Tuesday, 29 December 2009

पहले आप पहचानिए यह क्या है ,फिर मैं तफसील से बताउंगा!

जी जरा अपने दृश्य और ज्ञान चक्षुओं की परीक्षा लीजिये और बताईये यह क्या है ? फिर मैं तफसील से बताता  हूँ कि यह है  क्या और मैंने क्यों यहाँ साईब्लोग पर इसे जगह दी है!

मुझे लगता है कि उन्मुक्त जी को तो सहजता से बता देना चाहिए मगर फिर भी देखता हूँ ? और सीमा गुप्ता जी ,अल्पना वर्मा जी ,संजय बेंगाणी साहब और मेरे प्रिय मित्र भूत भंजक सहित आओं आओं सब पहेली विद्वान् ,विदुषियों और बूझो यह है क्या आखिर?

Monday, 21 December 2009

अवतार के बहाने विज्ञान गल्प पर एक छोटी सी चर्चा !



 विज्ञानं गल्प फिल्म अवतार इन दिनों पूरी दुनिया में धूम मचा रही है ! फ़िल्म भविष्य  में अमेरिकी सेना द्वारा सूदूर पैन्डोरा ग्रह से एक बेशकीमती खनिज लाने के प्रयासों के बारे में है ! पूरी समीक्षा यहाँ पर है ! अमेरिका में अब यह बहस छिड़ गयी है कि यह फ़िल्म विज्ञान गल्प (साईंस फिक्शन या फैंटेसी )है भी या नहीं.मेरी राय में यह एक खूबसूरत विज्ञान फंतासी ही है और अद्भुत तरीके से हिन्दू मिथकों के कुछ विचारों और कल्पित दृश्यों से साम्य बनाती है!

दरअसल विज्ञान गल्प /फंतासी का  हमारी समांनांतर दुनिया से कुछ ख़ास लेना देना नहीं होता ! हमारे परिचित चरित्र और चेहरे इन कथाओं में नहीं दिखते -क्योंकि अमूमन विज्ञान फंतासी भविष्य का चित्रण करती है -भविष्य  की दुनिया ,वहां के लोग और वहां की प्रौद्योगिकी -या फिर धरती से अलग किस्म की किसी सभ्यता की कहानी! दिक्कत यह है कि जिस दुनिया या लोगों या तकनीक से लोग परिचित नहीं है उसे कैसे और किस तरह दिखाया जाय ! लोग इसलिए ही विज्ञान कथाओं के पात्रों से खुद को जोड़ नहीं पाते और ऊब उठते हैं ! विज्ञान कथाकार /फिल्मकार एक अजनबी से माहौल /परिवेश के चित्रण के साथ यह भी भरपूर कोशिश करता है कि वह दर्शकों को किसी न किसी बहाने रिझाये रहे -यह काम एक  सशक्त कथा सूत्र पूरा करता है जिसमें प्रायः मानव  और मानवता के ही गहरे सरोकार व्यक्त होते हैं -और मारधाड़ के दृश्य भी इनमें बतौर फार्मूले के डाले जाते हैं ताकि विनाश या युद्ध प्रेमी दर्शक लुत्फ़ ले सकें ! साथ ही एक होशियार विज्ञान कथाकार मनुष्य के  जाने पहचाने विचार अवयवों को ख़ूबसूरती से मुख्य कथा की धारा में पिरोता चलता है ताकि दर्शक कथा से जुड़े रह सकें !

इसलिए अवतार में हिन्दू मिथक से अवतारों की अवधारणा ली गयी है -धरती पर अधर्म बढ़ने पर विष्णु अवतार लेते हैं -यह लोगों के मन  में रचा बसा है-इसकी व्याख्या की जरूरत भी नहीं है यहाँ -यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः ....तदात्मानं सृजाम्यहम ! रोचक  बात यह है कि अवतार स्वयं में एक स्वतंत्र  ईकाई होने के बावजूद भी मुख्य चेतना -विष्णु से सम्बद्ध  होता है ! अवतार में भी पैन्डोरा के मूल निवासियों के बीच पहुँचने  के लिए धरती के वैज्ञानिक एक अवतार का ही सृजन करते हैं! मगर तरीका खासा वैज्ञानिक  है -तकनीक को व्याख्यायित किया गया है -जो मिथक  और विज्ञान कथा के फर्क को दर्शाता है! 

पैन्डोरा ग्रह के वासियों के बीच   रहने और उनका विश्वास हासिल करने के लिए उनकी जोड़ के डी  एन ये से मानव   के डी एन ये का मिलान कर -और मूल मनुष्य के मष्तिष्क को पैन्डोरा वासी से ही दिखने वाले प्रतिकृति में "डाउनलोड़" कर अवतार रूपी नायक का सृजन करके नए ग्रह -वातावरण में उतार देते है -वहां  लोग इस "आसमानी सभ्यता " के प्रतिनिधि  को स्वीकार कर लेते हैं और आगे चलकर वही उनका मुखिया बनता है और आसन्न विपत्ति से उन्हें छुटकारा दिलाता है ! कृष्ण भी तो हूबहू यही करते हैं -वे कहीं कहीं तीसी के फूल की सी निलीमा लिए दिखते हैं -पैन्डोरा वासी भी  नीले लोग हैं ! वहां के लोगों की  पूंछे हैं -हिन्दू मिथकों में एक पूंछ से सारी लंका जला दी गयी है ! हिंदूओ मिथक कथाओं में गरुण तो विष्णु के वाहन हैं -पैन्डोरा वासी और उनका मुखिया अवतार भी एक भव्य गरुनाकार पक्षी पर सवारी करत्ता है -वहां विचित्र से घोड़े हैं ! विष्णु का आगामी अवतार भी घोड़े पर चढा हुआ दिखाया  गया है ! लगता है अवतार फ़िल्म की अनेक दृश्यावलियों को सीधे सीधे हिन्दू मिथकों से उड़ा लिया गया है ! अब एक अजनबी ग्रह के वासियों और प्राणियों को फिल्मकार दिखाए भी तो कैसे -हिन्दू मिथक आखिर कब काम आयेगें ?  

आधुनिक विज्ञान कथा  साहित्य का हिन्दू मिथकों से यह समन्वय काफी रोचक है -फ़िल्म देखकर आईये फिर और चर्चा होगी!

Wednesday, 16 December 2009

क्या महिलायें बहलाने फुसलाने में ज्यादा पारंगत होती हैं ?



क्या महिलायें बहलाने फुसलाने में ज्यादा पारंगत होती हैं ? जी हाँ पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में यह हुनर ज्यादा विकसित है -ऐसा कहना है व्यव्हारविदों का ! उनका मानना है कि ऐसा इसलिए होता है कि माताओं पर बच्चों के लालन पालन का दायित्व पुरुषों से अधिक होने के नाते उनका यह स्वभाव ही बनता जाता है -अब बालहठ को आखिर कैसे संभाला जाय ? मैया मैं तो चन्द्र खिलौना लैहों -लीजिये मासूम हठी बालक चान्द ही मांग बैठा ! और वह कविता तो आपको याद होगी न -"हठ कर बोला चाँद  एक दिन ...." यह भी बाल मन को ही इंगित करती कविता है ! अब माँ करे भी तो क्या ..बाप को अपने बाहर के कामों से फुरसत नहीं -और यह शिकारी मनुष्य के काल से ही चलता आया है -घर पर अकेली माँ बच्चे को अब कैसे बहलाए फुसलाये ? तो प्रक्रति ने उत्तरोत्तर माँ को ऐसी क्षमता देनी शुरू की जिससे वह कन्विंसिंग लगे -बच्चे को लगे कि उसकी माँ झूंठ नहीं बोल रही है !... और माँ ने ऐसे निरापद झूठ  बोलने की क्षमता विकास के दौर में हासिल कर ली कि  इस विधा में पारंगत ही बन बैठी !

मगर कहानी यहीं खत्म नहीं होती ..बच्चे तो बच्चे ...बच्चों के बाप भी अक्सर झांसे में आ  जाते हैं -प्रेमी तो अक्सर बनते ही  रहते हैं -क्या मजाल कि झूंठ का ज़रा भी भान हो जाय ! पुरुष इतने सफाई से झूंठ नहीं बोल पाता -याद कीजिये पिछली बार कैसे झूंठ बोलते हुए आप पकडे गए थे...चेहरा सफ़ेद पड़ गया था  और हकलाहट थोड़ी बढ गयी थी न ?और तिस पर झपकती आँखों ने सारे राज का पर्दाफाश कर दिया था ...मगर यह आपको पता नहीं हैं कि मोहतरमा उससे कई ज्यादा बार आपको उल्लू बना चुकी हैं और आपको उसका आभास तक नहीं हुआ ! मगर यह काम महिला एक सरवाईवल वैलू के ही लिहाज से करती है ताकि परिवार का विघटन बचा रहे -बड़े होते बच्चों पर कोई विपदा न आ  जाय !

कई रियल्टी शो नारी के इस  आदिम हुनर का बेजा फायदा उठा रहे हैं -झूंठ बोलने की मशीन का बेहूदा प्रदर्शन कर महिला से यह उगलवाने का निर्लज्ज प्रदर्शन करते भये हैं कि उसका गैर वैवाहिक सम्बन्ध भी   है -अब दर्शक दीर्घ में बैठे बिचारे पति को तो मानो काटो तो खून नहीं ..एक रियलटी शो में मशीन ने जो झूंठ पकड़ा कि लोगों की रूहें काँप गयीं -मोहतरमा अपने पति की ह्त्या ही नियोजित किये बैठी थीं ! यद्यपि झूंठ पकड़ने वाली मशीने खुद भी विवादित रही हैं और बहुत से वैज्ञानिक उनकी सत्यता पर आज भी सशंकित से हैं मगर यह इन्गिति तो हो ही जाती है कि महिलायें ज्यादा सहज हो झूंठ बोल  जाती हैं जो सौ फीसदी सच लगता है !

अंतर्जाल पर ऐसे अनेक दृष्टांत हैं जिन्हें रूचि हो वे यहाँ, यहाँ और यहाँ देख सकते हैं और खुद भी गूगलिंग कर इस रोचक मामले की पड़ताल कर सकते हैं ! कुछ ऐसे मामले हैं जहाँ वह केवल अपने जीवन साथी को खुश रखने के लिए ही झूंठ बोल जाती है जैसे कि उसने उसे सचमुच संतुष्ट कर दिया है !
संकलित कड़ियाँ यहाँ भी हैं  ! 
दावात्याग : अभी भी वैज्ञानिकों में यह मामला विवादित है -यहाँ केवल व्यवहारविदों (ईथोलोजिस्ट  )की राय व्यक्त हुई है!

Sunday, 6 December 2009

बिना वजूद के ही याद हो आये जो वो ड़ेजा वू है .....

हर शख्श के अपने जायज रंजो गम हैं ,गमे रोजगार और गमे मआश हैं ,हमारे आपके भी हैं और लवली कुमारी जी के भी हैं और इसके बाद और बावजूद भी जब वे समय निकाल कर ब्लॉग दुनिया के लिए  योगदान करती  हैं तो सहज ही साधुवाद की अधिकारिणी बन जाती हैं -अब चूंकि  अकादमिक सरोकारों से हम भी बंधे से हैं तो जरूरी हो जाता  है कि कुछ ऐसे ब्लागरों की उन रचनाओं पर एक सार्थक संवाद करें ,भले ही चाहे अनचाहे , जिनका अकादमीय महत्व हो और जहां  कुछ जरूर कहा जाना चाहिए ! लवली कुमारी जी इन दिनों मनोविश्लेषण  पर एक श्रृंखला कर रही हैं ! वे उस अकादमीय 'स्कूल' की हैं जहाँ बात पाठ्य पुस्तकीय शुचिता को हूबहू बनाए रखे हुए  प्रस्तुत की जाती है  ,किसी भी तरह के सरलीकरण से परहेज किया जाता है;भले ही कुछ शब्दों और वाक्यांशों को समझने में गुनी जनों के भी माथे पर पसीने ही क्यों न झलक आयें -उनकी ताजातरीन पोस्ट इसका उदाहरण है -मैं कुछ मदद करने आया हूँ यह विश्वास दिलाते हुए कि मेरा मन   साफ़ है और एक नैतिक तकाजे   के तहत ही मैं कुछ कहना चाहता हूँ -विज्ञान का लोकप्रियकरण मेरा शौक है -मेरी मंशा पर कोई शक न किया जाय ! यह पोस्ट लवली कुमारी जी की इंगित पोस्ट की कोई आलोचना नहीं है -बल्कि एक अंश ("जो कोई दृश्य आप अचानक देखते हैं और आपको लगता है की इस स्थान से मैं पहले गुजर चूका हूँ ..अथवा यह मैंने सपने में या कहीं और (कल्पना में ) देखा है.") की यथा शक्ति सरल प्रस्तुति है! और यह पोस्ट समय को समर्पित है क्योकि वे  गंभीर विषयों के प्रेमी हैं मगर उनकी पोस्ट भी प्रायः  उसी पाठ्य पुस्तकीय शुचिता की पैरोकारी करती हैं -बल्कि वे यथोक्त स्कूल के डीन हैं!



इंगित पोस्ट में मस्तिष्क के कुछ उन विचित्र अनुभवों की चर्चा हुई है जिन्हें फ्रेंच भाषा में डेजा वू (Déjà vu) कहते हैं -जब कभी किसी जगह जाने पर  आपको ऐसा लगे  कि वहां तो आप पहले ही आ चुके हैं जबकि हकीकत में आप वहां नहीं गए  हों या किसी अगले पल घटने वाली घटना का पूर्वाभास सा हो जाय जो ठीक वैसी ही घट जाए जैसा आपने अभी अभी सोचा हो तो ऐसे अनुभव डेजा वू कहलाते हैं .फ्रेंच भाषा में डेजा वू का अर्थ है 'पहले से देखा हुआ -आलरेडी सीन' ! ऐसा होता क्यूं है? लवली कुमारी जी की पोस्ट से इतर आईये समझते हैं इस दिमागी गुत्थी को ! दरअसल मनुष्य की याददाश्त भी कई घटकों में बटी होती है -जैसे लम्बे समय की याददाश्त ,थोड़े समय की याददाश्त या किसी घटना मात्र से जुडी 'इपिसोडिक' याददाश्त और महज तथ्यों से जुडी याददाश्त और इन सभी स्मृति -घटकों के लिए दिमाग के दीगर हिस्से जिम्मेवार होते हैं जहां मस्तिष्क की कोशायें इन तरह तरह की यादों को संजोये रखती हैं .हिप्पोकैम्पस एक ऐसा ही हिस्सा है जो नई स्मृतियों को सहेजता है . इन हिस्सों को प्रयोगशालाओं में रासायनिक और बहुत हलके विद्युत् स्फुलिंगों द्वारा उद्वेलित करने पर कुछ वैसी ही अनुभूतियाँ होती है जैसा कि प्रायोगिक प्राणी -मनुष्य को भी वैसा सचमुच का काम करने पर होतीं -उनके उद्वेलन से बिना सहचर की उपस्थिति के ही  नर मादा में चरमानंद की अनुभूति भी प्राप्त कर ली गयी ! बल्कि ऐसी अनुभूति के लालच में कुछ प्रायोगिक प्राणियों से श्रम साध्य कार्य भी करा लिए गए !

मनुष्य का मस्तिष्क समान सी यादों में फर्क भी कर सकता है और 'समान मगर ठीक वैसी ( आईडंनटीकल ) नहीं ' का भी फर्क जिसे वैज्ञानिक पैटर्न सेपरेशन कहते हैं ! जब यह स्मृति प्रणाली फेल कर जाती है तो मति भ्रम /दृष्टि भ्रम /दिशा भ्रम जैसी स्थितियों से दो चार होना पड़ता है ! डेजा वू भी एक ऐसी ही स्मृति विभ्रम की घटना है ! मिर्गी के मरीज ऐसे अनुभूतियों से प्रायः गुजरते रहते हैं .डेजा वू में मस्तिष्क के दो हिस्सों न्यूरो कार्टेक्स और हिप्पोकैम्पस की पारस्परिक अनुभूतियों में फ़र्क हो जाने से विचित्र  अनुभव होते हैं -न्यूरो कार्टेक्स जहाँ यह  इन्गिति देता है कि आप किसी ऐसी स्थिति में वास्तव में नहीं हैं जिनमे आप दरअसल होते हैं और हिप्पोकैम्पस ठीक उसी समय हकीकत की अनुभूति कर रहा होता है -लिहाजा इन परस्पर विरोधाभासी स्मृति अनुभूतियों के करण डेजा वू जैसी अनुभूति हो जाती है ! यूं कहिये यह याददाश्त प्रणाली का ही एक साईड इफेक्ट है ! इसी तरह जामिया ( jamiya )  वू आपको एक ऐसी स्थिति का आभास देता है जिसमें लगता है कि अमुक स्थिति में तो कभी आप रहे ही  नहीं जबकि हकीकत में वैसी स्थिति से आप पूर्व में गुजर चुके होते हैं!

क्या लवली जी या समय साहब मुझे आप अपनी पाठ्य पुस्तकीय शुचिता  का कुछ पाठ पढायेगें प्लीज और आप दोनों जन कुछ सरलीकरण /लोकप्रियकरण  के गुर सीख लेगें ? ये दोनों ही स्थितियां वैयक्तिक अतिवाद की परिचायक है -कुछ समझौते क्यूं न किये जायं  ?  
संदर्भ :नोबेल लारीयेट सुसुमु टोनेगावा और थामस मैकफ़ के शोध से सारांशित ,टाइम पत्रिका (अगस्त ,20,2007 ,
व्यक्तिगत संकलन)

Wednesday, 25 November 2009

क्या प्रलय सचमुच इतना करीब है ? कौन जाने यह दबे पांव आ ही न जाय !

आगामी २०१२ में प्रलय की अनेक संभावनाएं व्यक्त हो रही है ! एक ब्लाकबस्टर फ़िल्म भी अभी अभी रिलीज हुई है नाम है २०१२!
हिन्दी नाम रखा गया है प्रलय की शुरुआत! क्या फिलम है भाई!हौलनाक,दहशतनाक ,खौफनाक सब विशेषण पानी मांगते नजर आते हैं! कमजोर दिल वालों का हार्ट अटैक हो सकता है -बिलीव मी! मैं तो इंटरवल में ही पनाह मांग गया -बार बार दिल को यकीन दिलाया कि भैये ये हकीकत नहीं है तब जाकर उसने बल्लियों उछलना छोड़ा! आप भी मजबूत कलेजा करके ही इस फ़िल्म को देखें! सच  कह रहा हूँ -इसे कैजुअली लिए तो भुगतिएगा! इस फ़िल्म में धरती का महाविनाश दिखाया गया है!कारण तो बोगस विज्ञान(गलत ढंग और तौर तरीके से पेश हुआ विज्ञान ) है कि सौर ज्वालाओं की अधिकता के चलते न्यूट्रिनो (एक नाभिकीय अनावेषित कण ) की बौछार से धरती का गर्भथल  पिघल उठता है और ऊपरी परतें दरक जाती हैं ,और दरकती चली  जाती हैं -महाद्वीप के महाद्वीप नष्ट होते जाते हैं -भयंकर सुनामियाँ उन्हें लीलती चलती हैं! जैसे खुद महाकाल अपने जबड़ों को खोल सारी दुनिया को निगल लेने को उद्यत हो गया हो! मानवता का वजूद मिटने को है ! एक नई प्रलय आ धमकी है!

कहानी: धरती में पड़ती दरारें और भूकंप जैसी घटनाओं की जांच के संबंध में एक अमेरिकी भूवैज्ञानिक एड्रियन (श्वेतल एजिफर) को अपने एक दोस्त वैज्ञानिक सतनाम (जिम्मी मिस्त्री) से मिलने के लिए भारत आना पड़ता है। सतनाम एड्रियन को दिखाता है कि किस तरह से धरती का तापमान तेजी से बढ़ रहा है। एड्रियन वापस जाकर इसकी रिपोर्ट अमेरिकी राष्ट्रपति थॉमस विल्सन (डैनी ग्लोवर) के सचिव कार्ल (ऑलिवर प्लैट) को सौंपता है। कुछ अन्य देशों के राष्ट्रपतियों की बैठक के बाद यह साफ हो जाता है कि तीन वर्षो बाद यानी 2012 में धरती का विनाश हो जाएगा।"
मगर क्या यह सब हकीकत में बदल सकता है? क्या २०१२ में प्रलय आने वाली है? क्या उसके पहले नहीं आ  सकती? आने वाली प्रलय अगर वह आई तो कैसी होगी? जल प्रलय? जिसमे सारी दुनिया जल समाधि  लेगी! या फिर अग्नि प्रलय जिसमे सूर्य नेजे पर (धरती के बहुत करीब ) आ जायेगा और धरती भक्क से जल उठेगी! सारीं मानवता  स्वाहा! आखिर ऐसी हे तो होगी प्रलय? मगर वैज्ञानिकों की राय में धरती पर आने वाली आपदाओं में किसी पथभ्रष्ट धूमकेतु या फिर उल्का पिंड या क्षुद्र ग्रह/ग्रहिका की ज्यादा भूमिका हो सकती है जो अचानक ही धरती के परिवेश/कक्षा  में आकर जल कर या सीधे टकरा कर प्रलय सी तबाही मचा सकते हैं! जैसे कि कहा जाता है कि कोई ६ करोड़ वर्ष पहले ऐसी ही एक घटना में डायनोसोर लुप्त हो गए थे!सौ वर्ष पहले रूस के तुंगुस्का में भी एक ऐसी ही घटना में लाखो जीव जंतुओं का सफाया हो चुका है!


प्रलय का कोई दिन मुक़र्रर नहीं है -यह दबे पांव आ  भी सकती है -संभावनाएं हैं मगर २०१२ में ही ऐसा हो कौन निश्चितता से  कह सकता है ? प्रलय आनी होगी तो कभी भी आ  सकती है -आसमान के रास्ते ! दबे पांव ! मगर हम भी तैयार है बल्कि हो रहे हैं ! मेरी माने तो मस्त रहे -धरती का बाल बांका भी नहीं होने वाला है ! मगर मेरी इस बात में क्या दम है -सही आपत्ति है आपकी मगर यह एक अंतर्बोध है जिसके वजूद को विज्ञान की पद्धति में भी इनकार नहीं किया जा सका है !

Sunday, 8 November 2009

प्रोफेसर यशपाल विज्ञान संचार के सर्वोच्च पुरस्कार "कलिंग/कलिंगा पुरस्कार " से सम्मानित!


प्रोफेसर यशपाल को विज्ञान संचार के सर्वोच्च पुरस्कार "कलिंग/कलिंगा  पुरस्कार " से सम्मानित  किया गया है! कभी उडीसा के मुख्य मंत्री रहे बीजू पटनायक  जी ने एक युग द्रष्टा की भूमिका अपनाते हुए इस पुरस्कार के लिए यूनेस्को को मुक्त हस्त से १९५२ मे ही एक बड़ी धनराशि दान कर दी थी -वे भारत के कलिंग फाउनडेशन ट्रस्ट के संस्थापक थे.विज्ञान संचार के क्षेत्र में किसी बड़े योगदान के लिए कलिंगा पुरस्कार प्रावधानित हुआ था -ऐसा काम जो आम लोगों की समझ में  विज्ञान को आसान कर सके ! अभी तक तो ज्यादा वैज्ञानिकों को ही इस पुरस्कार के लिए चुना गया है मगर मानविकी ,पत्रकारिता की भी दुनिया से  लोग आम आदमी  तक विज्ञान की सरल समझ विकसित करने के प्रयासों के लिए इस पुरस्कार के लिए क्वालीफाई  हो सकते हैं ! विजेता को दस हजार स्टर्लिंग पाउंड और यूनेस्को के अलबर्ट आईनस्टीन सिल्वर मैडल से नवाजा जाता है ! अब विजेता को रूचि राम साहनी चेयर भी प्रदान  की जाती है जिसे भारत सरकार ने कलिंग पुरस्कार की पचासवीं जयंती पर संकल्पित किया है !पुरस्कार द्विवार्षिक है और विश्व विज्ञानं दिवस पर १० नवम्बर को  प्रदान किया जाता है !

भारत से अभी तक इस समान से नवाजे गए लोगों की सूची निम्नवत है -
1963-जगजीत सिंह
1991 -नरेंद्र के सहगल 
1996 -जयंत नार्लीकर 
1997 -डी  बाला सुब्रमन्यियन
और अब यशपाल जी को यह पुरस्कार मिला है ! यशपाल  जी के  विज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए किये गए कामों को कौन नहीं जानता -पहली बार सही अर्थों में यह पुरस्कार यशपाल का संस्पर्श पाकर सम्मानित  हुआ है !

Monday, 19 October 2009

नारियां क्यों बनाती है यौन सम्बन्ध ? एक ताजातरीन जानकारी !

विश्वप्रसिद्ध साप्ताहिक पत्रिका टाईम(अक्टूबर ६ ,२००९) का यह ताजातरीन लेख  महिला सेक्सुअलिटी में रूचि रखने वालो /वालियों के लिए रोचक हो सकता है ! एलायिसा फेतिनी द्बारा लिखा  'व्हाई वीमेन हैव सेक्स " शीर्षक यह लेख हो सकता है यौन कुंठाओं वाले एक बड़े भू भाग के  भारतीय उपमहाद्वीप  का प्रतिनिधि  चित्रण न करता हो मगर एक प्रजाति के रूप में मनुष्य की सहचरी के गोपन व्यवहार का कुछ सीमा तक अनावरण करता ही है ! नैतिक मान्यताओं को लेकर आज बहुत कुछ अस्पष्ट और संभ्रमित  भारतीय मानस भले ही ऐसे अध्ययनों से प्रत्यक्षतः दूरी बनाए रखना चाहता हो मगर  ऐसे अध्ययनों के अकादमीय महत्व को सिरे से नकारा नहीं जा सकता !

टेक्सास विश्वविद्यालय के मनोविज्ञानी द्वय सिंडी मेस्टन और डेविड बस ने दुनिया भर से १००० के ऊपर महिलाओं को इस अध्ययन के लिए चुना और नतीजों को पुस्तकाकार रूप भी दे दिया है -उन्होंने २३७ कारण गिनाएं है की क्यों महिलायें यौन संसर्ग करती हैं /राजी होती हैं ! सबसे आश्चर्यजनक है की महज उदाद्त्त प्रेम ही यौन सम्बन्ध बनाने का अकेला सहज कारण  कम मामलों में पाया गया !  टाइम ने  यौन विषयक अध्येताओं का साक्षात्कार भी छापा है ! सार संक्षेप यहाँ प्रस्तुत है -विषय की समग्र समझ के लिए उक्त लेख और सम्बन्धित  कड़ियों के अनुशीलन की सिफारिश की जाती है !

नर - नारी यौन सम्बन्धों के पीछे शारीरिक आकर्षण ,सुखानुभूति (चरम  आनंद !) की चाह या प्रेमाकर्षण /अनुरक्त्तता जैसे अनेक कारण हो सकते हैं ,मगर नारी यौनोंन्मुखता के पीछे  भावात्मक लगाव की  भूमिका रेखांकित की गयी  है ! नारी, पुरुष से कहीं अधिक ऐसे मामलों में यौन सम्बन्ध की आकांक्षी हो उठती है जहाँ मानसिक /भावात्मक जुडाव महसूस करती है ! जबकि पुरुष प्रकृति वश   अवसर की ताक में भी  रहता है ! नारियां छोटे अवधि के सांयोगिक संबंधो को लेकर खास तौर पर सतर्क और "चूजी "  होती हैं ! पुरुष की यौन सम्बन्धों की चाह के पीछे सहकर्मियों में अपने स्टेटस को ऊंचा उठाने की भी मनोवृत्ति जहां आम तौर पर  देखी गयी है इस अध्ययन  में कुछ नारियों को भी इसी मानसिकता के वशीभूत पाया गया है !

नारियां यौन सम्ब्न्धोन्मुख  कब और क्यों होती हैं के जवाब में अध्येताओं का कहना है कि  उनमें भी यह चाह  लैंगिक आकर्षण ,भौतिक  सुख,प्रेम के प्रागट्य और किसी के प्रति लगाव की अभिव्यक्ति या उद्दीपित होने पर आवेग के शमन के लिए भी हो सकता है ! या फिर यह आत्म गौरव या यौन गौरव  (सेल्फ एस्टीम या सेक्स एस्टीम ) को ऊंचा  उठाने  ,लचीले सहचर को खुद तक आसक्त बनाए  रखने की युक्ति और कुछ मामलों में तो महज सर दर्द को दूर करने के उपाय (हाँ, यह कारगर है !) के रूप में यौन सम्बन्ध की अभिमुखता   देखी गयी है ! अध्येता द्वय ने कामक्रीड़ा की आर्थिकी पर भी एक भरा पूरा अध्याय  लिख मारा है जिसमें प्रतिदान (और प्रतिशोध की भी ! ) भावना लिए नारियों के यौन संसर्ग वर्णित हुए हैं ! कोई काम करने के लिए -भले ही वह घर के कूड़े की सफाई में सहयोग (याद आयी दीवाली ? ) ,रात्रिभोज का पक्का इंतजाम या फिर महंगे (स्वर्ण ) उपहार को यौन संसर्ग से हासिल करने की भी जुगत इस्तेमाल में है ! पुस्तक का एक अध्याय नारी यौन  सम्बन्धों  के काले अध्याय पर भी है जहां वे  धोखे का शिकार होती है ,छली जाती है और बलपूर्वक यौन कर्म में संयुक्त कर ली जाती है !


अध्ययन की एक चौकाने वाली जानकारी यह रही कि  महिलाओं ने कहीं कहीं सेक्स सम्बन्ध महज प्रतिशोध के लिए बनाए -धोखेबाज प्रेमी को यौन जनित रोगों का 'उपहार " अपनी सहेलियों  के जरिये या फिर ईर्ष्यावश सहेली के पहले से ही 'इंगेज्ड ' पार्टनर को कामपाश में बाँधने (मेट पोचिंग ) को भी बखूबी अंजाम दिया गया ! इस घटना को अंजाम देने वाली रोमान्चिताओं ने जहाँ यह स्व -कृत्य बखाना वहीं  इससे पीड़ित नारियों ने भी अपना दुखडा भी  रोया ! मैं इन दिनों खुद अंतर्जाल पर मेट हंटिंग (सावधान :नामकरण का कापीराईट मेरा है ) के एक रोचक यौन व्यवहार के अध्ययन में लगा हूँ ! नतीजा तो शायद गोपन ही रह जाय !

नारी यौनोंन्मुखता के पीछे बकौल डार्विन "फीमेल च्वायस " की बड़ी भूमिका है और यह आज भी सही है ! आज की आधुनिका भी  लाख डेढ़ लाख पहले की उसी आदि अफ्रीकी महिला की ही अविछिन्न वंशज है जिसने अपने निर्णय में कोई चूक नहीं की थी और सही पुरुष पुरातन के चयन से  हमारी वंश बेलि का मार्ग प्रशस्त कर दिया था  -एक लैंगिक निर्णय की सफल महिला की सफल जैवीय दास्ताँ है मानव विकास ! आज उसी महिला महान की वंशधर नारियां वैसी ही  यौन मानसिकता /मनोविज्ञान -पुरातन ज्ञान  का वरण किये हुए हैं जिसका जीवनीय मूल्य है ! उनका यौन चयन आज भी व्यापक मामलों में बेहतर उत्तरजीविता और प्रजनन सफलताओं की गारंटी है !


और यह हकीकत है कि  लैंगिक प्रतिस्पर्धा के जैवीय परिप्रेक्ष्य में "वरणीय नर " जल्दी ही प्रणय आबद्ध हो इंगेज्ड हो उठते  हैं -कोई न कोई उनकी अंकशायिनी बन ही जाती हैं -इस मानवता के परचम को भी तो बुलंद किये रहना है मेरे भाई !  सुयोग्य वर की तलाश इसलिए ही सदैव मुश्किल रहती है -योग्यतम जल्दी चुन जो लिए जाते हैं - कहीं  न कहीं प्रणय  पाश में बध ही जाते हैं. प्रेम या योजित किसी भी तरह के सम्बन्ध में   ! इसतरह योग्य पुरुष के लिए आज भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, नारियों में मनचाहे पुरुष चयन की प्रतिस्पर्धा जारी है !

पूरी किताब भले  न मिल सके इस पूरे आलेख का आस्वादन  यहाँ  मय समस्त कड़ियों और नयनाभिराम चित्रों के किया ही जा सकता है -मेरी सिफारिश है !