Wednesday, 11 February 2009

चार्ल्स डार्विन का अवतरण !


चार्ल्स डार्विन -एक युग द्रष्टा !


जी हाँ आज चार्ल्स डार्विन की दो सौवीं जयंती है -बोले तो द्विशती ! इसी महामानव -वैज्ञानिक मनीषी ने सबसे पहले प्रमाण सहित दुनिया को बताया कि धरा पर सृष्टि की विविधता का रहस्य क्या है ? क्या मनुष्य स्वर्ग से टपका देवदूत है या फिर कपि वानरों से ही उन्नत हुआ एक सभ्य कपि है ! डार्विन के इन विचारों ने तहलका मचा दिया !

आज की वैचारिक दुनिया जिन महान चिन्तकों की विशेष रुप से ऋणी है उनमें, कार्ल मार्क्स (1818-1883), सिगमन्ड फ्रायड (1856-1939) और चाल्र्स डार्विन (12 फरवरी, 1809-19 अप्रैल, 1882) के नाम स्वर्णाच्छरों में अंकित हैं। माक्र्स एवं फ्रायड की विचारधाराओं की प्रासंगिकता को लेकर आज भले ही अनेक सवाल उठ रहे हैं मगर चाल्र्स डार्विन का विकासवाद आज भी दुनियाँ में वैचारिक वर्चस्व बनाये हुए है। डार्विन के जन्म के दो सौ वर्षों बाद भी आज विश्व में चहुँ ओर विकासवाद का डंका बज रहा है। समूचा कृतज्ञ विश्व वर्ष (2009) भर चाल्र्स डार्विन की दो सौंवीं जयन्ती मनाने को मानो कृत संकल्प है- यह सवर्था उचित ही है कि भारत भी इस महान विकासविद् की द्विशती जोर-शोर से आयोजित करे। यह आलेख इसी अभियान की एक विनम्र प्रस्तुति भर है।

जन्म और बचपन!
महान विकासविद् चाल्र्स डार्विन का जन्म ठीक उसी दिन हुआ जिस दिन अमेरिका के एक जाने माने राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन भी जन्में थे। यानि 12 फरवरी, 1809 यह एक अद्भुत संयोग था क्योंकि एक ओर तो जहाँ चाल्र्स डार्विन के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने मनुष्य के मस्तिष्क को अज्ञानता के अभिशाप से मुक्त कराया वहीं कौन नहीं जानता कि लिंकन ने मनुष्य के शरीर को दासता की बेड़ियों से आजादी दिलायी।

चाल्र्स डार्विन इंग्लैंड के एक शहर श्रूसबेरी में जन्में-बचपन में वे बड़े ही शील संकोची थे मगर अपने परिवेश के प्रति बहुत जागरुक थे। उन्हें तरह-तरह के प्राकृतिक साजो-सामान-चिड़ियों के अंडों, घोसलों, कीट पतंगों, सीपियों और घोंघों को इकट्ठा करने का शौक था- प्रकृति प्रेम में रमें बालक डार्विन में मानों भविष्य का एक महान प्रकृतिविद् पनप रहा था। प्रकृति निरीक्षण की अपनी इस बाल लीला में वे जीवों को मारकर नहीं बल्कि उनके मृत स्पेशीमनों को ही इकट्ठा करते थे। वे उन्हें अपने हाथों मारना नहीं चाहते थे। मगर चिड़ियों के मामले में जाने क्यूँ वे अहिंसा का आचरण छोड़ अपनी एयरगन से उनका शिकार करने दौड़ पड़ते। लेकिन यहाँ भी एक दिन एक घायल पक्षी की तड़फड़ाहट से वे विचलित हो उठे और आजीवन जीव जन्तुओं को मात्र आखेट के लिए मारने की प्रतिज्ञा कर बैठे। अब मानों उनमें महात्मा बुद्ध की करुणा का भी समावेश हो उठा था।

डार्विन के कई जीवनी लेखकों का मानना है कि डार्विन की विनम्रता उन्हें अपनी माँ से मिली थी। किन्तु जब डार्विन मात्र 8 वर्ष के ही थे उनकी माँ चल बसी। उनके पिता डॉ0 राबर्ट बेरिंग जो अपने बेटे के ही शब्दों में ``एक बहुत बुद्धिमान व्यक्ति थे´ खुद अपने पुत्र को भलीभाँति समझ नही पा रहे थे। वे आये दिनों चाल्र्स द्वारा घर में इकट्ठा किये जा रहे अजीबोगरीब चीजों के कबाड़ से ऊब चुके थे। उन्होंने बालक चाल्र्स को लैटिन और ग्रीक भाषाओं को सिखाने वाले पारम्परिक स्कूल में दाखिला दिलाया पर चाल्र्स की रुचि भाषा साहित्य में होकर अपनी अदम्य जिज्ञासाओं को शान्त करने में थी। लिहाजा उन्होंने घर के पिछवाड़े ही चोरी छिपे एक रसायन शास्त्र की प्रयोगशाला स्थापित कर ली। स्कूल के साथियों ने चाल्र्स का नया नाम रखा - `गैस´ आखिर रोज-रोज की इन कारगुजारियों से ऊब कर डा0 राबर्ट ने अपने शरारती बच्चे का दाखिला एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में करा दिया-चिकित्सा शास्त्र के अध्ययन के लिए

चाल्र्स डार्विन ने इस नये माहौल में शुरू शुरू में तो अपने को सभाँलने का प्रयास किया मगर शल्य चिकित्सा के व्याख्यानों से उन्हें ऊब होने लगी। उस समय एनेस्थेसिया का प्रचलन तो था नहीं, बिना संज्ञा शून्य किये ही आपरेशन कर दिये जाते थे। रोगियों के आर्तनाद से डार्विन को इस पेशे से वितृष्णा होने लगी। डार्विन की इस पेशे से अरूचि उनके पिता से छुप सकी। और थक हार कर उन्होंने अपने बेटे को पादरी बनाने का अनचाहा निर्णय ले लिया। यहाँ भी चाल्र्स को उनके मुताबिक माहौल नहीं मिल सका पर यहीं उनकी मुलाकात अपने समय के मशहूर वैज्ञानिक प्रोफेसर हैन्स्लो से हो गई, जिनकी सिफारिश पर ही उन्हें एच0एम0एस0 बीगल जलपोत में यात्रा का सुअवसर मिल सका।

साईनटिफिक अमेरिकन का जनवरी 09 अंक
जो विकासवाद और डार्विन पर ही केंद्रित है !



जारी ........

Monday, 9 February 2009

देखी मैंने ये पीठ मुद्राएँ ! (पुरूष पर्यवेक्षण )

इन दिनों पीठ पर प्यार की थपकी देते फिर रहे ओबामा
किसी का स्वामित्व स्वीकारना है तो झुक कर पीठ दिखा दीजिये -मतलब आगे की ओर झुक कर सर नीचे करते हुए .और अगर आप साष्टांग लेट ही गए तो फिर कहना ही क्या आपने सम्पूर्ण समर्पण ही कर दिया .वैसे यह साष्टांग दंडवत वाली मुद्रा अमूमन ईश्वर को ही समर्पितहोती है -उससे बड़ा जबरा कौन है ? मगर सावधान अगर आप ने मुड़ कर पीठ दिखा दी समझे गये काम से !इसका मतलब हुआ की आपने सामने वाले का अपमान कर डाला ! याद है फिल्मों में बादशाहों के दरबार के वे सीन जिसमें बादशाह के सामने फरियाद के बाद दरबार से वापस होते समय फरियादी या /और सैनिक उल्टे क़दमों ही चल कर बाहर निकलते दिखाए जाते हैं ! यहाँ पीठ दिखाने का भाव शत्रु से पीठ दिखा कर भाग जाने से बिल्कुल अलग है ।
किसी दबंग या सम्मानित आदमी के सामने ही मुड़ कर पीठ दिखाने का मतलब है की आप उसका अपमान कर रहे हैं .उसके प्रभुत्व को नजरअंदाज कर रहे हैं ! और ध्यान रहे किसी से तुंरत परिचय के बाद तो आप तुंरत उसकी ओर पीठ न मोडें -वह अपने को अपमानित समझेगा ! यह भाव भंगिमा शिष्टाचार के भी विरुद्ध है ,अपने बास से आफिस या आफिस से बाहर भी इसका ख़याल रखें !
एक मुद्रा है अपने दोनों हाथों को पीछे ले जाकर गर्दन के पीछे ,पीठ ऊपर बाँधना ! यानी "आर्म्स बिहाईंड बैक" यह एक बेहद दबंग मुद्रा है . ऊंचे स्टेटस ,राजसी परम्परा के लोग ,नेता लोग इस मुद्रा को अपना लेते हैं -यहाँ तक कि स्कूल के ग्राऊंड में बच्चों के बीच चहलकदमी करते मास्टर साहब भी अक्सर यह मुद्रा अपना लेते हैं भले ही इंसपेक्टर साहब के आ जाने पर भीगी बिल्ली बन झुक झुक कर पीठ दिखाते फिरें !
बच्चे झूंठ बोलते वक्त हाथों को पीठ पीछे ले जाकर उँगलियों को उलझाते है -किसी की पीठ थपथपाना कामतलब ही है शाबासी - उत्साहित करना ,यह दोस्ताना अंदाज भी है ,बधाई देने का लहजा भी है और हंसी मजाक की भी एक मुद्रा है ! यह किसी को प्रेम से बाहों में भर लेने का मिनिएचर फार्म है और इसका उदगम बचपन में स्नेहमयी माँ की गोद की सुरक्षा और उसका प्यार से पीठ को सहलाने और थपकियाँ देने से ही है .मुन्ना भाई एम् बी बी एस के सौजन्य से आज प्रचलित जादू की झप्पी का उदगम् भी यही है -अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा भी पीठ पर थपकी देना नहीं भूलते -इसका असर जादुई है -ख़ुद आजमा के देखें ! यह हमारे बचपन के कुछ बहुत आश्वस्ति भरे क्षणों की अनुगूंज है ।

Thursday, 5 February 2009

अब पीठ पीछे पुरूष पर्यवेक्षण !

रोयेंदार पुरूष पीठ -आकर्षक या अनाकर्षक ?
पीठ पीछे किसी की बुराई और पीठ दिखा देने की बातों का सम्बन्ध मानवीय कमजोरियों से ही है -मगर मशहूर कवि कैलाश गौतम जी की एक बात मुझे अक्सर याद आ जाती है -सरकारी मुलाजिम की पीठ और कसाई की काठ एक ही जैसी हैं जो कितनी ही चोट झेलती रहती हैं पर फिर भी रोज साफ़ सुथरी होकर तैयार हो जाती हैं नयी चोट झेलने के लिए ! दरअसल हमारी पीठ ऐसी मजबूत बनी ही हुयी है -जब से आदमी चौपाये से दोपाया बना उसकी पीठ की मांसपेशियों पर तनाव बढ़ता गया -पीठ की तीन प्रमुख मांसपेशियां हैं -सबसे ऊपरी हिस्से में ट्रेपेजियास .मध्य पीठ में डारसल और नीचे ग्लूटील .ये तीनों मांसपेशियां ही हमें सीधा रखने में हमेशा तनी रहती हैं ।
अब चूंकि ३३ हड्डियों वाले मेरुदंड को भी पीठ द्वारा ही सरंक्षित करने का दायित्व है इसलिए मनुष्य की पीठ की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण है .हमारा मेरुदंड आधुनिक वैज्ञानिकों ,चिकित्सकों के लिए अद्ययन का विषय तो है ही यह कितने ही आध्यात्मियों ,तांत्रिकों आदि के लिए भी पहेली बना आरहा है और कुण्डलिनी और ब्रह्म रंध्र जागरण के अनेक विचित्र प्रयोगों का माध्यम भी रहा है -इसलिए पीठ पूजा भी व्यवहार मे रही है .पीठ एक मजबूत आधार है इसलिए हम महत्वपूर्ण वक्तियों ,प्रतिष्ठानों,गतिविधि केन्द्रों को "पीठ "की संज्ञा से भी संबोधित करते हैं -धर्म के
उत्थान और संचार के पीठों की स्थापना के जगद्गुरू शंकराचार्य के प्रयासों से भला कौन अपरिचित होगा ?
वैसे तो मनुष्य की पीठ बिना रोएँ की यानी निर्लोम होती है मगर एकाध पुरुषों की पीठ पर घने बाल भी देखे जा सकते हैं .अब मनुष्य की पीठ के यौनाकर्षण के मुद्दे पर नारियों के विचार बटें हुए हैं -कुछ के अनुसार ये अति पौरुष के "सुपर नारमल जेंडर सिग्नल " के संकेत के तौर पर आकर्षक हैं मगर ऐसा भी विचार है कि यह मानवेतर कपि सदृश लक्षण होने के कारण पूरी तरह अनाकर्षक है .इन दूसरे विचार धारक के शब्दों में पुरूष की निर्लोम त्वचा ही स्पर्श की रुझान उत्पन्न करती है ।
एक पते की बात यह ही कि सूर्य की रोशनी -यानी धूप सेंकने पर उपरोक्त वर्णित मांसपेशियों में रक्त परिवहन बढ़ जाता है और उस पर सधे हाथों से की गयी मालिश मांसपेशियों के अधिक तनाव को खत्म कर देती है -शरीर हल्का फुल्का और तनाव से रहित हो जाता है -यह आजमूदा नुस्खा है तनाव शैथिल्य का .इसलिए ही मसाज पार्लर का व्यवसाय कई जगहों -केरल आदि में आसमान छू रहा है ! आज अप्राकृतिक जीवन शैली के चलते शहरी लोगों में तनाव की शिकायत बढ़ रही है
कई अध्ययन यह भी इंगित करते हैं कि हृदयाघात से जुड़े पीठ के दर्द के अलवा भी पीठ के दर्द का एक किस्म वह है जिनके मूल में सेक्सजीवन का नैराश्य भी है और इसका इलाज भी कोई दवा दारू नहीं बल्कि रति क्रिया की बारम्बारता में वृद्धि ही है ! इस बिन्दु पर मेरे एक मित्र की आनुभूतिक प्रतिक्रया भी शायद आए अगर वे इसे पढ़ रहे हैं तो !

Tuesday, 3 February 2009

कैसे लम्बी होती गयी जिराफ की गरदन ? (डार्विन द्विशती )


ठीक वैसे ही जैसे कि सेब का जमीन पर गिरना न्यूटन के दिमाग में एक प्रश्न चिह्न बनकर कौंध गया था -एक दूसरे वैज्ञानिक लैमार्क (१७४४-१८२९) को जिराफ की लम्बी गर्दन देखकर काफी हैरत हुई थी और इस मसले को हल करने में वे जी जान से जुट गये ! उन्होंने यह दावा किया कि जिराफ का पुरखा कभी छोटे मझोले आकार का रहा होगा किंतु वातावरण के परिवर्तनों के चलते जैसे जैसे उसके पसंद के पेड़ पौधे ऊंचे होते गए उसे उचक उचक कर खाने का उपक्रम करना पड़ता रहा होगा जिससे कालान्तर में जिराफ की गरदन लम्बी होती गयी । आशय यह कि अर्जित लक्षणों का पीढी दर पीढी संवहन होता है ऐसा लैमार्क ने सोचा .यहाँ तक तो सही था मगर उन्होंने अपनी इस व्याख्या को जब काई दूसरे उदाहरणों से साबित करना चाहा तो विवाद उठ खडा हुआ ।
लैमार्क ने समझाने का प्रयास किया कि यदि कोई पहलवान नियमित वर्जिश से अपनी मुश्कों को उभारता जाता है और उसकी आगामी पीढियां ऐसा ही करती चलती हैं तो एक अलग पहलवान जाति ही वजूद में आ जायेगी जिसकी आगामी वंशबेली बलिष्ठ मुश्कों वाली ही होगी ! लैमार्क ने इसका विस्तार से वर्णन अपनी पुस्तक जुलोजिकल फिलासाफी (१८०९) में किया है .मगर लोगों ने लैमार्क के दावों को जाँचना शुरू किया -एक वैज्ञानिक वीजमैन ने २४ पीढियों तक चूहों की पूंछ काटी और देखा कि फिर भी चूहों की पूंछ आगामी पीढियों में बरकरार है -मतलब यह कि लैमार्क का दावा कि अर्जित लक्षण पीढी दर पीढी चलते रहते हैं खोखला साबित हुआ !
दरअसल लैमार्क की व्याख्या ही त्रुटिपूर्ण थी -उपार्जित लक्षणों का वन्शानुगमन तो होता है पर यह एक दैहिक प्रक्रिया न होकर जनन कोशाओं के जरिये सम्पन्न होती है ! पर कैसे?? इसका उत्तर देने के लिए एक महान वैज्ञानिक धरती पर जन्म ले चुका था ! जिसके बारे में हम आगे जानेगें ! आज बस इतना ही !
ऊपर का चित्र बताता है कि कैसे जिराफ की गर्दन लगातार उपयोग के कारण लम्बी होती गयी और जिस प्राणी ने गर्दन नहीं उचकाई उसकी गर्दन वैसे ही छोटी रह गयी !
और यह रहे लैमार्क महाशय !

Thursday, 29 January 2009

पुरूष पर्यवेक्षण - छाती पर मूंग दलने की बारी !

भी मौजूद हैं छाती पर बाल !
वज्र की छाती ,छाती पर मूंग दलना ,छाती का गज भर फूल जाना कुछ ऐसे मुहावरे हैं जो प्रायः पुरुषों के ही संदर्भ में इस्तेमाल होते हैं .दरअसल शिकारी जीवन की लम्बी वैकासिक प्रक्रिया के दौरान पुरुषों की छाती /सीना चौडा होता गया जिससे फेफडों को अधिक आक्सीजन मिल सके और शिकार के पीछे भागते समय धौकनी की तरह सक्रिय सीने से आक्सीजन की लगातार समुचित मात्रा तो मिले ही लंबे समय तक स्टेमिना भी कायम रहे ! आज भी पुरूष अपनी उसी विरासत को ढोते हुए गर्व से सीना फुलाए फिरता है .जबकि आज वह शिकारी नही रह गया है ।
आज भी कई लोगों के सीने पर बालों की अच्छी खासी फसल यही इंगित करती है कि शिकारी जीवन के दौरान इन्ही बालों से ऊष्मा के तीव्र ह्रास से कलेजे को भाग दौड़ के समय भी ठंडक पहुँचती रहती थी ! मगर अब शिकारी जीवन तो रहा नहीं और न ही उस तरह का लगातार परिश्रम इसलिए छाती से बालों की फसल भी अब तेजी से खात्में पर आ रही है .मनुष्य की चौड़ी छाती उसके पौरुष और शौर्य का प्रतीक है .वह सुरक्षा, संरक्षा और आराम का आश्वासन भी देती है -ब्लॉग जगत की एक समादृत कवयित्री के शब्दों में '' मेरा तो मन करता है कि पुरूष सीने पर सर रख कर कुछ वैसे ही पुरसकूँ और निश्चिंत सी हो जाऊं जैसे एक गौरिया अपने घोसलें में दुबक कर सुरक्षित हो जाती है
अब छाती जब दिल को कवर करती है तो मामला रोमांटिक होना लाजिमी ही है -कई स्नेह सम्बन्धों का सेतु छाती बनती ही है -अब आप ही बताईये आप नन्हे से प्यारे शिशु को गोंद मे लेते हैं तो वह छाती के किस ओर रहता है -बाईं ओरही न ! पूरी दुनिया में बच्चों को बाईं ओर गोंद में लेने (कोरां उठाने ) का ही चलन है -दायीं ओर बस अपवाद तौर पर ही बच्चों को गोंद में उठाया जाता है .ऐसा नही है कि बच्चों को बायीं ओर गोंद में लेने के लिए किसी को सिखाया जाता हो -ऐसा अवचेतन में ही है ! बायीं ओर दिल हैं न ,इसलिए बच्चा बाई ओर के सीने से जा लगता है जहाँ उसे सकून मिलता है और हम भी ऐसा अवचेतन में ही करते हैं -मैंने बच्चों को दाहिनी ओर लेने की चैतन्य आदत डाली और देखा दाहिनी ओर भी बच्चे को लेना आसान है पर बच्चों को उन्हें दाहिनी ओर गोंद में लेने पर कैसा लगता है यह नही जाना जा सका है क्योंकि छोटे बच्चों से बड़ों जैसा सवाल जवाब सम्भव नही है ।

छाती /सीना पीटने का रिवाज भी कुछ संसकृतियों में शौर्य का प्रदर्शन या गम का इजहार है .छाती पर क्रास बनाना ,दाहिने हाथ का बायीं ओर की छाती पर टिकाना ये सभी शान्ति और सौहार्द के संकेत हैं .

Wednesday, 28 January 2009

धरती पर कुल कितने जीव जंतु हैं ? (डार्विन द्विशती )

आकर चार लाख चौरासी ?
कभी आपके मन में यह सवाल कौंधा है कि इस धरती पर कुल कितने जीव जंतु हैं ? यह सवाल हमारे पूर्वजों के मन को भी मथता रहा है । बाबा तुलसी ने रामचरितमानस में इसे यूँ कूता -

आकर चार लाख चौरासी ,जाति जीव जल थल नभ वासी -मतलब चौरासी लाख जीव जंतु जमीन ,वायु और पानी में निवास करते हैं ! इस मामले में वैज्ञानिक किसी निश्चित संख्या तक नही पहुँच पाए हैं बल्कि ये मानते हैं कि इस ग्रह पर जीव जन्तुओं की संख्या पाँच लाख से १० करोड़ तक कुछ भी हो सकती है मगर अभी तक पहचाने गए जीवों की संख्या १५ लाख नवासी हजार तीन सौ इकसठ है -मतलब अभी तक तुलसी दास द्वारा आकलित संख्या तक जीवों की पहचान नही हो पायी है नित नए जीव खोजे जा रहे हैं .

जो जीव अभी तक पहचाने गए हैं उनमें अकेले कीट पतंगों की ही प्रजाति संख्या ९ लाख पचास हजार है .५ हजार चार सौ सोलह स्तनधारी हैं , 9,956 चिडियां हैं , 8,240 रेंगने वाले जीव यानि सरीसृप हैं , 6,१९९ मेढक सरीखे जल और थल दोनों जगह रहने वाले जीव हैं .ये तो रहे रीढ़ वाले प्राणि .अब बिना रीढ़ वाली प्रजातियाँ जो जानी जा सकी हैं 1,203,375 हैं ! 297,326 पेड़ पौधों की प्रजातियाँ हैं - कुछ अन्य जातियों में लायिकेन दस हजार ,मशरूम सोलह हजार .और भूरे शैवाल दो हजार आठ सौ उनचास है .कुल 1,589,361 !

अब हम फिर अपने पुराने सवाल पर लौटते हैं क्या इन सभी प्रकार के जीवों को ब्रह्मा या अल्लाह मियाँ या गाड ने फुरसत से अलग अलग गढा है ? जैसे कुम्भार अपनी चाक पर मिट्टी के तरह तरह खिलौने और बर्तन बनाता है ? एक वैज्ञानिक हुए हैं कैरोलस लीनियस (१७०७-१७७८) उन्होंने जीवों की इस अपार विविधता को समझने बूझने में बड़ा मन लगाया और उनकी पहचान की एक द्विनामी पद्धति लागू की जो आज भी प्रचलन में है .अब जैसे उसी द्विनामी पद्धति में मनुष्य यानी हम सब का दुहरा नाम है -होमो सैपिएंस जिसमें होमो शब्द हमारे बृहद गण को बताता है जिसमें केवल हमारी ही प्रजाति अब धरती पर है शेष की हालत है कि रहा न कुल कोऊ रोवन हारा -होमो इरेक्टस ,होमो हैबिलिस आदि जातियाँ कब की काल के गल में समां चुंकी ! होमो नियेनडरथेलेंसिस काफी करीबी रिश्ते में था पर वह भी धरा से मिट गया -हमारे आगे वह भी टिक नही पाया ! आज होमो गण की अकेली सैपिएंस प्रजाति यानि हम सब समूची धरा पर अकेले काबिज है ! पर कब तक ??
तो क्या हमारी प्रजाति और दीगर जीव जंतुओं में कोई संबध भी है या अलाह मियाँ ने मनुष्य और दीगर जीवों को अलग अलग बनाया है ? ऐरिस्टाटिल (३८४-३२२ ईसा पूर्व ) कुछ कुछ अवतारवाद की ही तर्ज पर माना कि जीव रूपाकार बदल कर दूसरे तरह तरह के जीवों में बदलते जाते हैं .उन्होंने यह माना कि पदार्थ जीवों में बदलते हैं जिसे अंडे के भीतर के पदार्थ का मुर्गे /मुर्गी में रूपांतरण हो जाता है ! मगर फिर यह सवाल आया कि पहले कौन पैदा हुआ मुर्गी या अंडा ? यह सवाल अभी भी हंसी मजाक में लोग बाग़ पूंछते हैं मगर जवाब देने वाला गंभीर हो जाता है ।
इस कड़ी की अगली पोस्ट तक आप भी इस मुद्दे पर थोडा विचार कर लें कि पहले अंडा आया या मुर्गी ? अगर अंडा तो वह कहाँ से आया ? और अगर मुर्गी तो वह बिना अंडे से कहां से धमक पडी ?











Monday, 26 January 2009

आख़िर ये दुनिया किसने बनाई ? (डार्विन द्विशती श्रृंखला )

ये है पशु और मनुष्य का मिश्रित रूप -अवतार नृसिंह
इतने ढेर सारे जीव जंतु -पशु पक्षी ,पेड़ पौधे ,कीडे मकोडे आखिर किसने बनाया इनको ? और कब बनाया ? सृष्टि कैसे और कब वजूद में आयी ? आज भले ही नब्बे फीसदी लोग इन सवालों पर सोच विचार न करते हों मगर हमारे पुरखों ने इन पर खूब विचार मंथन किया था .हिन्दू पुराण कहते हैं कि क्षीर सागर में सोये विष्णु की नाभि से एक कमल नाल उगी और जिसमें कमल के खिलने के साथ ब्रह्मा भी उसी से पैदा हो गये -फिर जीव जंतुओं से लेकर आदमीं तक सारी सृष्टि उन्होंने रच डाली ! उनकी स्पर्धा में आगे विश्वामित्र भी आए और कुछ चीजें जैसे नारियल ,ऊँट आदि उन्होंने बनाया ! जब एक बार महा प्रलय आयी तो विष्णु ने ही मछली का अवतार लेकर एक नौका में मनु और सतरूपा की देखरेख में सृष्टि को सर्वनाश से बचाया .यह प्रलय की कथा का दुनिया के सभी प्रमुख धर्मों में में जिक्र है -बाईबल में इसे आर्क आव नोवा कहते हैं ,कुरान में हजरत नूह की कश्ती ! साथ ही बाईबिल में ईश्वर के हीद्वारा इडेन के बगीचे में आदम और हौवा के सृजन की विस्तार सेचर्चा ही जिन्होंने वर्जित फल खा कर आगे की आबादी को अंजाम दिया ,
क्या पुरानों और धर्मों की इन मान्यताओं को आप सच मानते हैं ? या आपके मन में जीव जंतुओं के अस्तित्व और उनकी विविधता को लेकर कोई और ख्याल आता है ? क्या सच में इन्हे ईश्वर ने ही बनाया ?? हिन्दू दर्शन जीवों के उत्तरोत्तर विकसित होने की एक अवधारणा जिसे हम अवतारवाद जह सकते हैं ,रखता है -पहले मछली ,फिर कच्छप ,फिर घोडे सदृश प्राणी ,फिर वाराह ,फिर पशु और फिर मनुष्य के बीच का नरसिंह अवतार और फिर पूर्ण विकसित मनुष्य , भगवान राम ,कृष्ण और संभावित कल्कि आदि ! तो धरती पर जीवजंतुओं के आगमन और उनके विकास की एक झलक हिन्दू मिथकों में तो मिलती है .मगर सच क्या है ?
क्या सचमुच किसी ईश्वरीय शक्ति ने ही जीवों को सृजित किया है ? आप क्या सोचते हैं ? यह पूरा वर्ष अंग्रेज वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन की द्विशती मना रहा है -उनका जन्म १२ फरवरी १८०९ को श्रूस्बेरी इंग्लैंड में हुआ था .इन महाशय ने तो जीव जंतुओं के वजूद को लेकर पहले के विचारों को सिरे से खारिज कर दिया और कहा कि जीव जंतुओं की इतनी विविधता महज इसलिए है कि उनका विकास हुआ है और मछली से मनुष्य तक बनने में करोडो वर्ष लगे हैं .सभी जीव जंतु पृथक पृथक नही सृजित हुए हैं बल्कि उनमें गहरा सम्बन्ध है !
चिंतन के इतिहास में इस विचार से मानों जलजला आ गया ! चर्च ने तो डार्विन को गहरे फटकारा ! पर आज सुनते हैं दो सौ सालो बाद चर्च ने डार्विन से सरेआम माफी मांग ली है और स्वीकार कर लिया है कि तब के पादरियों से डार्विन को समझने में भूल हो गयी थी !

"The statement will read: Charles Darwin: 200 years from your birth, the Church of England owes you an apology for misunderstanding you and, by getting our first reaction wrong, encouraging others to misunderstand you still. We try to practise the old virtues of 'faith seeking understanding' and hope that makes some amends."
-Rev Dr Malcolm Brown, the Church's director of mission and public affairs,The Church of England .
चलो देर आयद दुरुस्त आयद !पर हिन्दू आज इस मसले पर क्या सोचता है ? क्या सृष्टि को सचमुच ईश्वर ने नही बनाया ? इस्लाम के अनुयायी क्या सोचते हैं ?