घर घर तक जाकर रुपयों के लेन देन की और लघु वित्तीयन को बढ़ावा देने के लिए सूचना और कम्प्यूटर प्रौद्योगिकी की नई पेशकश का नाम है -फिनो -फायिनेशिअल इन्फार्मेशन नेटवर्क एंड आपरेशन लिमिटेड -जिसकी शुरुआत अब सूदूर ग्रामीण अंचलों में भी हो चुकी है .आम लोगों में यह फिनो के नाम से ही जानी जा रही है .वास्तव में तो यह एक संस्था है जो गाँव गाँव जाकर बैंकिंग सुविधा उपलब्ध कराने को कृत संकल्प है .
फिनो एक स्मार्ट कार्ड मुहैया करा रहा है जिस पर उपभोक्ता की दसों उँगलियों की डिजिटल छाप मौजूद होती है -जब कोई भुगतान लेना देना होता है तो फिनो की ओर से फेरी कर रहे बैंक कर्मी एक पाईंट आफ सेल -पी ओ एस मशीन में उपभोक्ता का स्मार्ट कार्ड डालते हैं -उँगलियों का सत्यापन कराते हैं और फिर लेंन देंन का काम शुरू हो जाता है .आम बोलचाल की भाषा में यह पास मशीन कही जा रही है -कार्यविधि सरल है और गाँव के अनपढ़ लोगों में भी तेजी से लोकप्रिय हो रही है -अभी बनारस से सटे चंदौली जिले के सुरतापुर गाँव में यह सेवा आर बी आई के डिप्टी गवर्नर डॉ .के सी चक्रवर्ती ने आरंभ कराई है .यह ग्राम्य क्षेत्रों में छोटे छोटे कर्जों को देने और व्यवसाय को प्रेरित करने में एक वरदान साबित होगी -ध्यान रहे बांगला देश में नोबेल विजेता मुहम्मद यूसुफ़ ने माईक्रो फाईनेंस के जरिये ही एक सामाजिक -आर्थिक क्रांति ला दी है .
बैंकिंग के लाभों से कोई भी अछूता न रहे फिनो इसलिए कृतसंकल्प है .यह तकनीक सुरक्षित है -पी ओ एस मशीन रहेगी तो गाँव या लक्षित जगह पर मगर जुडी रहेगी मुम्बई स्थित बैंक के सर्वर से -अंगुलि छाप के चलते कोई किसी दूसरे के नाम पर लेन देन नही कर सकेगा .
Science could just be a fun and discourse of a very high intellectual order.Besides, it could be a savior of humanity as well by eradicating a lot of superstitious and superfluous things from our society which are hampering our march towards peace and prosperity. Let us join hands to move towards establishing a scientific culture........a brave new world.....!
Sunday, 14 March 2010
Friday, 12 March 2010
क्या सचमुच महिलायें एक बेहतर अन्तरिक्ष यात्री बन सकती हैं?
सांद्रा मैग्नस जो एक महिला अन्तरिक्ष यात्री रही हैं के अंतिरक्ष से की गयी ब्लागिंग पर हमने कुछ समय पहले लिखा था .एक खबर चीन से है जिसने महिला अन्तरिक्ष यात्री के चुनाव की घोषणा की है .चीन के समानव अन्तरिक्ष अभियान के डिप्टी कमांडर झेंन जियांगी ने ने एक साक्षात्कार में बताया है कि "हमने चयन में नारी और पुरुष अन्तरिक्ष यात्रियों के लिए समान ही मानदंड रखे ,बस केवल अंतर रहा कि हमने विवाहित महिला अन्तरिक्ष यात्री को प्राथमिकता दी है क्योंकि हम जानते हैं कि विवाहितायें शारीरिक और मानसिक तौर पर ज्यादा सुदृढ़ होती हैं " उन्होंने आगे जोड़ा कि " सहन क्षमता और चौकसी में भी महिला अन्तरिक्ष यात्री ज्यादा सफल होंगी!" क्या वाकई ?
सबसे पहली अन्तरिक्ष यात्री थीं रूस की वैलेन्ताइना टेरेस्कोवा (१९६३)-अमेरिकी महिला अन्तरिक्ष यात्रिओं का सिलसिला १९८३ से शुरू हुआ और अब तक कई अमेरिकी महिलाएं अन्तरिक्ष यात्री बन चुकी हैं -यह आशंका हमेशा रही है कि अन्तरिक्ष के विकिरण प्रजनन प्रणाली पर विपरीत प्रभाव डाल सकते हैं इसलिए विवाहिता के ही अन्तरिक्ष यात्रा के लिए चयनित करने पर सहमति रही है यद्यपि अन्तरिक्ष यात्राओं के बाद भी कई महिला अन्तरिक्ष यात्री स्वस्थ बच्चों को जन्म दे चुकी हैं .अभी चीन ने दो भावी महिला अन्तरिक्ष यात्रिओं का चयन तो किया है मगर उनका नाम पता गुप्त रखा है .
इंग्लैण्ड का गार्जियन अखबार अपने ऑनलाइन संस्करण में इन दिनों एक रायशुमारी करा रहा है कि क्या सचमुच महिलायें एक बेहतर अन्तरिक्ष यात्री बन सकती हैं,क्योंकि माना जा रहा है कि वे बेहतर संचार की कुशलता और अकेलेपन से निपटने की क्षमता भी रखती हैं.जहाँ २७.१ प्रतिशत लोगों ने यह कहा है कि सचमुच ऐसा ही है जबकि ७२.९ प्रतिशत लोगों के विचार है कि "जेंडर मेक्स नो डिफ़रेंस !" आपका का क्या ख्याल है ?
सबसे पहली अन्तरिक्ष यात्री थीं रूस की वैलेन्ताइना टेरेस्कोवा (१९६३)-अमेरिकी महिला अन्तरिक्ष यात्रिओं का सिलसिला १९८३ से शुरू हुआ और अब तक कई अमेरिकी महिलाएं अन्तरिक्ष यात्री बन चुकी हैं -यह आशंका हमेशा रही है कि अन्तरिक्ष के विकिरण प्रजनन प्रणाली पर विपरीत प्रभाव डाल सकते हैं इसलिए विवाहिता के ही अन्तरिक्ष यात्रा के लिए चयनित करने पर सहमति रही है यद्यपि अन्तरिक्ष यात्राओं के बाद भी कई महिला अन्तरिक्ष यात्री स्वस्थ बच्चों को जन्म दे चुकी हैं .अभी चीन ने दो भावी महिला अन्तरिक्ष यात्रिओं का चयन तो किया है मगर उनका नाम पता गुप्त रखा है .
इंग्लैण्ड का गार्जियन अखबार अपने ऑनलाइन संस्करण में इन दिनों एक रायशुमारी करा रहा है कि क्या सचमुच महिलायें एक बेहतर अन्तरिक्ष यात्री बन सकती हैं,क्योंकि माना जा रहा है कि वे बेहतर संचार की कुशलता और अकेलेपन से निपटने की क्षमता भी रखती हैं.जहाँ २७.१ प्रतिशत लोगों ने यह कहा है कि सचमुच ऐसा ही है जबकि ७२.९ प्रतिशत लोगों के विचार है कि "जेंडर मेक्स नो डिफ़रेंस !" आपका का क्या ख्याल है ?
Monday, 8 March 2010
नर नारी समानता का आख़िरी पाठ
हमने अभी तक देखा कि गुफाकाल से ही नर नारी के कार्य विभाजनों में फर्क के बावजूद भी उनके बीच सामाजिक स्तर का कोई फर्क नहीं था बल्कि पुरुषों की तुलना में नारियां एक समय में एक साथ ही कई कामों का कुशलता से संचालन करती थीं और उनकी यह क्षमता आज भी विद्यमान है. जबकि अमूमन पुरुष एक समय में किसी एक मुख्य कार्य में ही ध्यानस्थ हो जाता है जो उसके प्राचीन काल की आखेटक प्रक्रति /प्रवृत्ति की ही जीनिक अभिव्यक्ति -शेष है. प्राचीन प्रागैतिहासिक काल में में नर और नारी को तब के कबीलाई समाजों में बराबर का स्थान था बल्कि कहीं कहीं नारी ज्यादा प्रभावी रोल में थी -ईश्वरीय शक्ति से युक्त भी क्योकि वह सृष्टि -सर्जक थी -प्रजनन और संतति संवहन की मुख्य अधिष्ठात्री -यही कारण था कि पहले के कितने समाज मातृसत्तात्मक भी थे-नारियों की तूती बोलती थी और यहाँ तक कि ईश्वर का आदि स्वरुप भी खुद ममत्व का ,नारी का ही था -आदि शक्ति रूपी देवियाँ पहले प्रादुर्भाव में आयीं -अगर हम खुद अपने सैन्धव सभ्यता की बात करें तो भी यही इंगित होता है कि तत्कालीन समाज में नारी का स्थान ऊंचा था और आर्यों से पराजित और पुरुषों का समूह संसार होने के बाद आर्यों द्वारा पोषित वैदिक संस्कृति में भी नारी पूर्व की ही भांति प्रतिष्ठित बनी रही -वैदिक काल की अनेक ऋषि पत्नियों का सम्मान जनक उल्लेख हमें इसकी याद दिलाता है -यहाँ विस्तार विषय से विचलन हो जायेगा .. अस्तु ...मगर कालांतर में स्थितियां बदलीं और तेजी से बदलती रहीं.
नर नारी की समानता का संतुलन तब डगमगाता गया जब मानव जनसंख्या तेजी से बढी ,नगर और कस्बे बढ़ते चले गए और कबीलाई मानव नागरिक बनने लग गया -मानवीय संदर्भ में एक नए सांस्कृतिक विकास की देंन -धर्म (रेलिजन ) के बढ़ते प्रभावों ने अब कई विकृतियों को जन्म देना शुरू किया -नागरीकरण और धर्म के मिलेजुले अजीब सम्बन्धों ने आदि शक्ति स्वरूपा देवियाँ को विस्थापित कर देव -देवताओं को केंद्र में लाना शुरू किया -ममत्व की जीवंत मूर्तियाँ अब अधिकारवादी पुरुष देवों में बदलती गयीं -स्त्रीलिंग ईश्वर अब पुल्लिंग बन गया था! आदर्श हिन्दू जीवन शैली जो आज भी सैन्धव और आर्य संस्कृति का समन्वय किये हुए है आदि शक्ति रूपी देवियों और आदि देवों के बीच समान साहचर्य ,समान श्रद्धा की ही पोषक बनी हुई है,किन्तु धर्म के सैद्धांतिक -कर्मकांडी स्वरुप में ही, व्यवहार में स्थिति बदल चुकी है .
लगता है प्रतिशोधी पुरुष देवो ने पूरी दुनिया में ही अपने पवित्र प्रतिनिधियों के जरिये कालांतर में और निरंतर भी खुद की धनाढ्य सत्ता और सुरक्षा को सुनिश्चित करते हुए अपनी पद- प्रतिष्ठा और अनुयायी पुरुष जमात को उच्च सामाजिक स्तर देने का सिलसिला जारी रखा रखा है -नारी की अस्मिता को भी दांव पर लगाते हुए जो उत्तरोत्तर निम्न से निम्नतर सामाजिक स्तर पर पहुँचती रही -उससे उसके सामाजिक उच्चता का वैकासिक जन्मसिद्ध अधिकार भी पुरुष देवताओं के बढ़ते वर्चस्व से छिनता चला गया - दरअसल उसी वैकासिक जन्मसिद्ध अधिकार की पुनर्प्राप्ति के प्रयास के तौर पर नारीवादी आंदोलनों को पहले तो पश्चिम से और अब उचित ही पूर्व से समर्थन मिला है .वे आज अपनी "आदि शक्ति" रूपी सामाजिक सम्मान की वापसी के लिए संघर्षरत हैं -अधिकारों की मांग कर रही हैं .और यह जायज भी है कम से कम भारतीय मनीषा के लिए तो अवश्य ही! देर सवेर उन्हें यह प्राप्त होकर ही रहेगा .मगर इन आंदोलनों को सही परिप्रेक्ष्य और स्पष्ट लक्ष्य की ओर संचालित होना होगा .वे कुछ भी नया नहीं मांग रही हैं बल्कि वास्तविकता तो यही है कि वे अपनी उसी खोयी हुई प्रतिष्ठा और ताकत की पुनर्वापसी चाहती हैं जो उन्हें अपने आदिकाल की भूमिका में प्राप्त था -स्वप्न साकार होने लग गए हैं!
नर नारी की समानता का संतुलन तब डगमगाता गया जब मानव जनसंख्या तेजी से बढी ,नगर और कस्बे बढ़ते चले गए और कबीलाई मानव नागरिक बनने लग गया -मानवीय संदर्भ में एक नए सांस्कृतिक विकास की देंन -धर्म (रेलिजन ) के बढ़ते प्रभावों ने अब कई विकृतियों को जन्म देना शुरू किया -नागरीकरण और धर्म के मिलेजुले अजीब सम्बन्धों ने आदि शक्ति स्वरूपा देवियाँ को विस्थापित कर देव -देवताओं को केंद्र में लाना शुरू किया -ममत्व की जीवंत मूर्तियाँ अब अधिकारवादी पुरुष देवों में बदलती गयीं -स्त्रीलिंग ईश्वर अब पुल्लिंग बन गया था! आदर्श हिन्दू जीवन शैली जो आज भी सैन्धव और आर्य संस्कृति का समन्वय किये हुए है आदि शक्ति रूपी देवियों और आदि देवों के बीच समान साहचर्य ,समान श्रद्धा की ही पोषक बनी हुई है,किन्तु धर्म के सैद्धांतिक -कर्मकांडी स्वरुप में ही, व्यवहार में स्थिति बदल चुकी है .
लगता है प्रतिशोधी पुरुष देवो ने पूरी दुनिया में ही अपने पवित्र प्रतिनिधियों के जरिये कालांतर में और निरंतर भी खुद की धनाढ्य सत्ता और सुरक्षा को सुनिश्चित करते हुए अपनी पद- प्रतिष्ठा और अनुयायी पुरुष जमात को उच्च सामाजिक स्तर देने का सिलसिला जारी रखा रखा है -नारी की अस्मिता को भी दांव पर लगाते हुए जो उत्तरोत्तर निम्न से निम्नतर सामाजिक स्तर पर पहुँचती रही -उससे उसके सामाजिक उच्चता का वैकासिक जन्मसिद्ध अधिकार भी पुरुष देवताओं के बढ़ते वर्चस्व से छिनता चला गया - दरअसल उसी वैकासिक जन्मसिद्ध अधिकार की पुनर्प्राप्ति के प्रयास के तौर पर नारीवादी आंदोलनों को पहले तो पश्चिम से और अब उचित ही पूर्व से समर्थन मिला है .वे आज अपनी "आदि शक्ति" रूपी सामाजिक सम्मान की वापसी के लिए संघर्षरत हैं -अधिकारों की मांग कर रही हैं .और यह जायज भी है कम से कम भारतीय मनीषा के लिए तो अवश्य ही! देर सवेर उन्हें यह प्राप्त होकर ही रहेगा .मगर इन आंदोलनों को सही परिप्रेक्ष्य और स्पष्ट लक्ष्य की ओर संचालित होना होगा .वे कुछ भी नया नहीं मांग रही हैं बल्कि वास्तविकता तो यही है कि वे अपनी उसी खोयी हुई प्रतिष्ठा और ताकत की पुनर्वापसी चाहती हैं जो उन्हें अपने आदिकाल की भूमिका में प्राप्त था -स्वप्न साकार होने लग गए हैं!
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Saturday, 6 March 2010
नर नारी समानता का अगला पाठ
हमने नर नारी समानता के कतिपय मूलभूत समाज जैविकीय पहलुओं को पिछले दिनों जांचा परखा .अब आगे . पश्चिम से शुरू हुए नारीवादी आंदोलनों के बाद /बावजूद आज भी सारी दुनिया के कई हिस्सों में नारी पुरुष की " प्रापर्टी " और उससे निम्न दर्जे की मानी जाती है -और यह निश्चित ही दुखद है - आज भी नारी समानता के लिए किये गए जेनुईन प्रयासों का का प्रभाव नही दिखता -एक व्यवहारविद के लिए भी यह ट्रेंड उलझन में डालने वाला है कि लाखो वर्षों तक चलने वाले मानव विकास के दौरान ऐसा तो कभी नहीं था कि नारी पुरुष से कभी हीनता की स्थिति में रही हो -हाँ कार्य /श्रम विभाजन की दृष्टि से उनमें बटवारा तो था मगर अपने क्षेत्रों में तो ये दोनों ही श्रेष्ठ और निष्णात थे-इसलिए ही कालांतर के चिंतकों द्वारा भी बार बार यह कहा गया कि मानव जीवन रूपी रथ में नर नारी की भूमिका पहिये के समान ही है -और इनमें कोई छोटा या बड़ा नहीं हो सकता ,दोनों समान हैं .
हमारे आदिम कार्य विभाजन में पुरुष एक दैनिक और दिन भर का माने दिहाड़ी गृह त्यागी आखेटक था मगर सामाजिक जीवन की धुरी के रूप में स्त्रियाँ ही थीं जो अपने घर परिवार की देखभाल -दोनों पहर के भोजन की व्यवस्था ,बच्चों का पालन पोषण और कबीलाई बसाहट की साफ़ सफाई में लगी रहती थीं -जहाँ आखेट प्रबंध के चलते पुरुष की एक समय में केवल एक काम पर ध्यान में बेहतरी होती गयी वहीं नारियां उत्तरोत्तर एक समय में एक साथ ही कई कामों को समान गुणवता के साथ सँभालने में दक्ष होती चली आई हैं -वे मल्टी टास्कर हैं -और इसका अनुभव मुझे भी गाहे बगाहे शिद्दत के साथ होता रहा है -एक रोचक और अंतर्जाल जगत से ही उदाहरण दूं -जहाँ बहुत से पुरुष जिसमें मैं भी सम्मिलित हूँ ही अंतर्जाल पर मानो टांग तोड़ कर बैठे रह जाते हैं -ब्लागिंग में मुब्तिला हो जाने पर उन्हें कुछ और नहीं सूझता (हाऊ पूअर न ? ) ठीक उसी समय अंतर्जाल प्रेमी नारियां एक साथ ही कई काम निपटाती रहती हैं -घर परिवार की देखभाल -खाना पीना ,चाय पानी ,आदि आदि -हमें उनसे चैटिंग करते समय भी यह अंदाजा नही रहता के उधर क्या क्या पापड बेले जा रहे हैं या कौन सी खिचडी पक रही है-मेरी तो एक महिला मित्र से इसे लेकर तक झक भी होती रहती है मगर मैं मंद मंद मुस्कराता भी रहता हूँ उनके इस नैसर्गिक और प्रणम्य क्षमता को जनता जो हूँ -प्रगटतः कहने या प्रशंसा करने की आदत नहीं है इसलिए कहता नहीं .जाहिर हैं नारी इस मामले में तो निश्चित ही बेजोड़ है कि वह एक समय में एक साथ कई समस्याओं को संभाल सकती है -टैकल कर सकती है पुरुष ऐसी क्षमता अब सीखने लग गया है पर नारी की तुलना में बहुत कमजोर है .अ पूअर सोल ! हा हा !
नर नारी पारस्परिक व्यक्तिव का यह अंतर आज भी बहुत स्पष्ट और प्रामिनेंट है .सांस्कृतिक विकास के पहले एक लिंग दूसरे पर हावी रहा हो ऐसा तो कतई नहीं था . वे अस्तित्व की रक्षा के लिए एक दूसरे पर हमेशा निर्भर रहे .मानव उभय लिंगों में एक यह आदिम संतुलन तो रहा ही है कि वे समान रहे मगर अलग अलग से ...
मगर फिर ऐसा क्या होता गया कि नारी पर पुरुषों का अनुचित अधिपत्य शुरू हुआ ? कब से और क्यूं ??यह चर्चा हम आगे के लिए मुल्तवी करते हैं .....
हमारे आदिम कार्य विभाजन में पुरुष एक दैनिक और दिन भर का माने दिहाड़ी गृह त्यागी आखेटक था मगर सामाजिक जीवन की धुरी के रूप में स्त्रियाँ ही थीं जो अपने घर परिवार की देखभाल -दोनों पहर के भोजन की व्यवस्था ,बच्चों का पालन पोषण और कबीलाई बसाहट की साफ़ सफाई में लगी रहती थीं -जहाँ आखेट प्रबंध के चलते पुरुष की एक समय में केवल एक काम पर ध्यान में बेहतरी होती गयी वहीं नारियां उत्तरोत्तर एक समय में एक साथ ही कई कामों को समान गुणवता के साथ सँभालने में दक्ष होती चली आई हैं -वे मल्टी टास्कर हैं -और इसका अनुभव मुझे भी गाहे बगाहे शिद्दत के साथ होता रहा है -एक रोचक और अंतर्जाल जगत से ही उदाहरण दूं -जहाँ बहुत से पुरुष जिसमें मैं भी सम्मिलित हूँ ही अंतर्जाल पर मानो टांग तोड़ कर बैठे रह जाते हैं -ब्लागिंग में मुब्तिला हो जाने पर उन्हें कुछ और नहीं सूझता (हाऊ पूअर न ? ) ठीक उसी समय अंतर्जाल प्रेमी नारियां एक साथ ही कई काम निपटाती रहती हैं -घर परिवार की देखभाल -खाना पीना ,चाय पानी ,आदि आदि -हमें उनसे चैटिंग करते समय भी यह अंदाजा नही रहता के उधर क्या क्या पापड बेले जा रहे हैं या कौन सी खिचडी पक रही है-मेरी तो एक महिला मित्र से इसे लेकर तक झक भी होती रहती है मगर मैं मंद मंद मुस्कराता भी रहता हूँ उनके इस नैसर्गिक और प्रणम्य क्षमता को जनता जो हूँ -प्रगटतः कहने या प्रशंसा करने की आदत नहीं है इसलिए कहता नहीं .जाहिर हैं नारी इस मामले में तो निश्चित ही बेजोड़ है कि वह एक समय में एक साथ कई समस्याओं को संभाल सकती है -टैकल कर सकती है पुरुष ऐसी क्षमता अब सीखने लग गया है पर नारी की तुलना में बहुत कमजोर है .अ पूअर सोल ! हा हा !
नर नारी पारस्परिक व्यक्तिव का यह अंतर आज भी बहुत स्पष्ट और प्रामिनेंट है .सांस्कृतिक विकास के पहले एक लिंग दूसरे पर हावी रहा हो ऐसा तो कतई नहीं था . वे अस्तित्व की रक्षा के लिए एक दूसरे पर हमेशा निर्भर रहे .मानव उभय लिंगों में एक यह आदिम संतुलन तो रहा ही है कि वे समान रहे मगर अलग अलग से ...
मगर फिर ऐसा क्या होता गया कि नारी पर पुरुषों का अनुचित अधिपत्य शुरू हुआ ? कब से और क्यूं ??यह चर्चा हम आगे के लिए मुल्तवी करते हैं .....
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Thursday, 4 March 2010
नर नारी समानता का दूसरा पाठ!
कल हमने बात की थी कि वयस्क पुरुष व्यवहार जहाँ आज भी बचपन की मासूमियत और जोखिम उठाने की विशेषताये लिए हुए है वहीं वयस्क नारी आकृति बाल्य साम्य अपनाए हुए है! नारी आकृति और पुरुष की आकृति में एक बड़ा फर्क प्राचीन वैकासिक काल से ही रहा है -प्राचीन काल के श्रम विभाजन ,जहां पुरुष एक कुशल आखेटक बन चुका था ,के चलते पुरुष को शरीर से ज्यादा मजबूत बनना था ,एथलीट माफिक जिससे उसे शिकार करने की दक्षता हासिल हो सके . नारी और पुरुष की आकृतियों का यह अंतर आज भी विद्यमान है .औसत पुरुष के शरीर में जहां पेशियों का वजन २८ किलो होता है वहीं औसत नारी में पेशियाँ कुल १५ किग्रा ही होती हैं .टिपिकल पुरुष शरीर टिपिकल नारी शरीर से तीस फीसदी ज्यादा सशक्त,१० फीसदी ज्यादा भारी ,सात फीसदी ज्यादा उंचा होताहै .मगर नारी शरीर पर चूंकि गर्भ धारण का जिम्मा होता है अतः उसे भुखमरी की स्थितियों से बचाने के कुदरती उपाय के बतौर २५ फीसदी चर्बी उसे अधिक मिली होती है जो पुरुष में मात्र १२.५ फीसदी ही होती है .
बस इसी चर्बी (puppy - fat ) की अधिकता के चलते नारी आकृति का बाल -साम्य लम्बे समय तक बना रहता है .चर्बीयुक्त अपने गोलमटोल शरीर से बच्चे बड़े ही क्यूट लगते हैं -ऐसे बच्चों को देखते ही सहज ही उनकी ओर देखरेख और सुरक्षा के लिए मन आकृष्ट हो जाता है -व्यवहार शास्त्री इसे "केयर सालिसिटिंग व्यवहार" कहते हैं .कुदरत ने यही फीचर नारी आकृति में लम्बे समय तक रोके रखने की जुगत इसलिए लगाई ताकि वह नर साथी का सहज ही "केयर सालिसिटिंग रेस्पांस " प्राप्त करती रहे -आखिर संतति निर्वहन का बड़ा रोल तो उसी का था /है न ? अब देखिये कुदरत ने किस तरह गिन गिन कर नारी में दूसरे बाल्य फीचर भी लम्बे समय तक बनाए रखने की जुगत लगाई है -
नारी की आवाज की पिच पुरुष की तुलना में कहीं ज्यादा और बच्चे जैसी है -गायिकाएं सहज ही बच्चे की आवाज में पार्श्व ध्वनि दे देती हैं .भारी पुरुष-आवाजें जहां १३०-१४५ आवृत्ति प्रति सेकेण्ड हैं बहीं नारी का यह रेंज २३०-२५५ आवृत्ति प्रति सेकण्ड है .साफ़ है ,नारी आवाज विकास क्रम में अभी भी बाल सुलभता लिए हुए हैं .उनके चेहरे में भी आज भी वही बाल सुलभता दिखती है -जाहिर है पुरुष प्रथमतः सहज ही नारी की ओर किसी विपरीत सेक्स अपील की वजह से नहीं बल्कि अनजाने ही केयर सालिसिटिंग रेस्पांस के चलते आकृष्ट हो जाता है . जैसे किसी बाल मुखड़े को देख वह उसकी देखभाल और रक्षा की नैसर्गिक भावना और तद्जनित लाड- दुलार की भावना के वशीभूत करता हो .नारी की भौंहे ,ठुड्डी ,गाल और नाक सभी में बाल साम्यता आज भी दृष्टव्य है .
इस चित्र को देखकर आपके मन में जो कुछ कुछ हो रहा है वही है केयर सालिसिटिंग रिस्पांस
दरअसल मनुष्य आज भी एक नियोटेनस प्राणी है जो एक वह स्थति है जिसमें विकास के क्रम में जीव अपने लार्वल अवस्था में में ही प्रजननं करने लगते हैं -और यह लार्वावस्था एक स्थाई स्वरुप बन जाता है -मनुष्य आज भी अपनी वयस्क अवस्था में भी लार्वल -बाल्य फीचर्स को अपनाए हुए है जिसके वैकासिक निहितार्थ हैं - ज्यादा बाल्य फीचर्स ज्यादा दुलार! .ज्यादा दुलार तो ज्यादा प्रजाति रक्षा और यह नारियों में पुरुष की तुलना में बहुत अधिक है -भले ही अभिभावक का ज्यादा दुलार बच्चों को कभी कभी बिगाड़ भी देता है मगर वह रक्षित तो रहता ही है -मगर अतिशय दुलार प्रायः बच्चों की शैतानियों को अनदेखा करता रहता है -मगर ऐसा नारियों के परिप्रेक्ष्य में तो नहीं लगता?क्यों ??
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Wednesday, 3 March 2010
नर -नारी समान तो हैं ,मगर अलग से हैं!
पहले ही बोल देता हूँ -यह पोस्ट एक जैवविद के नजरिये से है. आपका मंतव्य अलग भी हो सकता है. इन दिनों मैंने खुद अपने आलोच्य विषयगत अल्प ज्ञान को अद्यतन करने के (नेक ) इरादे से वर्तमान वैश्विक साहित्य संदर्भों को टटोला और कई रोचक बाते सामने आई हैं जिन्हें आपसे साझा करना चाहता हूँ -जो साईब्लाग के पहले से पाठक रहे हैं उनका किंचित पुनश्चरण भी हो जायेगा -यह भी मंशा है (कठिन शब्दों का अर्थ कोई सुधी जन जानना चाहेगें तो दिया जा सकता है! ) .सबसे रोचक बात तो यह है कि आज भी वयस्क पुरुष जहां अपने व्यवहार में बाल्य सुलभता लिए हुए हैं वहीं युवा नारी आकृति की बाल्य साम्यता बरकरार है -आईये जानें कैसे -
पंद्रह वर्ष की अवस्था का किशोर - पुरुष नारी के मुकाबले १५ गुना ज्यादा दुर्घटना सहिष्णु होता है .ऐसा इसलिए है कि वह नारी की तुलना में इस उम्र तक भी बच्चों के खेल खेल में /के जोखिम उठाने की ज्यादा प्रवृत्ति रखता है .यद्यपि उसकी यह वृत्ति उसे खतरों के ज्यादा निकट ले आती है मगर यह उन प्राचीन दिनों की अनुस्मृति शेष है जब नर झुंडों को शिकार की सफलता के लिए अनेक जोखिम उठाने पड़ते थे. शिकारी झुंडों में अमूमन ६-७ पुरुष होते थे-नारियां शिकार झुण्ड में न सम्मिलित होकर घर की जिम्मेदारी उठाती थीं .पुरुषों का काम जोखिम उठाना ही था -और इसमें जन हानि की संभावना भी रहती थी -और इस उत्सर्ग के लिए पुरुष परिहार्य थे-उनके प्रजनक ह्रास के योगदान की उस शिकारी कुनबे के अन्य सदस्यों से प्रतिपूर्ति तो उतनी मुश्किल नहीं थी जितना किसी संतति वाहक नारी का प्राणोत्सर्ग! इसलिए भी नारी का आखेट में जाना अमूमन प्रतिबंधित था .रोचक बातयह है कि कुछ बड़े अपवादों को छोड़ दिया जाय तो कालांतर के युद्धों में भी नारियां नहीं जाती थीं -एक पौराणिक संदर्भ राजा दशरथ का है जिहोने कैकेयी को युद्ध में साथ लिया था और कैकेयी ने अंततः उनकी प्राण रक्षा भी की थी. शिकार या युद्ध में नारियों का ह्रास सीधे आबादी के प्रजननं दर के ह्रास का कारण बन सकता था .हमें ध्यान में रखना होगा कि प्राचीन काल (लाख वर्ष पहले ) में जहाँ आबादी बहुत कम थी -प्रजनन दर का ह्रास सचमुच जीवन मृत्यु का ही प्रश्न था .
अपने कबीलाई काल के केन्द्रीय रोल में नारियां आखेट का काम छोड़कर अन्य किसी काम में खूब प्रवीण थीं -वे घर की देखभाल के साथ कई कामों को एक साथ करने में निपुण होती गयीं और उनकी यह क्षमता आज भी उनके साथ है .वे उत्तरोत्तर एक मल्टी टास्कर के रूप में दक्ष होती गयीं .एक साथ ही कई काम कर लेने की उनकी क्षमता आज भी स्पृहनीय है .उनकी वाचिक क्षमता (गांवों में कभी महिलाओं को झगड़ते देखा है ?) ,घ्राण क्षमता (पति के विवाहेतर सम्बन्धों को सूंघ लेने की क्षमता -हा हा ) ,स्पर्श ,और रंगों की संवेदनशीलता पुरुषों से अधिक विकसित है .वे एक कुशल सेवा सुश्रुषा करने वाली ,ज्यादा वात्सल्यमयी ,और निरोगी(रोग प्रतिरोधी ) बनती गयी हैं .निरोगी होकर वे ज्यादा समर्थ माँ जो होती हैं -संतति वहन का भार उनके कन्धों पर ज्यादा ही है .इस तरह विकास के क्रम में पुरुषों के मस्तिष्क ने बाल्यकाल के जोखिम उठाने के उनकी बाल सुलभ गतिविधियों को नारी के बालिका सुलभ गतिविधियों की तुलना में ज्यादा स्थायित्व दे दिया .
पुरुष जहाँ आज भी ज्यादा कल्पनाशील ,जोखिम उठाऊ और अड़ियल /दुराग्रही/जिद्दी /उद्दंड बना हुआ है नारियां ज्यादा समझदार और ध्यान देने वाली हैं .इन व्यवहारों का साहचर्य एक दूसरे का परिपूरक बनता गया और मनुष्य के विकास का झंडा लहराता आया है .
बहुधन्धी गृह कारज
नर नारी समान तो हैं मगर अलग से हैं -१(जारी... )
पंद्रह वर्ष की अवस्था का किशोर - पुरुष नारी के मुकाबले १५ गुना ज्यादा दुर्घटना सहिष्णु होता है .ऐसा इसलिए है कि वह नारी की तुलना में इस उम्र तक भी बच्चों के खेल खेल में /के जोखिम उठाने की ज्यादा प्रवृत्ति रखता है .यद्यपि उसकी यह वृत्ति उसे खतरों के ज्यादा निकट ले आती है मगर यह उन प्राचीन दिनों की अनुस्मृति शेष है जब नर झुंडों को शिकार की सफलता के लिए अनेक जोखिम उठाने पड़ते थे. शिकारी झुंडों में अमूमन ६-७ पुरुष होते थे-नारियां शिकार झुण्ड में न सम्मिलित होकर घर की जिम्मेदारी उठाती थीं .पुरुषों का काम जोखिम उठाना ही था -और इसमें जन हानि की संभावना भी रहती थी -और इस उत्सर्ग के लिए पुरुष परिहार्य थे-उनके प्रजनक ह्रास के योगदान की उस शिकारी कुनबे के अन्य सदस्यों से प्रतिपूर्ति तो उतनी मुश्किल नहीं थी जितना किसी संतति वाहक नारी का प्राणोत्सर्ग! इसलिए भी नारी का आखेट में जाना अमूमन प्रतिबंधित था .रोचक बातयह है कि कुछ बड़े अपवादों को छोड़ दिया जाय तो कालांतर के युद्धों में भी नारियां नहीं जाती थीं -एक पौराणिक संदर्भ राजा दशरथ का है जिहोने कैकेयी को युद्ध में साथ लिया था और कैकेयी ने अंततः उनकी प्राण रक्षा भी की थी. शिकार या युद्ध में नारियों का ह्रास सीधे आबादी के प्रजननं दर के ह्रास का कारण बन सकता था .हमें ध्यान में रखना होगा कि प्राचीन काल (लाख वर्ष पहले ) में जहाँ आबादी बहुत कम थी -प्रजनन दर का ह्रास सचमुच जीवन मृत्यु का ही प्रश्न था .
अपने कबीलाई काल के केन्द्रीय रोल में नारियां आखेट का काम छोड़कर अन्य किसी काम में खूब प्रवीण थीं -वे घर की देखभाल के साथ कई कामों को एक साथ करने में निपुण होती गयीं और उनकी यह क्षमता आज भी उनके साथ है .वे उत्तरोत्तर एक मल्टी टास्कर के रूप में दक्ष होती गयीं .एक साथ ही कई काम कर लेने की उनकी क्षमता आज भी स्पृहनीय है .उनकी वाचिक क्षमता (गांवों में कभी महिलाओं को झगड़ते देखा है ?) ,घ्राण क्षमता (पति के विवाहेतर सम्बन्धों को सूंघ लेने की क्षमता -हा हा ) ,स्पर्श ,और रंगों की संवेदनशीलता पुरुषों से अधिक विकसित है .वे एक कुशल सेवा सुश्रुषा करने वाली ,ज्यादा वात्सल्यमयी ,और निरोगी(रोग प्रतिरोधी ) बनती गयी हैं .निरोगी होकर वे ज्यादा समर्थ माँ जो होती हैं -संतति वहन का भार उनके कन्धों पर ज्यादा ही है .इस तरह विकास के क्रम में पुरुषों के मस्तिष्क ने बाल्यकाल के जोखिम उठाने के उनकी बाल सुलभ गतिविधियों को नारी के बालिका सुलभ गतिविधियों की तुलना में ज्यादा स्थायित्व दे दिया .
शिकार का जोखिम
बहुधन्धी गृह कारज
नर नारी समान तो हैं मगर अलग से हैं -१(जारी... )
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Thursday, 4 February 2010
पैसे फेको और अपने टूटे फूटे अंग बदलवा लो ....!आ रहा है रेपो मैन!
पैसे फेको और अपने टूटे फूटे अंग बदलवा लो ...जी हाँ यही सन्देश लेकर आने वाली है एक नई साईंस फिक्शन फिल्म रेपो मैन .आप अपने पुराने अंग देकर नए अंग ले सकते हैं और चाहें तो फिर वही पुराना कितनी यादों से सराबोर कोई दिल वापस लेकर किसी दिल के (पुराने ) टुकड़े के पास जाकर फरियाद कर सकते हैं -फिर वही दिल लाया हूँ! ज्यूड ला और फारेस्ट व्हिटकर अभिनीत इस फिल्म में अंग प्रत्यंगों के जो दाम बताये गए हैं वे शायद ही जनता जनार्दन की जेब के लिए मुफीद हों .यहाँ जाकर आप कुछ अंगों की कीमत देख सकते हैं जैसे बिलकुल तरोताजी आँख ३४५,००० डालर में और एक चमचमाता नया जार्विक दिल ९७५,००० डालर में खरीद सकते हैं .फायिनेंसिंग भी उपलब्ध है .हाँ वसूली के लिए रेपो मैन आएगा और आपसे लिए गए ऋण की पाई पाई वसूल कर जाएगा .तब तक और ऋण वापसी के बाद आप पुनर्यौवन का भरपूर आनंद उठा सकते हैं और अपनी शेष अशेष इच्छाओं को भी इसी जीवन में फिर फिर पूरा कर सकते हैं .पुनर्यौवन प्राप्त महाभारत के पात्र अर्जुन की ही तरह .
रेपो मैन की कहानी एरिक गार्सिया के उपन्यास रिपजेसन मैम्बो पर आधारित है जिसे फिलिप के डिक अवार्ड के लिए नामित किया गया है .फ़िल्म ४ अप्रैल को अमेरिका में रिलीज होगी और जल्दी ही भारत में आ ही जायेगी .तब तक दिल थाम के बैठिये !
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