Friday, 11 November 2011

डॉ.खुराना के अवसान ने एक बार फिर इन मुद्दों को प्रासंगिक बना दिया है ....

विगत ९ नवम्बर(२०११)  को भारतीय मूल के वैज्ञानिक और नोबेल पुरस्कार विजेता हरगोबिन्द खुराना की मृत्यु हो गयी ..उन्हें १९६८ में नाभकीय अम्लों के  प्रोटीन संश्लेषण की प्रक्रिया के रह्स्यावरण पर नोबेल से सम्मानित किया गया था ....वे भारत से एक फेलोशिप पर इंग्लैण्ड के लीवरपूल विश्वविद्यालय १९४५ में गए और वहां से पी एच डी की उपाधि प्राप्त की और भारत लौट आये ..यहाँ उन्हें उपेक्षा ही उपेक्षा मिली ...हताश और बेरोजगार वे वापस इंग्लैण्ड फिर कनाडा और अततः अमेरिका में विस्कांसिन विश्वविद्यालय में एन्जायिम पर शोध रत हुए ...डॉ. खोराना अविभाजित भारत के मुल्तान के रायपुर(पंजाब) कस्बे में 9 जनवरी 1922 को जन्मे थे ...पिता पटवारी थे जिन्होंने बच्चों को शिक्षा देने को अपने जीवन की सर्वोच्च प्राथमिकता मानी थी .....१९७६ में खोराना एक बार तब फिर सुर्ख़ियों  में आये जब  'मनुष्य द्वारा निर्मित/संश्लेषित  पहले जीन' का श्रेय उन्हें मिला ....आज की जैव प्रौद्योगिकी डॉ. खुराना के शोध की बहुत ऋणी है और क्रेग वेंटर द्वारा  प्रयोगशाला में जीवन के निर्माण की तो एक तरह से बुनियाद डॉ .खोराना ने ही रख दी थी ......
डॉ हरगोबिन्द खोराना(९ जनवरी १९२२-९ नवम्बर २०११)  

आज क्षोभ इस बात का है कि डॉ खोराना को अपने देश में जिस तरह का सम्मान और तवज्जो मिलना चाहिए था वह उन्हें नहीं मिला और आज उनके दिवंगत होने से वे सारे सवाल जिनके कारण आज भी वैज्ञानिक शोधों में भारत की हालत दयनीय बनी हुयी है प्रासंगिक हो उठते हैं ...डॉ .खोराना को जब नोबेल मिलने की घोषणा हुयी थी तब एकबारगी ब्रेन ड्रेन-प्रतिभा पलायन का मुद्दा जोर शोर से उठा था ....मगर ऐसी ही प्रतिभाएं अपने देश में  उपेक्षा का दंश सहती रहती हैं, उनकी कुशाग्रता में जंग लगती जाती है -ब्रेन रस्टिंग से तो फिर भी ब्रेन ड्रेन ही अच्छा है जिससे दूसरे देश में ही सही मगर वहां सफलीभूत हुए शोध का फायदा पूरी मानवता को तो मिल जाता है ....


आज भी भारतीय परिदृश्य में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है ..प्रतिभाओं की घोर उपेक्षा आज भी है ..मौलिक सोच और कल्पनाशीलता को पूछने वाला कोई नहीं है ....शोध संस्थानों और विश्वविद्यालयों के मुखिया नए शोध छात्रों की खुद की  मौलिक प्रतिभा को बढ़ने देने के अवसर के बजाय अपने सोच और कार्यों को उनपर लादते जाते हैं..फंडिंग संस्थाएं बस घिसी पिटे और/ या तो  पश्चिम के अन्धानुकरण से उपजे विषयों पर ही शोध कराने की सहमति और बजट देती हैं ..वहां भी यही वातावरण रहता है कि आखिर रिस्क कौन ले ..देश की ब्यूरोक्रेसी खुद अपनी  ही सर्वज्ञता पर मुग्ध रहती है और वैज्ञानिकों को दोयम या तीयम  दर्जे का नागरिक मानती है ..उनकी आत्ममुग्धता का आलम यहाँ तक जा पहुँचता है कि सम्बन्धित विषयों में खुद की अल्पज्ञता के बावजूद भी वे वैज्ञानिकों के शोध प्रकल्पों और तकनीकों तक की प्रक्रिया और औचित्य पर सवाल उठाने लग जाते हैं ......फलस्वरूप वैज्ञानिकों का हतोत्साहन ही नहीं उन्हें अपमान का घूँट भी पीना पड़ता है ..कमोबेस यही हालात भारत में वैज्ञानिकों के साथ हर जगहं  है और दमघोटूं माहौल में कुछ अति महत्वाकांक्षा के शिकार अयोग्य वैज्ञानिक जब राजनेताओं की चाकरी /चारण कर महत्वपूर्ण पदों को हथिया लेते हैं तो कोढ़ में खाज बन  जाते हैं ...वे उनकी छत्र छाया इसलिए भी पाना चाहते हैं ताकि ब्यूरोकरैट के कोप से बचे रहें ....यह एक ऐसा दुश्चक्र बना हुआ है जिसने भारत से 'नोबेल -कार्यों', का पत्ता साफ़ कर रखा है ....यह स्थिति कैसे दूर होगी यह विचारणीय है ...

डॉ खुराना के अवसान ने एक बार फिर इन मुद्दों को प्रासंगिक बना दिया है ....

Saturday, 15 October 2011

झींगुरों का रुनझुन यौन जीवन ...सुन सुन ...कहीं कुछ हमसे तो नहीं कहता?

अब भला इन क्षुद्र प्राणियों के इस निजी जीवन में किसी की क्या रूचि हो सकती है ..मगर मानवों एक एक ऐसा जिज्ञासु तबका है जो यहाँ भी  ताक झाँक लगाये रहता है -मतलब कीट व्यवहार विज्ञानियों का और मजेदार यह है कि ये इन हेय  प्राणियों के व्यवहार के भी निहितार्थ उच्च प्राणियों-मनुष्य  के व्यवहार से जोड़ते हैं . अब एक ताजा अध्ययन को ही लें जो करेंट बायलाजी शोध जर्नल में छपा है और जिसके मुख्य शोध वैज्ञानिक -लेखक  डॉ.रोलैंडो राड्रिग मुनोज हैं -इन्होने झींगुरो के यौन जीवन पर शोध करके पूर्व प्रचलित कई जानकारियों का खंडन किया है ..ऐसा माना जाता था कि झींगुरों में नर के प्रणय निवेदन के बाद मांदा द्वारा सर्व समर्थ नर के चुनाव और यौन संसर्ग के पश्चात भी ताक लगाये कुछ दूसरे नरों की लह जाती थी और सबसे बाद के नर के गर्भाधान से वजूद में आये अंडे ही आगामी पीढी में ज्यादा योगदान करते हैं ...ऐसा  दूसरे दूसरे कीटों में में भले  है मगर झींगुरों की शोध के अधीन आयी प्रजाति (Gryllus campestris) में तो ऐसा नहीं पाया गया है ...

झींगुरो का यौन जीवन के अध्ययन की प्रजाति (Gryllus campestris)
लैंगिक चुनाव में मादा द्वारा एक वांछित नर से संसर्ग के बाद भी दूसरे नरों के साथ जुडनें में खुद मादा की सहमति/ सहभागिता/झुकाव  का मुद्दा बड़ा ही विचारणीय रहा है ....कुत्तों में भी यही बहु -आधान व्यवहार दिखता है ....जहाँ एक मादा कई कुत्तों के साथ संसर्ग करती है ..इस व्यवहार के जैवीय वैकासिक बिंदु पर वैज्ञानिकों का गहन चिंतन मनन चलता ही रहा है -जब एक नर से ही संतति वहन का नैसर्गिक उद्येश्य पूरा होता हो तो फिर दूसरे नरों से संसर्ग की भला क्या आवश्यकता ....प्रकृति के ऐसे गूढ़ रहस्यों पर अभी भी पर्दा पूरी तरह उठा नहीं है मगर इनके पीछे छुपे गुह्य कारणों को व्यवहार वैज्ञानिक (ईथोलोजिस्ट ) जैवीय विकास के परिप्रेक्ष्य में समझने बूझने का प्रयास करते हैं और सामान्यतः समझ में न आने वाली इन गुत्थियों के  हल का प्रयास करते हैं ....मजे की बात यह है कि मौजूदा झींगुर प्रजाति में मादा दूसरे नरों की अभिलाषा नहीं रखती .....

इन 'क्षुद्र' प्राणियों पर दिन रात फोकस  अपने दो लाख से ज्यादा वीडियो फुटेज के श्रमशील अध्ययन के बाद डॉ.रोलैंडो राड्रिग मुनोज और उनकी टीम इस प्रेक्षण को बिना संदेह बयाँ कर पायी कि यहाँ मात्र एक नर से ही संसर्ग के बाद संतुष्ट हो रहने वाली झींगुर की रक्षा में नर झींगुर बड़ा ही मुस्तैद  रहता है और भले ही किसी शिकारी पक्षी का वह  खुद शिकार हो जाय सद्य गर्भित मादा को अपनी मांद में घुस जाने तक वह आक्रान्ता को उलझाये रखता है ....और प्रायः खुद वीरगति को प्राप्त हो जाता है ...और इसी का इनाम है उसे कि आगामी पीढी /संतति /वंशधर खुद उसी के ही होते हैं किसी गैर के नहीं ....इस प्राणोत्सर्ग कर देने वाले प्यार के मंजर में फिर दूसरे नरों  का आखिर क्या काम?  अब इसके मानवी निहितार्थ पर भी तनिक चिंतन कर लीजिए...नारी के लिए हर लिहाज से एक ही समर्थ पुरुष /पति संतति वहन के लिए प्रयाप्त है ....न न ऐसा कोई अध्ययन मनुष्य के संदर्भ में हुआ हो तो मुझे नहीं पता मगर ऐसे विचार तो मन में आ ही सकते हैं ....प्राकृतिक विकास की प्रक्रिया में भी ऐसे ही नर का चयन ज्यादा संभावित है क्योकि वह अपनी ही सरीखी समर्थ संतति के  जन्म/वजूद को सुनिश्चित कर रहा है ..

जो भी हो , इस झींगुर प्रजाति में तो बहरहाल तांक झाँक और मौके की तलाश में लगे नरों के लिए निराशा ही निराशा है ..मादा की भी कोई ऐसी रुझान नहीं है ...क्योकि वह खुद भी और उसकी वंश बेलि ऐसे नर के सामीप्य -संरक्षण में सुरक्षित है ...जब अगली पीढी तक सुरक्षित हो जाय तो  और भला चाहिए भी क्या ..पूरी रिपोर्ट यहाँ है ....

Sunday, 2 October 2011

कहीं यह नागफनी ही तो सोम नहीं है?

भारत की प्राचीन जादुई प्रभावों वाली सोम बूटी  और सोमरस पर विस्तृत चर्चा यहाँ पहले ही की जा चुकी है. आखिर वह कौन सी जडी -बूटी थी जो अब पहचानी नहीं जा पा रही है? क्या यह विलुप्त ही हो गयी? मशरूम (खुम्बी /गुच्छी) की कोई प्रजाति या भारत और नेपाल के पहाडी   क्षेत्रों में पाया जाने वाला यार सा गुम्बा  ही तो कहीं सोम नहीं है -यह पड़ताल भी हम पहले कर चुके हैं .भारत में सोम की खोज कई शोध प्रेमियों का प्रिय शगल रहा है -जिसके पीछे मुख्यत तो कौतूहल भाव रहा है मगर इसके व्यावसायिक निहितार्थों की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती ...मेरा  तो केवल शुद्ध जिज्ञासा भाव ही रहा है सोम को जानने समझने की और इसीलिये मैं इस चमत्कारिक जडी की खोज में कितने ही पौराणिक /मिथकीय और आधुनिक  साहित्य को देखता फिरता रहता हूँ ...
एक बार अपने पैतृक  आवास पर अवकाश के दिनों मुझे अथर्ववेद परायण के दौरान एक जगह सोम के बारे जब यह लिखा हुआ मिला कि 'तुम्हे वाराह ने ढूँढा" तो मैं बल्लियों उछल पडा था - कारण कि मशरूम की कुछ प्रजातियाँ तो वाराह यानी सुअरों द्वारा ही खोजी जाती हैं ....यह वह पहला जोरदार भारतीय साक्ष्य था जो सोम को एक मशरूम प्रजाति का होने का दावा कर रहा था ....


सोम बूटी का नया  दावा:नागफनी की एक प्रजाति  
अब अध्ययन के उसी क्रम में एक नागफनी की प्रजाति के सोम होने का संकेत मिला है .जिसे पेयोट(peyote) कहते हैं -सोम का  जिक्र मशहूर विज्ञान गल्प लेखक आल्दुअस हक्सले ने अपनी अंतिम पुस्तक आईलैंड(island ) में भी किया था .अपनी एक और बहुचर्चित पुस्तक 'द ब्रेव न्यू वर्ल्ड' में उन्होंने संसार के सारे दुखों से मुंह मोड़ने के जुगाड़ स्वरुप सोमा बटी का जिक्र किया था तो आईलैंड में मोक्ष बटी का जिक्र किया जिसका स्रोत कोई फंफूद बताया गया था ....उन्होंने अपनी एक नान फिक्शन पुस्तक 'द डोर्स आफ परसेप्शन' में नागफनी की उक्त प्रजाति का भी जिक्र किया है जिसमें मेस्केलाईन नाम का पदार्थ मिलता है जिसकी मादकता मिथकीय सोम से मिलती जुलती है और इसके बारे में उन्होंने लिखा कि इसका प्रयोग दक्षिण पश्चिम भारत के कई धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता रहा है ..ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत का यह कोना संस्कृति   के आदि  चरणों का साक्षी रहा है..... 
जाहिर है पेयोट अब सोम के संभाव्य अभ्यर्थी बूटियों में उभर आया है .....किन्तु विकीपीडिया में  इसे टेक्सास और मैक्सिको  मूल का बताया गया है? क्या यह नागफनी भारत के कुछ भी हिस्सों में होती रही है? और क्या इसका प्रयोग अनुष्ठानों में मादक अनुभवों के लिए होता रहा है -इस तथ्य की ताकीद की जानी है ....और इसलिए यह पोस्ट लिख रहा हूँ कि कोई भी सुधी जन ज्ञान प्रेमी इसके बारे में जानकारी देकर सोम साहित्य गवेषणा के यज्ञ में हविदान करें तो स्वागत है . 

Wednesday, 7 September 2011

हिलसा मछली के आकर्षण से प्रधानमंत्री का शाकाहार टूटा


खबर यहाँ है .हालांकि फालो अप नहीं है मगर मैं समझ सकता हूँ कि बंगलादेशियों का दिल जीतने के लिए अपने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने यह पेशकश की होगी और डायनिंग टेबल पर हिलसा सजी होगी .खबर के मुताबिक प्रधानमंत्री हिलसा के आकर्षण में ऐसे बधे कि कह पड़े कि हिलसा के स्वाद के लिए अगर उन्हें अपना शाकाहार छोड़ना पड़े तब भी वे तैयार हैं.
लद गए दिन हिलसा के ....

हिलसा सचमुच बंगाली मोशाय के दिल की रानी है हालाकिं उसे यह ओहदा बाबू मोशाय की पेट पूजा से हासिल हो पाया है ...जहां आम मछलियाँ १००-२०० रुपये किलो मिलती हैं हिलसा का दाम बंगाल में १००० रुपये किलो तक पहुँच गया  -पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के बीच कई राजनीतिक -कूटनीतिक प्रयासों के बाद अब जाकर इसका दाम लगभग ५०० रूपये प्रति किलो स्थिर हुआ है ... यह मछली ज्यादा तादाद में अब  बँगला देश से ही आती है ....जहाँ इसे 'राष्ट्रीय मीन' का गौरव मिला हुआ है .मगर इसकी खपत पश्चिम बंगाल में बहुत अधिक है जहां जुलाई -सितम्बर के बीच यह १०० टन  प्रतिदिन तक पहुँच जाती है ...
हिलसा के लिए यमदूत  बन गया फरक्का बाँध 

..पश्चिम बंगाल में हिलसा की खपत का ७० फीसदी बंगलादेश से और बाकी स्थानीय स्रोतों ,दीघा और मुम्बई के डायमंड हार्बर से आता है . आज भले ही भारत में हिलसा की इतनी कमी हो गयी हो मगर हमेशा ऐसा नहीं था -सारी मुश्किल शुरू हुयी फरक्का बान्ध के १९७५ में वजूद में आने   से जिसके बाद हिलसा ही नहीं महाझींगा मात्स्यिकी का उत्तर -पूर्वी भारत की नदियों से लगभग सफाया ही हो गया क्योकि इस बाँध में मछलियों के समुद्र(बंगाल की  खाड़ी ) से इस पार आने के लिए समुचित 'फिश वेज' या 'फिश पासेस/सीढियां ' नहीं बनाए गए और विशालकाय ऊंचे बाँध  को लांघ कर हिलसा या महाझींगा का प्रवास गमन कर नदियों तक आ  प्रजनन करना लगभग अवरुद्ध हो गया -दोनों प्रजातियाँ समुद्र से उल्टा चलकर प्रजनन काल में गंगा नदी और जुडी नदी प्रणालियों में आ जाती थीं -और प्रजननं के बाद बेशुमार बच्चे वापस  लौट जाते ..

फरक्का बाँध बन जाने से इन प्रजातियों का पूरा प्रवास गमन ही रुक गया लिहाजा इनका पूरा व्यवसाय ही नष्ट हो गया -यह एक उदाहरण ही बाताता है कि कैसे यहाँ  विभिन्न अनुशासनों के विशेषज्ञों के बीच तालमेल का घोर अभाव है और एक दूसरे के विचारों के प्रति असहिष्णुता ..बांध निर्माण की ये गलतियां रूस में नहीं अपनाई गयीं -अमेरिका में इसके ऐसे मामलों की जानकारी होते ही सामन मछलियों की राह के रोड़े बने   बांधों को तोड़  दिया गया और मत्स्य विशेषज्ञों की देख देख रेख में फिर से बांधों का निर्माण हुआ ....मगर भारत में गंगा नदी की पूरी की पूरी हिलसा और महाझींगा मात्स्यिकी का सफाया हो गया और राजनीतिक इच्छा शक्ति का इतना बड़ा अभाव कि आज हम हिलसा की भीख बांग्लादेश से मांगने को अभिशप्त हैं मगर फरक्का डैम में आवश्यक पुनर्निर्माण नहीं करा पाए हैं और अब तो पानी भी सर के काफी ऊपर जा चुका है .
क्या अब भी हमारे प्रधानमंत्री हिलसा की यह दर्दीली दास्ताँ सुनेगें ? 

Thursday, 18 August 2011

जियो जियोमेडिसिन!

किस चक्की का आटा खाते हो मियाँ,क्या सेहत पायी है! फलां जगह का पानी हमें बहुत सूट करता है ..जब से मुम्बई आया हूँ हाल बेहाल है मेरा पेट ही ठीक नहीं रहता -यह एक आम बातचीत का हिस्सा है जो हमें गाहे बगाहे सुनायी देता  रहता है .यानि आबो हवा ,परिवेश/पर्यावरण  से स्वास्थ्य का नाता जरुर है ....बिलकुल, इसी बात पर अब  चिकित्सा वैज्ञानिकों की भी मुहर लग गयी है .एक नयी चिकित्सा पद्धति का आगाज हो चुका है जिसे जियो मेडिसिन कहा जा रहा है .मतलब अब आपके स्वास्थ्य और रोगों की जांच में आपके भौगोलिक पर्यावरण के बारे में भी जानकारी ली जायेगी ...और तदनुसार प्रभावी निदान (डायिग्नोसिस) किया जाएगा!इसके लिए जी आई एस यानि जियोग्राफिक इन्फार्मेशन सिस्टम से युक्त एक साफ्टवेयर का प्रयोग आरम्भ हो चुका है जिसे इसरी (Esri)का नाम दिया गया है .
इसी इसरी प्रोग्राम से जुड़े हैं बिल डावेनहाल जिनसे इस नए चिकित्सा निदान पर अभी अभी एक  साक्षात्कार विज्ञान कार्यक्रमो के  अर्थस्काई नामक मशहूर बेबसाईट पर प्रकाशित हुआ है .जैसे चिकित्सक किसी भी रोगी की केस हिस्ट्री में उसके पारिवारिक इतिहास में रोगों की मौजूदगी .खुद उसके अतीत के रोगों ,खान पान की जानकारी लेते हैं अब यह नयी निदान -उपचार प्रणाली उसके परिवेश /वातावरण की भी जानकारी इकठ्ठा करके चिकित्सक को उपलब्ध करायेगी जिससे रोग के निदान और उपचार का कोर्स बेहतर तरीके से नियत किया जा सके.अपनी खुद की 'प्लेस हिस्ट्री' जानने के लिए इसरी का यह  कार्यक्रम अमेरिका में तो काफी लोकप्रिय हो रहा है!जाहिर है भारत में भी देर सवेर यह जुगत चिकित्सकों की मददगार साबित होगी .

चिकित्सीय निदान और उपचार की इस पद्धति में इन्विरानमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी (ई पी ऐ ) रोगी से सम्बन्धित पर्यावरण से जुड़े अनेक मानदंडों -प्रदूषकों की मौजूदगी,दीगर स्वास्थ्य कारकों की महत्वपूर्ण जानकारी में मदद कर रही है ...इस मामले में न्यूयार्क  के कुख्यात  लव कैनाल हादसे का हवाला दिया गया है जहाँ रेडियोधर्मी और अन्य विषाक्त तत्वों के विशाल डंपिंग ग्राउंड को पाट   कर उस पर एक आकर्षक लव कैनाल कालोनी बना दी गयी थी ..बाद में लोगों में अजीबोगरीब बीमारियाँ दिखनी शुरू हुयी ....और रोगियों के गुणसूत्र तक प्रभावित हो चले ....अब वह कालोनी ढहाई जा चुकी है मगर वहां से विस्थापित लोगों में अधिकाँश कैलीफोर्नियाँ में हैं और वहां की अगली पीढी में कुछ रोगों की बारम्बारता पर जब उनका स्थानिक इतिहास (प्लेस हिस्ट्री ) खंगाला गया तो लव कैनाल का मामला फ़ौरन   पकड़ में  आ गया -इलाज आसान हो गया!  
आप इस विषय पर और विस्तार से यहाँ जानकारी ले सकते हैं ...चिकित्सा की इस नव मुखरित जानकारी को हम तो यही कह सकते हैं जियो जियोमेडिसिन! 


Sunday, 17 July 2011

तोते अपने बच्चों को उनके नाम से पुकारते हैं

तोते आवाजों की नक़ल में उस्ताद तो हैं ही ,अब यह भी पता चला है कि वे अपने बच्चों का बाकायदा नामकरण करते हैं और उन्हें उन्ही नामों से पुकारते भी हैं .कार्नेल विश्वविद्यालय में वेनेजुएला के जंगलों में पाए जाने वाले हरी कूबड़ के तोतों पर हुए इस अध्ययन से पक्षी -प्रतिभा और व्यवहार की यह हैरतन्गेज जानकारी हुयी है .
प्रोसीडिंग्स आफ द  रायल सोसायटी बी के अभी हाल के अंक (१३ जुलाई ,२०११) में इस अध्ययन की रिपोर्ट आयी है .

यह पाया गया है कि हरे कूबड़ वाले तोतों की इस प्रजाति जो अपेक्षाकृत छोटे तोतों की एक प्रजाति है -६ से ७ अंडे अपने घोसलों में देती है और करीब एक पखवारे में इनसे बच्चे निकल आते हैं जो बहुत असहाय से होते हैं ...आपको पता होगा कि पक्षी जगत में दो तरह के बच्चे /चूजे जन्मते हैं -एक तो अंडे से बाहर निकलते ही दौड़ने भागने वाले 'प्रीकासिअल' और दूसरे असहाय से एक मांस लोथड़े के सदृश पड़े रहने वाले 'ऐलट्रिसीयल '....तोते इस दूसरे तरह के बच्चे देते हैं ....अध्येता कार्ल बर्ग कहते हैं कि ये तोते मनुष्य की भांति एक ख़ास अलग अलग "वोकल सिग्नेचर टोन "  से अपने बच्चों को बुलाते हैं और वे बच्चे भी उन्ही ध्वनि पैटर्न को अपने नाम के रूप में याद रखते हैं ! 
Green-rumped parrotlets from Venezuela. Image credit: Nicholas Sly

वैज्ञानिक बर्ग मनुष्य और तोतों के इस शिशु नामकरण व्यवहार के कई साम्यों की जिक्र करते हैं -मनुष्य -शिशु भी लम्बे समय तक असहाय से होते हैं और ये तोते के बच्चे भी -नाम से इनके संबोधन से दैनंदिन के इनके लालन पालन में इनके ध्यान के आकर्षण में सुभीता हो जाती है -तोते भी मनुष्य के बच्चों की तरह अपना नाम ताउम्र याद रखते हैं .उनके मां बाप  भी अपने बच्चों के नाम याद रखते हैं -और मां बाप ही नहीं  कुनबे के दूसरे लोग भी बच्चों को और उनके बड़े होने पर भी उनके नाम से संबोधित करते हैं -यह बात मनुष्य और तोते में कामन है ! है न मजेदार बात ? 


कोई आश्चर्य नहीं, मानव आबादी के निकट  रहने वाले तोते अपने मित्र और शत्रु मानवों का भी नामकरण न कर देते हों -कनवां,मर्कहवा ,कलूटवा,कलमुहिया टाईप नाम -क्या आप इस विषय पर शोध करना चाहेगें ? 


Wednesday, 22 June 2011

विज्ञान संचार के लिए ब्लागिंग लिटरैसी

 विगत दिनों (२० जून २०११) को पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में विज्ञान क्लब ने एक अनूठा कार्यक्रम आयोजित किया ..."विज्ञान संचार के लिए ब्लागिंग लिटरैसी" ..इस कार्यक्रम में छात्रों को ब्लागिंग के गुर बताये गए और अभिव्यक्ति के इस नए माध्यम को कैसे विज्ञान संचार के लिए उपयोग में लाया जाय इसकी भी जानकारी दी गयी .....भारत में ऐसे कार्यक्रमों की शुरुआत यहाँ आम जन में वैज्ञानिक नजरिये के विकास के लिहाज से एक स्वागत योग्य कदम है ...भारत में साईंस ब्लागिंग की शुरुआत साईंस ब्लागर्स असोसिएशन से हुई और यह समूचे विश्व में भारत की एक पहल थी ....वैसे अब अंतर्जाल पर साईंस ब्लागिंग के कई निजी ,व्यक्तिपरक  प्रयास तो हैं मगर अब भी इस देशा में संगठित सामूहिक प्रयास कम ही हैं ....अब विज्ञान चिट्ठाकारिता का दायरा बस अन्तर्जाल के आभासी संचार तक ही सीमित नहीं रह गया है। विज्ञान चिट्ठों से जुड़ी गतिविधियों की धमक अन्तर्जाल से बाहर भी पहुँच रही है जिसके परिणाम हैंसांइस ब्लॉगिंग से जुड़े कई ऐसे सेमिनार, परिचर्चायें और कार्यशालाएं   ....

वैज्ञानिक चिन्तन के यज्ञ में नई जानकारियों और नजरिये के हविदान के लिए विज्ञान ब्लॉग श्रेष्ठ संचार माध्यम बन चले हैं। ये अन्तर्जाल युग के विज्ञान यज्ञ में हविदानकर्ता ब्लागर की सदैव सजग उपस्थिति के द्योतक भी हैं। विज्ञान ब्लॉग समाज सेवा की दीगर गतिविधियों की ही तरह `विज्ञान सक्रियकों´ की एक नई जमात को प्रोत्साहित कर रहे हैं। ये समाज में व्याप्त अन्धविश्वास,और जड़ता के खिलाफ एक पुरजोर अभियान के रुप में सामने आ रहे हैं। यह विज्ञान की सामाजिक सक्रियता (Pro-Science activism) की एक मिसाल हैं।
विज्ञान क्लब देवरिया के संयोजक अनिल त्रिपाठी ने आयोजित की साईंस ब्लागिंग कार्यशाला 

अब ऐसा लग रहा है कि साइंस ब्लॉगिंग `विज्ञान के अन्तर्राष्ट्रीयकरण´ का भी तेजी से मार्ग प्रशस्त कर रही है जो `विज्ञान के संचार´  के परम्परागत ढ़ाँचे  में आमूल चूल परिवर्तन ला देगी। विज्ञान की आम समझ तो बढ़ेगी ही वैज्ञानिकों और आम लोगों के बीच की खाई भी पटती जायेगी। इसके चलते जहाँ कई स्थानिक मुद्दे वैश्विक ध्यानाकर्षण की परिधि में आ जायेंगे वहीं कई ग्लोबल मुद्दे स्थानीय परिप्रेक्ष्यों में प्रासंगिक हो सकेंगे। यह स्थानीय मुद्दों को वैश्विक नजरिये से हल करने के `ग्लोकल´ (ग्लोबल + लोकल=ग्लोकल) दृष्टिकोण का भी मार्ग प्रशस्त करेगा।

दरअसल पाठकों/उपभोक्ताओं के लिए ब्लॉग पत्रकारिता की दुतरफा संवाद सुविधा पारम्परिक विज्ञान पत्रकारिता में सहज रुप से सम्भव नहीं रही है। जानकारियों को शीघ्रता से अद्यतन करते रहने और पाठकों के लिए हर वक्तहर जगह (घर से कार्य स्थान तक कहीं भी) सहज ही ब्लॉग उपलब्ध हैंयहाँ तक मोबाइल के जरिये भी।

 विज्ञान ब्लॉगिरी (या ब्लॉगरी) की छतरी में ये सभी घटक सहज ही समाहित हो सकते हैं। इसी तरह ब्लाग वैयक्तिक यानि एक व्यक्ति संचालित या साझा यानि कई लोगों द्वारा मिलकर संचालित हो सकते हैं। देवरिया में सम्पन्न कार्यक्रम के प्रतिभागियों को ब्लागिंग साक्षरता का पाठ पढाया गया ..  विज्ञान संचार का एक नया (ब्लागिरी) युग आरम्भ हो गया है। जहाँ एक पाठक ही नहीं एक ब्लागर की हैसियत से भी आपका सिक्का जम सकता है।क्या आपकी रूचि साईंस ब्लागिंग में है?

भारत में ऐसी  शुरुआत सांइस ब्लॉगर सोसियेशन  से हो चुकी है जो सम्भवत विश्व में विज्ञान ब्लागरों को एक मंच पर लाने का  अनूठा  पहला प्रयास था ।हमें ऐसे सहयोगियों /फंडिंग एजेंसियों की मदद की दरकार है जो विज्ञान ब्लागिंग के जरिये भारत के विभिन्न प्रान्तों में विज्ञान संचार की मुहिम चला सकें ....कोई सरकारी या गैर सरकारी संस्था  मदद को आगे आयेगी?