलाओं की नाभि लम्बरूप लिए होती हैं। लम्बरूप नाभि सौन्दर्यबोध के पैमाने पर ज्यादा आकर्षक लगती है, अत: नारी मॉडलों में प्राय: नाभि का आकार लम्बरूप ही होता है। व्यवहार विज्ञानी नाभि के इस लम्बरूप आकार की लोकप्रियता में उसका योनि -साम्य होना पाते हैं। चूंकि नारी की नाभि योनि प्रतीक बन गयी है अत: वह पुरातन ,वादियों परम्परावादियों की आंखों में खटकती रही है।

``द अरेबियन नाइट्स´´ फिल्म के निर्माताओं पर सेन्सर का वज्रपात `नाभि प्रसंग´´ को लेकर हुआ था। सेन्सर ने फिल्म की नृत्यांगनाओं के नाभि प्रदर्शन पर कड़ी आपत्ति की थी और कई नाभि प्रदर्शक नृत्यों को फिल्म से निकलवा दिया था। हालीवुड फिल्मों में भी नाभि प्रदर्शन पर एक बार प्रतिबन्ध लग चुका है। काम क्रीड़ा की कई पुस्तकों में नारी की नाभि को लघु योनि के रूप में भी चित्रित किया गया है।

एलेक्स कम्र्फट द्वारा लिखित और मेरी आल टाइम पसंदीदा रही मशहूर सेक्स विषयक विज्ञान सम्मत सचित्र पुस्तक ``द ज्वॉय आफ सेक्स´´ में नाभि की कामोद्दीपक भूमिका पर रोशनी डाली गयी है।[हाईली रेकमेंडेड ]``बेली नर्तकिया¡´ अपनी विभिन्न नृत्य मुद्राओं में नाभि को उत्तेजक ढंग से प्रदर्शित करती दिखायी देती हैं .और अब तो नाभि के अलंकरण का दौर भी शुरु हो चुका है- नाभि-नथुनियाँ भी कितनों के दिल पर सीधे वार कर रही हैं .

Tuesday, 22 July 2008

दोहरी भूमिका में हैं नारी के वक्ष -भाग 2

मानव की `आदर्श भौतिक उम्र´ 25 वर्ष की मानी गयी है। इस अवस्था तक पहुंचते -पहुंचते समस्त शरीरिक विकास पूर्णता तक पहुँच चुका होता है। अत: इस उम्र तक नारी स्तन का विकास अपने उत्कर्ष पर जा पहुंचता है और भरपूर यौनाकर्षण की क्षमता मिल जाती है। ठीक इसके पश्चात् ही मातृत्व का बोझ नारी स्तन की ढ़लान यात्रा को आरम्भ करा देता है और वे अधोवक्षगामी होने लगती है।


जैवविदों के अध्ययन के मुताबिक पतली तन्वंगी नायिका के स्तन विकास की यात्रा धीमी होती है। जबकि हृष्ट-पुष्ट (बक्जम ब्यूटी) नायिका के स्तनों का विकास तीव्र गति से होता है। अब तो सौन्दर्य शल्य चिकित्सा (कास्मेटिक सर्जरी) के जरिये प्रौढ़ा के भी स्तनों में नवयौवना के स्तनों सा उभार ला पाना सम्भव हो गया है। विभिन्न तरह के वस्त्राभूषणों पहनावों के जरिये किसी भी उम्र की नारी अपने उसी ``नवयौवना´´ काल के स्तनों की ही प्रतीति कराती है।

परम्परावादियों की कोप दृष्टि हमेशा नारी स्तनों पर रही है। विश्व की कई संस्कृतियों में सामाजिक नियमों के जरिये नारी स्तनों को ढ़कने छिपाने के कड़े प्रतिबन्ध जारी किये जाते रहे हैं। ऐसी कंचुकियों/चोलियों के पहनाने पर विशेष बल दिया गया जिनसे नारी स्तनों का उभार प्रदर्शित न होता हो .सत्रहवी शताब्दी की स्पेनी नवयौवनाओं के स्तनों को सीसे की प्लेटों से दबाकर रखने का क्रूरता भरा रिवाज था, जिससे वे अपना कुदरती स्वरूप न पा सकें यानी बहुत पहले ही नारी स्तनों की यौन भूमिका जग जाहिर हो चुकी थी।

नारी स्तन की कुदरती अर्द्धगोलाकार स्वरूप की नकल कितने ही चित्रकार, छायाकार अपनी ``रचनाओ´´ में करके उनको सौन्दर्यबोध की नित नूतन परिभाषाए¡ प्रदान करते हैं। न्यूड मैगजीन के मध्यवर्ती पृष्ठों पर नारी स्तनों की कामोद्दीपकता वाली छवि के पाश्र्व में एक छायाकार को बड़ी मेहनत मुशककत करनी पड़ती है। उसे अपने सही मॉडल के तलाश में कम पापड़ नहीं बेलने पड़ते .

नारी स्तनों को उनके सर्वोत्कृष्ट कामोद्दीपक स्वरूप में दर्शाने के लिए एक छायाकार को एक उस षोडशी की खोज होती है, जिसके स्तन पूरी तरह विकसित हो चुके हों-अपने अर्द्धगोलाकार रूप की चरमावस्था में पहु¡च चुके हों किन्तु अभी भी उनकी `स्थिरता´ बनी हुई हो- यह विरला संयोग सहज सुलभ नहीं होता।

हम यही जानते हैं कि मानव मादा के बस दो ही स्तन होते हैं, पर यह सच नहीं है, हकीकत यह है कि प्रत्येक दो तीन हज़ार महिलाओं में से एक को दो से अधिक स्तन होते हैं। इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है- ऐसी घटना हमें अपने उस जैवीय अतीत की याद दिलाती है, जब हमारे आदि पशु पूर्वजों की मादायें एक वार में एक से अधिक बच्चे जनती थीं-एक साथ कई बच्चों का गुजर बसर बस जोड़ी भर स्तनों से कहा¡ होने वाला था। किन्तु कालान्तर में मानव मादा के आम तौर पर एक शिशु के प्रसव या अपवाद स्वरूप जुड़वे शिशुओं के जन्म के साथ ही स्तनों की संख्या दो पर ही आकर स्थिर हुई होगी। किन्तु अभी भी कुछ नारिया¡ दो से अधिक स्तनों की स्वामिनी होकर हमें अपने जैवीय इतिहास पुराण की याद दिला देते हैं।

रोमन सम्राट एलेक्जेण्डर की मा¡ को कई स्तन थे, जिसके चलते उनका नाम जूलिया मेमिया पड़ गया था। हेनरी अष्टम की अभागी पत्नी एन्नजोलिन के तीन स्तन थे। इस ``अपशकुन´´ के चलते बेचारी को अपनी जान गवानी पड़ी थी अतिरिक्त स्तनों वाली नारी को आज भी कई यूरोपीय देशों में अभिशप्त माना जाता है एवं उन्हें चुड़ैलों का सा दरजा प्राप्त है।

Sunday, 20 July 2008

दोहरी भूमिका में हैं नारी के वक्ष ...1

नारी वक्ष की दो रोल हैं- एक तो शिशु का पोषण (दुग्धपान) तथा यौनाकर्षण। किन्तु व्यवहारविदों की राय में नारी स्तनों की यौनाकर्षण वाली भूमिका ही ज्यादा अहम है। समूचे नर वानर समुदाय (प्राइमेट्स) में मानव मादा ही इतने उभरे अर्द्धगोलाकार मांसल स्तनों की स्वामिनी है। इससे यह स्पष्ट है कि मानव प्रजाति में मादा के स्तनों की मात्र शिशु पोषण वाली भूमिका ही नहीं है, जैसा कि वह नर-वानर वर्ग के कितने ही अन्य सदस्यों-चिम्पान्जी गोरिल्ला, ओरंगऊटान आदि वनमानुषों में हैं।
यह गौर तलब है कि वनमानुषों की मादाओं का स्तर अपेक्षाकृत बहुत पिचका और बिना उभार लिए होता है। नारी स्तनों की सबसे अहम भूमिका दरअसल यौनाकर्षण (सेक्सुअल सिगनलिंग) ही है। व्यवहार विज्ञानियों ने नारी वक्ष की यौनाकर्षण वाली भूमिका की एक रोचक व्याख्या प्रस्तुत की है। उनका कहना है कि नर वानर कुल के तमाम दूसरे सदस्यों में मादाओं के नितम्ब प्रणय काल के दौरान तीव्र यौनाकर्षण की भूमिका निभाते हैं - उनके रंग आकार में सहसा ही तीव्र परिवर्तन हो उठता है। उनके नर साथी इन नितम्बों के प्रति सहज ही आकर्षित हो उठते हैं। यह तो रही चौपायों की बात किन्तु मानव तो चौपाया रहा नहीं।

विकास क्रम में कोई करोड़ वर्ष पहले ही वह दोपाया बन बैठा-दो पैरों पर वह सीधा खड़ा होकर तनकर चलने लगा। वैसे तो और उसके पृष्ठभाग में नितम्ब अपने कुल के अन्य सदस्यों की ही भा¡ति अपनी यौनकर्षण वाली भूमिका का परित्याग नहीं कर पाये हैं- किन्तु मानव के ज्यादातर कार्य व्यापार आमने सामने से ही होने लगे, और नितम्ब पीछे की ओर चले गये। अब जरूरत आगे, सामने की ओर ही वैकल्पिक यौनाकर्षक `नितम्बों´ की थी और यह भूमिका ग्रहण की नारी स्तनों ने। नारी के वक्ष दरअसल उसी आदि यौन संकेत का ही बखूबी सम्प्रेषण करते हैं - सेक्सुअल नितम्बों का भ्रम बनाये रखते हैं, मगर सामने से मानव मादा के स्तनों की यह नयी यौन भूमिका कुछ ऐसी परवान चढ़ी कि उसके मूल जैवीय कार्य यानी शिशु को स्तनपान कराने में मुश्किलें आने लगीं।

अपने उभरे हुए गुम्बदकार स्वरूप में नारी के स्तन शिशुओं का मुंह ढ़क लेते हैं, स्तनाग्र अपेक्षाकृत इतने छोटे होते हैं कि शिशु उन्हें ठीक से पकड़ नहीं पाता। उसकी नाक स्तन से ढक जाती है और वह सांस भी ठीक से नहीं ले पाता। प्राइमेट कुल के अन्य सदस्यों के शिशुओं को यह सब जहमत नहीं झेलनी पड़ती। क्योंकि उनकी मा¡ओ के स्तन छोटे पतले और पिचके से होते हैं और चूचक लम्बे, जिन्हें शिशु आराम से मु¡ह में लेकर दुग्ध पान करते हैं।

नारी के पूरे जीवन में स्तनों की विकास यात्रा सात चरणों में पूरी होती है। जिनमें बाल्यावस्था के `चूचुक स्तन´, सुकुमारी षोडशी के उन्नत शंकुरूपी स्तन, नवयौवना के स्थिर उभरे स्तन तथा मातृत्व और प्रौढ़ा के पूर्ण विकसित, अर्द्धगोलाकार - गुम्बद रूपी स्तन और वृद्धावस्था के सिकुड़े स्तन की अवस्थाए¡ प्रमुख हैं।

क्रमशः

भई गति कीट भृंग की नाई..... !!

यह है कीट भृंग गति !
भारतीय विद्या भवन मुम्बई की आमुख हिन्दी पत्रिका नवनीत के ताजे जुलाई अंक में उक्त शीर्षक का मेरा लेख प्रकाशित हुआ है ।
यह रामचरित मानस के उस प्रसंग के उल्लेख से आरम्भ होता है जब रावण मारीच को स्वर्ण मृग बन कर सीता हरण की योजना में मदद करने को बाध्य करता है ,लेकिन मारीच यह कहकर अपनी असमर्थता प्रकट करता है -

भई गति कीट भृंग की नाई..... जह तंह मैं देखऊँ दोऊ भाई !

दरअसल नवनीत का उक्त लेख मेरी उस अर्धाली के अर्थबोध की लम्बी प्रक्रिया और शोध का फल है ।

आध्यात्म में कीट भृंग गति की बड़ी चर्चा है .आख़िर यह कीट भृंग गति है क्या ?

उक्त लेख में यही विस्तार से विवेचित है .वैस्प-ततैये [बिलनी] की कुछ प्रजातियाँ घरों में मिट्टी के घरौदें बनाती हैं .चूंकि इनका जीवन बस कुछ माह का ही होता है ये घरौंदे बनाकर उसमें अंडे देकर अल्लाह मियाँ को प्यारी हो जाती हैं -अंडे से निकल कर आख़िर इल्लियों को खिलायेगा कौन -मान बाप तो गुजर चुके .इसलिए ततैये कुछ किस्म के कीटों को अपने डंक से मारकर उसी घरौंदे में डाल कर ,घरौंदे का मुंह बंद कर अपने दायित्व के इतिश्री कर लेते हैं ।
अपने डंक से जो रसायन वे कीटों में छोड़ते हैं उनसे कीट मरता नही बल्कि एक तरह की पैरालाईजड अवशता की स्थिति मे जा पहुंचता है .अब वह चूंकि मरा नही है अतः सड़ता गलता नही .ततैये के अंडे से फूट कर निकले बच्चे रखे रखाए भोज की दावत उडाते हैं और फिर अपने मात्र एक वर्ष के जीवन की लीला आरम्भ कर देते हैं ।

कीट भृंग के इस व्यवहार ने सदियों से प्रकृति प्रेमी संत मुनियों को आकर्षित किया होगा और उन्होंने इससे जुडी आध्यात्मिक उपमाएं सोची विचारी होंगी -

मारीच का कहना है कि उसकी गति तो राम लक्ष्मण को देखते ही भृंग के सामने कीट सी हो जाती है -वह बेबस और लाचार है .उसे ताड़का वध के समय राम के उस बाण की याद आती है जिसने उसे सौ योजन दूर जा पटका था ।

नवनीत का लेख थोडा और विस्तृत सन्दर्भों को समेटे हुए है .कहीं मिल जाए तो पढ़ना चाहें .

Saturday, 19 July 2008

अब बारी है सुराहीदार गरदन की ....

साभार :थाईलैंड लाइफ
नायक की तुलना में नायिका की सुराहीदार गरदन अधिक लम्बी और लचीली होती है। यहाँ तक कि लम्बे अभ्यास के बावजूद भी बैले नर्तक अपनी गरदनें सहनर्तकियों के समान लम्बी नहीं कर पाते। दरअसल नारी के ग्रीवा के नीचे का अंग `थोरैक्स´ पुरुष की तुलना में छोटा होता है। एक चित्रकार/कार्टूनिस्ट की नजर में नारी की ग्रीवा का भी अपना विशेष स्थान है। जहाँ उसे नारी अंगों को उभारने की आवश्यकता होती है वह गरदन को भी बड़ी करने से नहीं चूकता। नारीत्व की एक पहचान के रूप में गरदन लम्बी करने की ऐसी होड़ विश्व की कुछ संस्कृतियों में देखने को मिलती है जो वस्तुत: क्रूरता की सीमा लांघती हैं।

बर्मा की जिराफ ग्रीवा नारियों, की व्यथा कथा कुछ इसी तरह की है। यहाँ करने जनजाति के पडांग शाखा की लड़कियों को बचपन से ही पाँच पीतल के छल्ले गरदन में डाल देते है। उम्र के बढ़ने के साथ ही छल्लों की संख्या भी बढ़ने लगती हैं ,यहाँ तक कि यौवन की दहलीज लाघते-लाघते 22 से 24 छल्ले उनकी गरदन की लम्बाई के 15 इंच से भी उपर तक जा पहुँचती हैं ।यदि इस दशा में इनकी गरदन से पीतल के छल्ले निकाल दिये जाय तो सिर एक ओर लुढ़क जायेगा। नारी की लम्बी ग्रीवा सिर की कई तरह की भाव-भंगिमाओं को प्रदर्शित करने में भी मददगार है।

सिर के कुछ प्रमुख अभिप्राय पूर्ण संकेतों में जैसे सिर का आगे पीछे हिलाना (हामी भरना) सिर झुकाना (समर्पण), सिर का आगे पीछे हिलाना (इन्कार) आदि गरदन की मदद से सम्भव होता है। शायद यही कारण है कि रसिक जनों को नारी ग्रीवा सहज ही आकर्षित करती रहती है।

Thursday, 17 July 2008

ये होंठ है या पंखुडिया गुलाब की -नख शिख सौन्दर्य ,अगला पड़ाव !

क्या कहते हैं ये होठ ?फोटो साभार : Cult Moxie
ये होठ हैं या पंखुडिया गुलाब की ....जी हाँ सौन्दर्य प्रेमियों ने नारी के होठों के लिए गुलाब की पंखुिड़यों, रसीले सन्तरे कीफांक जैसी कितनी ही उपमायें साहित्य जगत को सौपी हैं। मानव होंठो की रचना अन्य नर वानर कुल के सदस्यों से ठीक विपरीत है। यह बाहर की ओर लुढ़का हुआ है, यानि मानव होठ की म्यूकस िझल्ली बाहर भी दिखती है जबकि अन्य नर वानर कुल के सदस्यों में यह भीतर की ओर है। यही म्यूकस िझल्ली नारी होंठों को भी एक विशेष यौनाकर्षण प्रदान करती है। काम विह्वलता के दौरान यही होठ अतिरिक्त रक्त परिवहन के चलते फूल से जाते हैं, रक्ताभ उठते हैं। व्यवहार विज्ञानियों की राय में नारी होठ यौनेच्छा का `सिग्नल´ देते हैं।
यहा¡ डिज्माण्ड मोरिस की एक दलील तो बड़ी दिलचस्प है। वे कहते हैं कि चूंकि नारी के योनि ओष्ठों (वैजाइनल लैबिया) और उसके होठों के भ्रूणीय विकास का मूल एक ही है, अत: यौन उत्तेजना के क्षणों में ये दोनो ही अंग समान जैव प्रक्रियाओं से गुजरते हैं। उनकी प्रत्यक्ष लालिमा `योनि ओष्ठों´ की अप्रत्यक्ष लालिमा की भी प्रतीति कराती है। इन दोनों नारी अंगों के इस अद्भुत साम्य का कारण भी व्यवहार विज्ञानीय (इथोलाजिकल) है।
नर वानर कुल के प्राय: सभी सदस्यों में जिनमें सहवास पीछे से (मादा के पाश्र्व से) सम्पन्न होता है- मादा के यौनांग एवं पृष्ठ भाग (रम्प) प्रणय काल के दौरान रक्ताभ और अधिक उभरे हुए से लगते हैं जो नर साथियों को आकिर्षत करते हैं। किन्तु मानव जिसमें न तो कोई खास प्रणय काल (बारहों महीने प्रणय) होता है और सहवास की क्रिया भी आमने सामने से होती है, नर को आकिर्षत करते रहने का कोई विशेष अंग सामने की ओर दृष्टव्य नहीं होता। योनि ओष्ठ, वस्त्रावरणों के हटने के बावजूद भी प्रमुखता से नहीं दिखते। इन स्थितियों में प्रकृति ने नारियों के होठो को उनके वैकल्पिक रोल में अपने पुरुष सखाओं को रिझाने को जैवीय भूमिका प्रदान कर दी। यह प्राकृतिक व्यवस्था नारियों के हजारो वर्षों से अपने होठों को रंगते आने की आदत को भी बखूबी व्याख्यायित करती है।
यह भी गौरतलब है कि परम्परावादियों को नारियों के होठो की लाली फूटी आ¡ख भी नहीं सुहाती।

Wednesday, 16 July 2008

कामोद्दीपक भी हैं नारी के कान ...मनोरम यात्रा का नया पड़ाव ....

कामोद्दीपक हैं नारी के कान
साभार :istockphoto
नारी के कानों का भी अपना अनूठा सौन्दर्य है .व्यवहार विज्ञानी डा0 डिजमण्ड मोरिस की राय में मानव कर्णों , खासकर नारी के कानों का सबसे खास गुण हैं उनकी कामोद्दीपक भूमिका। प्रणय प्रसंगों के दौरान नारी के कानों के मुलायम मांसल हिस्से (लोब्स) रक्त वर्ण हो उठते हैं, इनमें खून की आपूर्ति यकायक बहुत बढ़ जाती है, वे फूल से उठते हैं और स्पर्श के प्रति अत्यन्त संवेदनशील हो जाते हैं। प्रणय बेला में कानों का विविध ढंगों से प्रेमस्पर्श नारी को काम विह्वल कर सकता है। प्रख्यात काम शास्त्री किन्से की राय में तो कुछ विरलें मामलों में मात्र कानों को उद्दीपित करने से ही नारी को मदन लहरियों (आर्गेज्म ) का सुख प्राप्त होना देखा गया है। इस तरह नारी के कान उसकी समूची देह रचना में एक महत्वपूर्ण ``कामोद्दीपक क्षेत्र´´ की भूमिका निभाते हैं।

कानों को नारी गुप्तांग का भी प्रतीक मिला हुआ है। उसकी आकार रचना ही कुछ ऐसी है। विश्व की कुछ संस्कृतियों-लोक रिवाजों में कानों का बचपन में छेदना दरअसलन एक तेरह से ``नारी खतने´´ (फीमेल सर्कमसिजन) का ही प्रतीक विकल्प हैं। किशोरियों के कान छिदवाने की प्रथा के पार्श्व में भी सम्भवत: यही अप्रत्यक्ष भावना रही होगी, भले ही प्रत्यक्ष रूप में इसका कारण श्रृंगारिक दिखता हो।

मिस्र में किसी व्यभिचारिणी की आम सजा है- कानों को तेजधार की छुरी से काट देना। नारी कानों को उसके गुप्तांग (योनि) का विकल्प मानने का ही एक उदाहरण है। महाभारत का एक रोचक मिथक सूर्य पुत्र कर्ण के जन्म को कुन्ती के कानो से मानता है। गौतमबुद्ध भी कुछ दन्तकथाओं के अनुसार कर्ण प्रसूता है। कानों में बालियों [कुण्डल]के पहनने का प्रचलन बहुत पुराना है। आरिम्भक कांस्ययुग (चार हजार वर्ष से भी पहले) से ही कानों में कुण्डल धारण करने का रिवाज विश्व की कई संस्कृतियों में रहा है। आरम्भ में तो कर्णफूल/बाली आदि आभूषणों को पहनने के पीछे किसी काल्पनिक खतरे से निवारण का प्रयोजन/(अन्ध) विश्वास हुआ करता था। किन्तु अब यह कानों के आभूषण `स्टेटस सिम्बल´ का भी द्योतक बन गया है। यह धनाढ्यता और सामाजिक स्तर को प्रतिबिम्बत करता है। कानों में आभूषणों का पहनाव नारी के सौन्दर्य को बढ़ाता है, क्योंकि यह नारी के कानो के कुदरती स्वरूप को और भी उभार देता है।