Thursday, 4 February 2010

पैसे फेको और अपने टूटे फूटे अंग बदलवा लो ....!आ रहा है रेपो मैन!

पैसे फेको और अपने टूटे फूटे अंग बदलवा लो ...जी हाँ यही सन्देश लेकर आने वाली है एक नई साईंस फिक्शन फिल्म रेपो मैन .आप  अपने पुराने अंग देकर नए अंग ले सकते हैं और चाहें तो फिर वही पुराना कितनी यादों से सराबोर कोई दिल वापस लेकर किसी दिल के (पुराने ) टुकड़े के पास जाकर फरियाद कर सकते हैं -फिर वही दिल लाया हूँ! ज्यूड ला और फारेस्ट व्हिटकर अभिनीत इस फिल्म में अंग प्रत्यंगों के जो दाम बताये गए हैं वे शायद ही जनता जनार्दन की जेब के लिए मुफीद हों .यहाँ जाकर आप कुछ अंगों की कीमत देख सकते हैं जैसे बिलकुल तरोताजी आँख ३४५,०००  डालर में और एक चमचमाता नया जार्विक दिल ९७५,००० डालर में खरीद सकते हैं .फायिनेंसिंग भी उपलब्ध है .हाँ वसूली के लिए रेपो मैन आएगा और आपसे लिए गए ऋण की पाई पाई वसूल कर जाएगा .तब तक  और ऋण वापसी के बाद  आप पुनर्यौवन का भरपूर आनंद उठा सकते हैं और अपनी शेष अशेष  इच्छाओं को भी इसी जीवन में फिर फिर पूरा कर सकते हैं .पुनर्यौवन प्राप्त महाभारत के पात्र अर्जुन की ही तरह .

 
 रेपो मैन की कहानी एरिक गार्सिया के उपन्यास  रिपजेसन मैम्बो पर आधारित है जिसे फिलिप के डिक  अवार्ड के लिए नामित किया गया  है .फ़िल्म ४ अप्रैल को अमेरिका में रिलीज होगी और जल्दी ही भारत में आ  ही जायेगी .तब तक दिल थाम के बैठिये !

Sunday, 24 January 2010

आखिर ये बला है क्या - डिस्कामगूगोलेशन!



इस रिपोर्ट के बाद तो यह एक पुनरावृत्ति ही कही जायेगी मगर बात चूंकि गम्भीर है इसलिए यह पुनरावृत्ति भी सही लगती है .आपको फुरसत मिले तो अंतर्जाल पर उपलब्ध इन रपटों को इत्मीनान से पढ़िए -इसे  और इसे ..इन दोनों रपटों में तफसील से  है कि   अंतर्जाल कैसे तेजी से एक  दुर्व्यसन  बनता जा रहा है और इसने भुक्तभोगियों के लिए कैसे एक नई लाक्षणिक बीमारी को जन्मा है -डिस्कामगूगोलेशन  नाम है इस नई बीमारी का जिसमें अंतर्जाल का व्यसनी अगर देर तक अंतर्जाल से दूर होता है तो उसे अजब सी अधीरता और बेचैनी आ घेरती है ,वह असहज हो उठता है .यह कुछ व्यसन की दीगर आदतों जैसा ही है .रिपोर्ट बाकायदा अध्ययन   के आंकड़ो पर आधारित है.

पिछले  वर्ष एक आन लाईन सर्वे किया गया  था ऐ ओ एल द्वारा और पाया गया था कि अमेरिका के कई शहरों  में लोगों को क्षण क्षण में अपना ई मेल देखे चैन नहीं रहता भले ही वे बिस्तर में हो या हमबिस्तर हों ,बाथरूम में हों या फिर ड्राईविंग कर रहे हों .मीटिंग में या डेटिंग में ....केवल दो तीन साल में ही ई मेल का ऐसा व्यसन १५ से ४६ फीसदी तक पहुँच  गया .अब ब्रितानी वासियों के नए अध्ययन में तो स्थिति और भी विस्फोटक पाई गयी है ..यहाँ तो लोगबाग जब कुछ ही देर के लिए सही अंतर्जाल से जुड़ नहीं पाते तो अकुला पड़ते हैं -बात बात पर चिडचिडाते   और आक्रोशित होते हैं -डिस्कामगूगोलेशन से त्रस्त हो उठते हैं -

यह शब्द दो शब्दों के मेल से बना है -डिसकाम्बोबुलेट और गूगल को मिला कर (वैसे इसमें गूगल  को लपेटना कोई जरूरी नहीं था ).इस शब्द के जनक ब्रितानी मनोविग्यानिओ की नजर में यह बीमारी " अंतर्जाल की तात्कालिक पहुँच न बना पाने से उपजे तनाव  और आक्रोश को इंगित करती है ".अध्ययन में पाया गया कि ७६ प्रतिशत ब्रितानी अंतर्जाल के बिना बेचैन हो जाते हैं .वे अंतर्जाल के पक्के व्यसनी हो चुके है और अंतर्जाल से ही चिपके रहना चाहते हैं .वे अंतर्जाल के इस कदर दीवाने हैं कि एक पल के लिए भी वहां से हटना  उन्हें भारी लगता है -बस अंतर्जाल के पन्ने दर पन्ने उलटते जाते है और नौबत यहाँ तक पहुंच गयी  है कि-

  • ८७ प्रतिशत अपनी जानकारियों के स्रोत के रूप में अंतर्जाल पर निर्भर हो गए हैं .
  • ४७ प्रतिशत को अंतर्जाल उनके धर्म से भी ज्यादा पसंद आ  गया है .
  • ४३ प्रतिशत अंतर्जाल के बिना निराशाग्रस्त और संभ्रमित हो जाते हैं 
  • २६ प्रतिशत को लगता है कि इसके बिना वे आखिर करेगें क्या और रह कैसे पायेगें .
  • १९ प्रतिशत अपने परिवार से ज्यादा समय अंतर्जाल पर बिताने लगे हैं


यह अध्ययन अगर सही हैं तो यह भारतीयों के लिए भी चेतने की  चेतावनी है -खासकर ब्लागरों के लिए जिन्हें अपनी पोस्ट लिखे और टिप्पणियाँ देखे रात की  नीद और दिन का चैन गायब हो गया लगता है . हमें यह लगता है कि अपने सुविधानुसार कोई एक दिन हमें  चुन लेना चाहिए जब  बिना किसी अति आवश्यकता के हम अंतर्जाल से दूर रहें .मुझे भी लगता है कि हममे में से अधिकाँश इस लत के दुर्व्यसनी हो चले है -कम से कम इन अध्ययनों की जाँच के लिए ही हम इस एक दिनी अंतर्जाल व्रत को आजमा कर देख तो लें. खुद यह भी आकलन कर लेगें कि हम बिना अंतर्जाल के रह कर कैसा अनुभव करते हैं . बीमारी से रोकथाम सदैव बेहतर है न !


 पुनश्च:   मैं अपने लिए चुनता हूँ मंगलवार.
 

Thursday, 21 January 2010

लखनऊ में पहली बार मीन मेला (फिशफेस्ट-२०१०)




उत्तर प्रदेश सरकार के राज चिह्न में धनुष के साथ मछलियाँ उत्कीर्ण हैं .संभवतः अर्जुन के लक्ष्य भेद की पुराकथा से प्रेरित. राज्य में पहली बार  अनूठे ढंग का एक मीन/मत्स्य मेला आयोजित होने जा रहा है .स्थान है मोती महल लान ,राणा प्रताप मार्ग ,लखनऊ और तारीखें -२९ से ३१ जनवरी .


उद्येश्य 
  • मात्स्यिकी क्षेत्र में संभावनाएं और विस्तार 
  • विभिन्न उपकरणों ,मत्स्य तकनीकों ,प्रजातियों एवं उत्पादों का प्रदर्शन 
  • तकनीकी प्रसार 
  • मत्स्य  सेक्टर में व्यवसायीकरण 
  • जन सहभागिता 
  • मत्स्य व्यंजनों की लोक गम्यता  

 मुख्य आकर्षण 
मत्स्य कृषकों /पालकों से आमुख चर्चा /परिचर्चा
विशेषग्य संसर्ग
मत्स्य व्यंजन प्रतियोगिता
मत्स्य प्रदर्शनी -साजो -सामान ,औषधियां ,फीड ,आदि विक्रय
सांकृतिक कार्यक्रम


फिश फेस्ट का उदघाटन श्री धर्म राज निषाद ,माननीय मंत्री, मत्स्य विभाग उत्तर प्रदेश शासन २९ जनवरी को करेगें .आप भी भाग  ले सकते हैं -कोई प्रवेश शुल्क नहीं है.
अब मैं भी आयोजन समिति और तकनीकी समिति  का सदस्य हूँ तो एक सप्ताह इसके आयोजन की सफलता में जुटना ही होगा .
आप सुधी जनों की शुभकामनाएं इस आयोजन के लिए निवेदित है .




Sunday, 17 January 2010

अरहर की विकल्प बन सकती है 'सोया दाल'

अरहर और दूसरी दालों की कीमत में भारी उछाल ने इनके विकल्पों की तलाश तेज कर दी है .कल ही रविवारी टाईम्स आफ इंडिया के लोकप्रिय कालम स्वामिनोमिक्स में स्तंभकार स्वामीनाथन एस अंक्लेसरिया ऐयर ने इस समस्या का एक भरोसेमंद बेहतर विकल्प सुझाया है -सोया दाल! वे कहते हैं कि अरहर की दाल तो अब गरीबो से छिन  गयी है ,दूसरी दालों के दाम भी आसमान छू  रहे हैं -ऐसे में सोया दाल एक बेहतर  विकल्प हो सकता है ,मगर यह सोया दाल क्या है भला ?






                                                          सोयाबीन की दाल का है इंतज़ार 

पारम्परिक अरहर सरीखी दालों का प्रोटीन घटक  २०-२५  फीसदी लिए होता है जो आंटे(१०-१२% )से दो  गुना अधिक ,चावल (४-६%)से चौगुना है .इसलिए दैनिक भोजन में इनकी काफी जरूरत रहती है .वैसे भी ,भारत मे गरीबों के बच्चों में प्रोटीन की कमी की दर अभी भी अन्य कई देशों की तुलना में ज्यादा ही है और उन्हें प्रोटीनयुक्त पुष्टाहार की बड़ी जरूरत है .मगर दालों का उत्पादन १९९० से ही १.४ करोड़ टन पर ठहरा हुआ है जबकि इस दौरान जनसंख्या  में ३५ करोड़ की बढ़ोत्तरी हुई है -जाहिर है  सभी को कम दाम में दालें उपलब्ध करना अब संभव नहीं रहा .दूसरे देश दालें कम उगाते हैं क्योकि उनका काम प्रोटीन  के दूसरे बड़े स्रोतों से जैसे मुर्गा मछली और मांस से चल जा रहा है .इस तरह आयात की संभावनाएं भी धूमिल हैं .यहं भी धनाढ्य वर्ग मांस मछली और अरहर की दाल से अपनी प्रेतींप्रोटीन की जरूरते पूरा कर  ले रहा है, मगर गरीब के निवाले में प्रोटीन कम होती जा रही है .

सोयाबीन जिससे हम अब अपरिचित नहीं हैं ,दुनिया के कई हिस्सों में 'पल्स'(दाल ) के रूप में भी  चिह्नित है .चूंकि इससे तेल भी  प्राप्त होता है इसलिए बहुधा इसे दाल  की श्रेणी में नहीं रखते .सोयाबीन में १८-२० प्रतिशत तेल तो होता ही है मगर प्रोटीन  प्रतिशत तो जबरदस्त ,३६-३८ फीसदी है .और तेल निकालने  पर तो यह प्रोटीन  ५० प्रतिशत तक हो जाता है .अब हम सोयाबीन से उतने अपरिचित भी नहीं रहे -शायद  ही कोई हो जिसने सब्जी में 'न्यूट्री नगेट ' न खाया   हो .मगर अभी भी सोयाबीन से तेल निकलने के बाद की खली जानवरों के आहार के रूप में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो रही है .जानवर उम्दा प्रोटीन झटक रहे हैं और मनुष्यों को इसके लाले पड़े हैं -इसे कहते हैं सुनियोजन का अभाव .सोयाबीन की पैदावार जहाँ १९८० के आसपास नगण्य थी वहीं अगले दशकों में इसका उत्पादन एक करोड़ टन प्रतिवर्ष तक जा पहुंचा है . इसके उत्पादन पर विशेष ध्यान देकर इसके प्रसंस्कृत रूपों को गरीबों की दाल के रूप में व्यापक तौर पर बढ़ावा दिया जा सकता है .

स्वामीनाथन का प्रस्ताव है कि न्यूट्री नगेट की ही तर्ज पर सोया दालों का प्रचलन किया जाय और इनके दालों सरीखे प्रसंस्कृत रूप को विज्ञापनों के जरिये प्रचारित प्रसारित करते हुए पचीस रूपये प्रति किलो की दर पर  बाजारों और सार्वजानिक वितरण प्रणाली में ले जाया जाय .जहाँ तक स्वाद का सवाल है लोगों को धीरे धीरे आदत पड़ती जायेगी जैसे आरम्भिक ना नुकर के बाद लोगों ने न्यूट्री  नगेट को अपना लिया है .यह अरहर की दाल से तो काफ़ी सस्ता होगा -बस २५ रूपये किलो के आस पास .

उत्तराखंड के गरीबों  ने तो सोयाबीन को हाथो हाथ लिया है .देश के दूसरे हिस्सों में इसके उपयोग /खपत बढ़ने का इंतज़ार है ...देखिये सरकारी संगठनों और निजी व्यवसायियों को कब चेत आती है .व्यवसाय की  एक बड़ी संभावना अंगडाईयां ले रही है ........

Saturday, 16 January 2010

दुखी मानवता के लिए फलित ज्योतिषी एक स्थाई राहत केंद्र हैं!

यह पोस्ट अभी भी एक  ब्लॉग पर चल रही निरर्थक बहस से प्रेरित है .जहाँ एक फलित ज्योतिषी हठयोग किये हुए है कि उसकी  भविष्यवाणी गलत हो ही नहीं सकती ..... विज्ञान और फलित ज्योतिष का बड़ा फर्क भी यही है .एक विज्ञानधर्मी के शोध नतीजों को जब दूसरा विज्ञानी आपने प्रयोग परीक्षणों के आधार पर (ज्यादातर तो  आंशिक ही)  पूरी तरह से भी खंडित कर देता है तो इतनी हील हुज्जत नहीं होती जितनी की इंगित ब्लॉग पर हो रही है. वैज्ञानिक नए तथ्यों को सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं क्योकि विज्ञान की पद्धति यही है,संस्कार भी यही है . वैज्ञानिक पद्धति एक तार्किक और  विश्लेषणात्मक  तरीके पर आधारित है -जहाँ जिज्ञासाओं के समाधान हेतु  कल्पित संभावनाए और फिर अनेक संभावनाओं में से सही कौन है के चुनाव के लिए प्रयोग परीक्षण और पुनि पुनि सत्यापन के बाद प्राप्त नतीजा स्वीकार किया  जाता है .और यह विज्ञान   विधि गोपन नहीं है ,सर्वज्ञात है . कोई भी इस पद्धति को  सत्यनिष्ठा से अपना कर शोध कार्य कर सकता है और नतीजों पर पहुँच सकता है.

अब फलित ज्योतिषी पहले तो ऐसी किसी पद्धति को नहीं अपनाते ...और अगर कोई पद्धति अपनाते भी हैं  तो वह बहुत कुछ गोपनता लिए होती है .और  नतीजे भी  दोहरी व्याख्या लिए होते हैं -मतलब चित भी मेरी और पट  भी मेरी ! जैसे एक ज्योतिषी को बताना  था कि   अमुक व्यक्ति  को लड़का होगा या लडकी तो उसने एक लिफ़ाफ़े में अपनी महान भविष्यवाणी बंद कर चुनौती दी कि जब संतानोत्पत्ति हो तभी इसे खोला जाय ,बहरहाल जजमान को पुत्री हो गयी -लिफाफ खोला गया -लिखा था -पुत्री न पुत्रा .ज्योतिषी जी ने तुरंत व्याख्यायित कर दिया -मैंने कहा था न कि पुत्री ....न पुत्रा... अब देखिये पुत्री हुई. फलित ज्योतिषियों का यही आजमूदा नुस्खा है.आप उनसे पार नहीं पा सकते .

मैं फलित ज्योतिष और इनके पोषकों और अनुयाइयों से बहुत खार खाता  हूँ मगर एक बात मुझे रोकती है जेहाद छेड़ने में -इनके चलते बहुत से लोग जीवन में आशा की किरण देखते है ,दुश्चिंताओं से थोडा बच जाते हैं -दुखी मानवता के लिए ये फलित शास्त्री एक स्थाई राहत केंद्र हैं -मगर हाँ विज्ञान की भावना के कट्टर उन्मूलक भी है ये. और इसलिए विज्ञान प्रेमियों को इनके पुरजोर विरोध में लगातार सक्रिय रहना चाहिए -ताकि दुनिया में अन्धविश्वास का ही  एक छत्र राज्य न हो जाय.इधर कुछ दिनों से ब्लागजगत में इनकी धमाचौकड़ी फिर बढ रही है ऐसे में हमें कुछ और तस्लीम और साईंस ब्लागर्स चाहिए जो निरंतर ऐसी प्रवृत्तियों पर अंकुश का अभियान छेड़ सकें .



फलित ज्योतिष(अस्ट्रोलोजी)  और ज्योतिष /ज्योतिर्विज्ञान(अस्ट्रोनोमी ) में बहुत फर्क है .एक मात्र पत्रा  देख कर ऊलजलूल भविष्यवाणियाँ करता  है तो दूसरा  गणनाओं की पुष्टि स्वरुप आसमान /अन्तरिक्ष को भी निहारा करते हैं -अस्ट्रोनोमी का जहां आशातीत विकास हुआ है अस्ट्रोलोजी बाबा  आदम के ज़माने के आगे नहीं बढ सकी है ...और बढ़ना भी नहीं चाहती. फलित ज्योतिष आज भी आदि मानवों के भय आशंकाओं  को केंद्र बनाकर भविष्यवाणियाँ करता है -ग्रहण में कुछ खाओ पीओ मत ,दक्षिण की दिशा में मत जाओ ,सोमवार को पूर्व दिशा में मत चलो आदि आदि हास्यास्पद निर्देशों के ऊपर नहीं उठ सका है फलित ज्योतिष. घबराये, डरे लोगों का मनोविज्ञान आज भी फलित को जिलाए हुए हैं .कल सूर्यग्रहण था लोग बाग़ पर कोई असर नहीं दिखा ,ज्यादातर लोग खान पान करते दिखे .ऐसे ही जब लोगों में वैज्ञानिक मनोवृत्ति का प्रसार हो जायेगा फलित ज्योतिष के अलविदा का पल आ पहुंचेगा .लेकिन अभी सम्पूर्ण शिक्षा और वैज्ञानिक  मनोवृत्ति का लक्ष्य दूर है ..तब तक ज्योतिषियों की चांदी  रहेगी .
ॐ फलित ज्योतिर्विद्याय नमः

Thursday, 14 January 2010

आज कंगननुमा वलयाकार सूर्यग्रहण है !

अभी कुछ माहों पहले ही पूर्ण सूर्यग्रहण का लुत्फ़ हमने उठाया था.... आज  कंगननुमा वलयाकार सूर्यग्रहण है .मतलब चाँद धरती से इतना दूर है कि  सूर्य की पूरी चकती को ढँक नहीं पा रहा और किनारे ग्रहण से छूट रहे हैं जो कंगन जैसा दिखेगें ! यही वलयाकार सूर्यग्रहण है .

मतलब ,वलयाकार सूर्यग्रहण में चाँद के बाहरी किनारे पर सूर्य  अंगूठी की तरह काफ़ी चमकदार नजर आता है.यह सदी का  सबसे अधिक अवधि तक दिखाई देने वाला सूर्यग्रहण है मगर बादलों की ओट के करण यह काफी जगहों पर नहीं दिखेगा .  सूर्यग्रहण 11 मिनट 08 सेकंड से अधिक समय तक रहेगा.भारत के कुछ हिस्सों में यह दस मिनट से अधिक समय तक दिखेगा. भारत में यह केरल, तमिलनाडु और मिजोरम के ऊपर दिखाई देगा जबकि उसका कुछ हिस्सा देश में सभी जगह से नज़र आएगा.भारत के अलावा सूर्यग्रहण अफ्रीका, हिन्द महासागर, मालदीव, श्रीलंका और दक्षिण पूर्व एशिया में दिखाई देगा.



                                                                वलयाकार सूर्यग्रहण 



सूर्यग्रहण के दौरान चंद्रमा सूर्य और पृथ्वी के बीच आ जाता है और इसकी छाया सूर्य पर पड़ती है जिसकी वजह से सूर्य आंशिक अथवा पूरी तरह सूर्य ढक जाता है. वलयाकार सूर्यग्रहण तब लगता है जब चाँद सामान्य की तुलना में धरती से दूर हो जाता है. नतीजतन उसका आकार इतना नहीं दिखता कि वह पूरी तरह सूर्य को ढक ले.विशेषज्ञों का कहना है   कि खाली आँखों से सूर्यग्रहण देखना हानिकारक  है.

Tuesday, 29 December 2009

इस मछली के पुनर्वास की फौरी जरूरत है!


कल मैंने ऊपर दिया  चित्र लगाया था यहाँ और उसके बारे में पूंछा था! कुछ जवाब आये हैं -दो तरह के -एक वर्ग मानता है यह कोई मछली है और दूसरा गांगेय डालफिन! एक वर्ग के प्रबल दावेदार हैं हिमांशु तो दूसरे के गिरिजेश! उन्मुक्त जी की मनाही है कि इसे डालफिन न माना जाए ! उन्मुक्त जी ,नहीं मानते हैं इसे डालफिन और न हीं सील -अरे यह स्तनपोषी   थोड़े ही है ! यह तो अपनी मोय -चीतल मछली है ! अंगरेजी में फीदर बैक . गंगा नदी की एक प्रमुख मछली ! यह जिस परिवार की है भारत  में उसकी बस दो प्रजातियाँ हैं -एक नोटोंप्टेरस नोटोंप्टेरस और दूसरी नोटोंप्टेरस चिताला ! पहली छोटी होती है यही कोई आधा फुट की मगर दूसरी जिसकी फोटो मैंने यहाँ लगाई थी कई फुट की हो सकती है -३-४ फुट और वजन भी कई किलो ! मगर दुःख है यह प्रजाति अब दुर्लभ हो चली है! १९८० के दौरान जब मैं मछलियों पर इलाहाबाद में शोध कर रहा था तो यह आसान से हाथ से फेकने वाले जाल -फेकौआ जाल से पल भर में मिल जाती थी उस जगह से जहाँ आजकल ज्ञानदत्त जी सफाई अभियान चलाये हुए हैं ! मगर अब जल्दी नहीं मिलती !



नदियों और कुदरती जल क्षेत्रों  में   तेजी से दुर्लभ होती इस मछली के पुनरुस्थापन का प्रयास मैंने यहाँ बनारस के मत्स्य पालक  मक़सूद अली के सहयोग से राजकीय मत्स्य प्रक्षेत्र उन्दी पर किया  है और सफलता से ब्लॉग परिवार को  भी अवगत कराने की इच्छा  हो आई ! इस सफलता पर जी फूला नहीं समा रहा था जो .....अपने यहाँ तो यह एक महत्वपूर्ण और उम्दा भोज्य मछली है मगर विदेशों की एक मशहूर अलंकारिक ,शोभाकर अक्वेरियम मछली .हम केवल इसे उदरस्थ करते रहे हैं और विदेशी इसे अक्वेरियम की मछली बना कर लाखो करोडो कमा रहे हैं -यह है भारत की  दरिद्रता का करण ! कुछ चित्र और देखें और एक अक्वेरियम में इस मछली की अठखेलियाँ भी !एक्वेरियम व्यवसाय में इस मछली का नाम क्लोन नायिफ फिश कर दिया गया है ! इसके पुनर्वास की फौरी  जरूरत है अब !