Thursday, 5 February 2009

अब पीठ पीछे पुरूष पर्यवेक्षण !

रोयेंदार पुरूष पीठ -आकर्षक या अनाकर्षक ?
पीठ पीछे किसी की बुराई और पीठ दिखा देने की बातों का सम्बन्ध मानवीय कमजोरियों से ही है -मगर मशहूर कवि कैलाश गौतम जी की एक बात मुझे अक्सर याद आ जाती है -सरकारी मुलाजिम की पीठ और कसाई की काठ एक ही जैसी हैं जो कितनी ही चोट झेलती रहती हैं पर फिर भी रोज साफ़ सुथरी होकर तैयार हो जाती हैं नयी चोट झेलने के लिए ! दरअसल हमारी पीठ ऐसी मजबूत बनी ही हुयी है -जब से आदमी चौपाये से दोपाया बना उसकी पीठ की मांसपेशियों पर तनाव बढ़ता गया -पीठ की तीन प्रमुख मांसपेशियां हैं -सबसे ऊपरी हिस्से में ट्रेपेजियास .मध्य पीठ में डारसल और नीचे ग्लूटील .ये तीनों मांसपेशियां ही हमें सीधा रखने में हमेशा तनी रहती हैं ।
अब चूंकि ३३ हड्डियों वाले मेरुदंड को भी पीठ द्वारा ही सरंक्षित करने का दायित्व है इसलिए मनुष्य की पीठ की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण है .हमारा मेरुदंड आधुनिक वैज्ञानिकों ,चिकित्सकों के लिए अद्ययन का विषय तो है ही यह कितने ही आध्यात्मियों ,तांत्रिकों आदि के लिए भी पहेली बना आरहा है और कुण्डलिनी और ब्रह्म रंध्र जागरण के अनेक विचित्र प्रयोगों का माध्यम भी रहा है -इसलिए पीठ पूजा भी व्यवहार मे रही है .पीठ एक मजबूत आधार है इसलिए हम महत्वपूर्ण वक्तियों ,प्रतिष्ठानों,गतिविधि केन्द्रों को "पीठ "की संज्ञा से भी संबोधित करते हैं -धर्म के
उत्थान और संचार के पीठों की स्थापना के जगद्गुरू शंकराचार्य के प्रयासों से भला कौन अपरिचित होगा ?
वैसे तो मनुष्य की पीठ बिना रोएँ की यानी निर्लोम होती है मगर एकाध पुरुषों की पीठ पर घने बाल भी देखे जा सकते हैं .अब मनुष्य की पीठ के यौनाकर्षण के मुद्दे पर नारियों के विचार बटें हुए हैं -कुछ के अनुसार ये अति पौरुष के "सुपर नारमल जेंडर सिग्नल " के संकेत के तौर पर आकर्षक हैं मगर ऐसा भी विचार है कि यह मानवेतर कपि सदृश लक्षण होने के कारण पूरी तरह अनाकर्षक है .इन दूसरे विचार धारक के शब्दों में पुरूष की निर्लोम त्वचा ही स्पर्श की रुझान उत्पन्न करती है ।
एक पते की बात यह ही कि सूर्य की रोशनी -यानी धूप सेंकने पर उपरोक्त वर्णित मांसपेशियों में रक्त परिवहन बढ़ जाता है और उस पर सधे हाथों से की गयी मालिश मांसपेशियों के अधिक तनाव को खत्म कर देती है -शरीर हल्का फुल्का और तनाव से रहित हो जाता है -यह आजमूदा नुस्खा है तनाव शैथिल्य का .इसलिए ही मसाज पार्लर का व्यवसाय कई जगहों -केरल आदि में आसमान छू रहा है ! आज अप्राकृतिक जीवन शैली के चलते शहरी लोगों में तनाव की शिकायत बढ़ रही है
कई अध्ययन यह भी इंगित करते हैं कि हृदयाघात से जुड़े पीठ के दर्द के अलवा भी पीठ के दर्द का एक किस्म वह है जिनके मूल में सेक्सजीवन का नैराश्य भी है और इसका इलाज भी कोई दवा दारू नहीं बल्कि रति क्रिया की बारम्बारता में वृद्धि ही है ! इस बिन्दु पर मेरे एक मित्र की आनुभूतिक प्रतिक्रया भी शायद आए अगर वे इसे पढ़ रहे हैं तो !

Tuesday, 3 February 2009

कैसे लम्बी होती गयी जिराफ की गरदन ? (डार्विन द्विशती )


ठीक वैसे ही जैसे कि सेब का जमीन पर गिरना न्यूटन के दिमाग में एक प्रश्न चिह्न बनकर कौंध गया था -एक दूसरे वैज्ञानिक लैमार्क (१७४४-१८२९) को जिराफ की लम्बी गर्दन देखकर काफी हैरत हुई थी और इस मसले को हल करने में वे जी जान से जुट गये ! उन्होंने यह दावा किया कि जिराफ का पुरखा कभी छोटे मझोले आकार का रहा होगा किंतु वातावरण के परिवर्तनों के चलते जैसे जैसे उसके पसंद के पेड़ पौधे ऊंचे होते गए उसे उचक उचक कर खाने का उपक्रम करना पड़ता रहा होगा जिससे कालान्तर में जिराफ की गरदन लम्बी होती गयी । आशय यह कि अर्जित लक्षणों का पीढी दर पीढी संवहन होता है ऐसा लैमार्क ने सोचा .यहाँ तक तो सही था मगर उन्होंने अपनी इस व्याख्या को जब काई दूसरे उदाहरणों से साबित करना चाहा तो विवाद उठ खडा हुआ ।
लैमार्क ने समझाने का प्रयास किया कि यदि कोई पहलवान नियमित वर्जिश से अपनी मुश्कों को उभारता जाता है और उसकी आगामी पीढियां ऐसा ही करती चलती हैं तो एक अलग पहलवान जाति ही वजूद में आ जायेगी जिसकी आगामी वंशबेली बलिष्ठ मुश्कों वाली ही होगी ! लैमार्क ने इसका विस्तार से वर्णन अपनी पुस्तक जुलोजिकल फिलासाफी (१८०९) में किया है .मगर लोगों ने लैमार्क के दावों को जाँचना शुरू किया -एक वैज्ञानिक वीजमैन ने २४ पीढियों तक चूहों की पूंछ काटी और देखा कि फिर भी चूहों की पूंछ आगामी पीढियों में बरकरार है -मतलब यह कि लैमार्क का दावा कि अर्जित लक्षण पीढी दर पीढी चलते रहते हैं खोखला साबित हुआ !
दरअसल लैमार्क की व्याख्या ही त्रुटिपूर्ण थी -उपार्जित लक्षणों का वन्शानुगमन तो होता है पर यह एक दैहिक प्रक्रिया न होकर जनन कोशाओं के जरिये सम्पन्न होती है ! पर कैसे?? इसका उत्तर देने के लिए एक महान वैज्ञानिक धरती पर जन्म ले चुका था ! जिसके बारे में हम आगे जानेगें ! आज बस इतना ही !
ऊपर का चित्र बताता है कि कैसे जिराफ की गर्दन लगातार उपयोग के कारण लम्बी होती गयी और जिस प्राणी ने गर्दन नहीं उचकाई उसकी गर्दन वैसे ही छोटी रह गयी !
और यह रहे लैमार्क महाशय !

Thursday, 29 January 2009

पुरूष पर्यवेक्षण - छाती पर मूंग दलने की बारी !

भी मौजूद हैं छाती पर बाल !
वज्र की छाती ,छाती पर मूंग दलना ,छाती का गज भर फूल जाना कुछ ऐसे मुहावरे हैं जो प्रायः पुरुषों के ही संदर्भ में इस्तेमाल होते हैं .दरअसल शिकारी जीवन की लम्बी वैकासिक प्रक्रिया के दौरान पुरुषों की छाती /सीना चौडा होता गया जिससे फेफडों को अधिक आक्सीजन मिल सके और शिकार के पीछे भागते समय धौकनी की तरह सक्रिय सीने से आक्सीजन की लगातार समुचित मात्रा तो मिले ही लंबे समय तक स्टेमिना भी कायम रहे ! आज भी पुरूष अपनी उसी विरासत को ढोते हुए गर्व से सीना फुलाए फिरता है .जबकि आज वह शिकारी नही रह गया है ।
आज भी कई लोगों के सीने पर बालों की अच्छी खासी फसल यही इंगित करती है कि शिकारी जीवन के दौरान इन्ही बालों से ऊष्मा के तीव्र ह्रास से कलेजे को भाग दौड़ के समय भी ठंडक पहुँचती रहती थी ! मगर अब शिकारी जीवन तो रहा नहीं और न ही उस तरह का लगातार परिश्रम इसलिए छाती से बालों की फसल भी अब तेजी से खात्में पर आ रही है .मनुष्य की चौड़ी छाती उसके पौरुष और शौर्य का प्रतीक है .वह सुरक्षा, संरक्षा और आराम का आश्वासन भी देती है -ब्लॉग जगत की एक समादृत कवयित्री के शब्दों में '' मेरा तो मन करता है कि पुरूष सीने पर सर रख कर कुछ वैसे ही पुरसकूँ और निश्चिंत सी हो जाऊं जैसे एक गौरिया अपने घोसलें में दुबक कर सुरक्षित हो जाती है
अब छाती जब दिल को कवर करती है तो मामला रोमांटिक होना लाजिमी ही है -कई स्नेह सम्बन्धों का सेतु छाती बनती ही है -अब आप ही बताईये आप नन्हे से प्यारे शिशु को गोंद मे लेते हैं तो वह छाती के किस ओर रहता है -बाईं ओरही न ! पूरी दुनिया में बच्चों को बाईं ओर गोंद में लेने (कोरां उठाने ) का ही चलन है -दायीं ओर बस अपवाद तौर पर ही बच्चों को गोंद में उठाया जाता है .ऐसा नही है कि बच्चों को बायीं ओर गोंद में लेने के लिए किसी को सिखाया जाता हो -ऐसा अवचेतन में ही है ! बायीं ओर दिल हैं न ,इसलिए बच्चा बाई ओर के सीने से जा लगता है जहाँ उसे सकून मिलता है और हम भी ऐसा अवचेतन में ही करते हैं -मैंने बच्चों को दाहिनी ओर लेने की चैतन्य आदत डाली और देखा दाहिनी ओर भी बच्चे को लेना आसान है पर बच्चों को उन्हें दाहिनी ओर गोंद में लेने पर कैसा लगता है यह नही जाना जा सका है क्योंकि छोटे बच्चों से बड़ों जैसा सवाल जवाब सम्भव नही है ।

छाती /सीना पीटने का रिवाज भी कुछ संसकृतियों में शौर्य का प्रदर्शन या गम का इजहार है .छाती पर क्रास बनाना ,दाहिने हाथ का बायीं ओर की छाती पर टिकाना ये सभी शान्ति और सौहार्द के संकेत हैं .

Wednesday, 28 January 2009

धरती पर कुल कितने जीव जंतु हैं ? (डार्विन द्विशती )

आकर चार लाख चौरासी ?
कभी आपके मन में यह सवाल कौंधा है कि इस धरती पर कुल कितने जीव जंतु हैं ? यह सवाल हमारे पूर्वजों के मन को भी मथता रहा है । बाबा तुलसी ने रामचरितमानस में इसे यूँ कूता -

आकर चार लाख चौरासी ,जाति जीव जल थल नभ वासी -मतलब चौरासी लाख जीव जंतु जमीन ,वायु और पानी में निवास करते हैं ! इस मामले में वैज्ञानिक किसी निश्चित संख्या तक नही पहुँच पाए हैं बल्कि ये मानते हैं कि इस ग्रह पर जीव जन्तुओं की संख्या पाँच लाख से १० करोड़ तक कुछ भी हो सकती है मगर अभी तक पहचाने गए जीवों की संख्या १५ लाख नवासी हजार तीन सौ इकसठ है -मतलब अभी तक तुलसी दास द्वारा आकलित संख्या तक जीवों की पहचान नही हो पायी है नित नए जीव खोजे जा रहे हैं .

जो जीव अभी तक पहचाने गए हैं उनमें अकेले कीट पतंगों की ही प्रजाति संख्या ९ लाख पचास हजार है .५ हजार चार सौ सोलह स्तनधारी हैं , 9,956 चिडियां हैं , 8,240 रेंगने वाले जीव यानि सरीसृप हैं , 6,१९९ मेढक सरीखे जल और थल दोनों जगह रहने वाले जीव हैं .ये तो रहे रीढ़ वाले प्राणि .अब बिना रीढ़ वाली प्रजातियाँ जो जानी जा सकी हैं 1,203,375 हैं ! 297,326 पेड़ पौधों की प्रजातियाँ हैं - कुछ अन्य जातियों में लायिकेन दस हजार ,मशरूम सोलह हजार .और भूरे शैवाल दो हजार आठ सौ उनचास है .कुल 1,589,361 !

अब हम फिर अपने पुराने सवाल पर लौटते हैं क्या इन सभी प्रकार के जीवों को ब्रह्मा या अल्लाह मियाँ या गाड ने फुरसत से अलग अलग गढा है ? जैसे कुम्भार अपनी चाक पर मिट्टी के तरह तरह खिलौने और बर्तन बनाता है ? एक वैज्ञानिक हुए हैं कैरोलस लीनियस (१७०७-१७७८) उन्होंने जीवों की इस अपार विविधता को समझने बूझने में बड़ा मन लगाया और उनकी पहचान की एक द्विनामी पद्धति लागू की जो आज भी प्रचलन में है .अब जैसे उसी द्विनामी पद्धति में मनुष्य यानी हम सब का दुहरा नाम है -होमो सैपिएंस जिसमें होमो शब्द हमारे बृहद गण को बताता है जिसमें केवल हमारी ही प्रजाति अब धरती पर है शेष की हालत है कि रहा न कुल कोऊ रोवन हारा -होमो इरेक्टस ,होमो हैबिलिस आदि जातियाँ कब की काल के गल में समां चुंकी ! होमो नियेनडरथेलेंसिस काफी करीबी रिश्ते में था पर वह भी धरा से मिट गया -हमारे आगे वह भी टिक नही पाया ! आज होमो गण की अकेली सैपिएंस प्रजाति यानि हम सब समूची धरा पर अकेले काबिज है ! पर कब तक ??
तो क्या हमारी प्रजाति और दीगर जीव जंतुओं में कोई संबध भी है या अलाह मियाँ ने मनुष्य और दीगर जीवों को अलग अलग बनाया है ? ऐरिस्टाटिल (३८४-३२२ ईसा पूर्व ) कुछ कुछ अवतारवाद की ही तर्ज पर माना कि जीव रूपाकार बदल कर दूसरे तरह तरह के जीवों में बदलते जाते हैं .उन्होंने यह माना कि पदार्थ जीवों में बदलते हैं जिसे अंडे के भीतर के पदार्थ का मुर्गे /मुर्गी में रूपांतरण हो जाता है ! मगर फिर यह सवाल आया कि पहले कौन पैदा हुआ मुर्गी या अंडा ? यह सवाल अभी भी हंसी मजाक में लोग बाग़ पूंछते हैं मगर जवाब देने वाला गंभीर हो जाता है ।
इस कड़ी की अगली पोस्ट तक आप भी इस मुद्दे पर थोडा विचार कर लें कि पहले अंडा आया या मुर्गी ? अगर अंडा तो वह कहाँ से आया ? और अगर मुर्गी तो वह बिना अंडे से कहां से धमक पडी ?











Monday, 26 January 2009

आख़िर ये दुनिया किसने बनाई ? (डार्विन द्विशती श्रृंखला )

ये है पशु और मनुष्य का मिश्रित रूप -अवतार नृसिंह
इतने ढेर सारे जीव जंतु -पशु पक्षी ,पेड़ पौधे ,कीडे मकोडे आखिर किसने बनाया इनको ? और कब बनाया ? सृष्टि कैसे और कब वजूद में आयी ? आज भले ही नब्बे फीसदी लोग इन सवालों पर सोच विचार न करते हों मगर हमारे पुरखों ने इन पर खूब विचार मंथन किया था .हिन्दू पुराण कहते हैं कि क्षीर सागर में सोये विष्णु की नाभि से एक कमल नाल उगी और जिसमें कमल के खिलने के साथ ब्रह्मा भी उसी से पैदा हो गये -फिर जीव जंतुओं से लेकर आदमीं तक सारी सृष्टि उन्होंने रच डाली ! उनकी स्पर्धा में आगे विश्वामित्र भी आए और कुछ चीजें जैसे नारियल ,ऊँट आदि उन्होंने बनाया ! जब एक बार महा प्रलय आयी तो विष्णु ने ही मछली का अवतार लेकर एक नौका में मनु और सतरूपा की देखरेख में सृष्टि को सर्वनाश से बचाया .यह प्रलय की कथा का दुनिया के सभी प्रमुख धर्मों में में जिक्र है -बाईबल में इसे आर्क आव नोवा कहते हैं ,कुरान में हजरत नूह की कश्ती ! साथ ही बाईबिल में ईश्वर के हीद्वारा इडेन के बगीचे में आदम और हौवा के सृजन की विस्तार सेचर्चा ही जिन्होंने वर्जित फल खा कर आगे की आबादी को अंजाम दिया ,
क्या पुरानों और धर्मों की इन मान्यताओं को आप सच मानते हैं ? या आपके मन में जीव जंतुओं के अस्तित्व और उनकी विविधता को लेकर कोई और ख्याल आता है ? क्या सच में इन्हे ईश्वर ने ही बनाया ?? हिन्दू दर्शन जीवों के उत्तरोत्तर विकसित होने की एक अवधारणा जिसे हम अवतारवाद जह सकते हैं ,रखता है -पहले मछली ,फिर कच्छप ,फिर घोडे सदृश प्राणी ,फिर वाराह ,फिर पशु और फिर मनुष्य के बीच का नरसिंह अवतार और फिर पूर्ण विकसित मनुष्य , भगवान राम ,कृष्ण और संभावित कल्कि आदि ! तो धरती पर जीवजंतुओं के आगमन और उनके विकास की एक झलक हिन्दू मिथकों में तो मिलती है .मगर सच क्या है ?
क्या सचमुच किसी ईश्वरीय शक्ति ने ही जीवों को सृजित किया है ? आप क्या सोचते हैं ? यह पूरा वर्ष अंग्रेज वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन की द्विशती मना रहा है -उनका जन्म १२ फरवरी १८०९ को श्रूस्बेरी इंग्लैंड में हुआ था .इन महाशय ने तो जीव जंतुओं के वजूद को लेकर पहले के विचारों को सिरे से खारिज कर दिया और कहा कि जीव जंतुओं की इतनी विविधता महज इसलिए है कि उनका विकास हुआ है और मछली से मनुष्य तक बनने में करोडो वर्ष लगे हैं .सभी जीव जंतु पृथक पृथक नही सृजित हुए हैं बल्कि उनमें गहरा सम्बन्ध है !
चिंतन के इतिहास में इस विचार से मानों जलजला आ गया ! चर्च ने तो डार्विन को गहरे फटकारा ! पर आज सुनते हैं दो सौ सालो बाद चर्च ने डार्विन से सरेआम माफी मांग ली है और स्वीकार कर लिया है कि तब के पादरियों से डार्विन को समझने में भूल हो गयी थी !

"The statement will read: Charles Darwin: 200 years from your birth, the Church of England owes you an apology for misunderstanding you and, by getting our first reaction wrong, encouraging others to misunderstand you still. We try to practise the old virtues of 'faith seeking understanding' and hope that makes some amends."
-Rev Dr Malcolm Brown, the Church's director of mission and public affairs,The Church of England .
चलो देर आयद दुरुस्त आयद !पर हिन्दू आज इस मसले पर क्या सोचता है ? क्या सृष्टि को सचमुच ईश्वर ने नही बनाया ? इस्लाम के अनुयायी क्या सोचते हैं ?

Wednesday, 21 January 2009

पुरूष पर्यवेक्षण -एक उंगली उठी !

थम्ब्स अप ! मगर क्या समझे ? (स्रोत विकीपीडिया )
आप भले ही निन्यानवे काम ठीक करें मगर अनजाने में भी एक भी ग़लत काम हो गया तो लोगों की उंगलियाँ उठने लगती हैं ! किसी की भी दसों उंगलियां हमेशा घी में नही रहतीं और घी भी कोई सीधी उंगली से थोड़े ही निकलता है !यह सही है कि किसी की भी पाँचों उंगलियाँ बराबर नहीं होतीं मगर भारत की तो बात ही मत कीजिये यहाँ लोकतंत्र का ऐसा जलवा है कि एक अंगूठा छाप भी हमारा राष्ट्रपति बन सकता है .ये बातें आपको किसी सीनोफ्रेजिक का असम्बद्ध प्रलाप लग सकती है मगर इनमें एक बात जों समान है वह उँगलियों का महात्म्य है .
हमारी पाँचों उंगलियाँ भले ही परिमाप में बराबर नहीं हैं लेकिन कई मामलों में कोई भी किसी से कम नहीं बल्कि बढ़ चढ़ है ! मगर मजे की बात यह है कि इन उँगलियों के नाम तक भी ठीक ठीक लोगों को पता नही रहता ! आप ही बताईये क्या आप जानते हैं कि आपकी अनामिका उंगली कौन है ? और इसे अनामिका क्यों कहा जाता है ? इसी तरह क्या फोरफिंगर ,इंडेक्स फिंगर और तर्जनी उंगली एक ही हैं या अलग अलग ! जरा अपनी वह उंगली आगे कीजिये जिसमें इलेक्शन की स्याही लगती है -यह कौन सी उंगली है ? क्या नाम है इसका !
चलिए एक अन्गुलि -परिचय सेशन हो जाय .
पहले अंगूंठा ,भला इससे कौन अपरिचित होगा ! जमीन जायदाद के अनेक दस्तावेजों पर यही तो अपनी अन्तिम मुहर लगाता है ! यूनान मे यह प्रेम की देवी वीनस को समर्पित है ,इस्लाम में मुहम्मद को ! मगर इशारों की भाषा में यह फैलिक बोले तो लैंगिक इशारे से अपमान के बोध का भी बायस बनता है .एक लिफ्ट मांगने वाले का अंगूठा ही उठता है और सबकुछ ठीक ठाक है -ओ के का सिग्नल भी अंगूठा ही देता है .लेकिन कई पारंपरिक युद्धों -मल्ल युद्धों में झटके से अंगूठे को नीचे गिराने का आशय था कि प्रतिपक्षी को मार दिया जाय ! जबकि अंगूठे को झटके से ऊपर उठाने का मतलब अभयदान से था जों आगे चल कर थम्ब्स अप या ओके सिग्नल में तब्दील होता गया ! लेकिन कई देशों में अंगूठे को ऊपर उठा कर ओके का इशारा /लिफ्ट लेने का इशारा अश्लील अर्थों में ले लिया जाता है -तो अगर आप सीरिया, सउदी अरब और ऑस्ट्रेलिया, ग्रीस ,सार्देनियाँ आदि देशों में पर्यटक बन के जा रहे हैं तो किसी से लिफ्ट लेने के लिए अंगूठा मत उठायें मार पड़ सकती है -वहाँ उठे अंगूठे को देखते ही अश्लील भाव का संचार होता है कि आ मेरे इस अंगूठे पर बैठ जा !
तर्जनी -तर्जनी के अनेक नाम है -यही फोरफिंगर है ,इंडेक्स फिंगर है .बारीक कामों में अंगूठे की हमजोली है .ट्रिगर यही दबाती है ,दिशा दर्शक है .फोन के डायल पर यही थिरकती है ,लिफ्ट की बटन यही दबाती है .कथोलिक लोग इसे होली घोस्ट का दर्जा देते हैं ,इस्लाम में लेडी फातिमा से सम्बन्धित है .हाथ देखने वाले इसे बृहस्पति से जोड़ते हैं .कही कहीं इससे अश्लील इशारों का काम लिया जाता है .इसे बिल्कुल ऊपर उठा कर रखा जाय तो यह ब्रह्म एक है का बोध कराता है -कालिदास -विद्योतमा शास्त्रार्थ में इस उंगली का महात्म्य जग जाहिर है ।लघु शंका इच्छा /अनुमति की भी यही संकेतक है !
अब बारी है मध्यमा की -हाथ की उँगलियों में सबसे बड़ी उंगली है मगर कुछ देशों में इसे आगे कर अगल बगल की दोनों उँगलियों को पीछे मोडे रहकर अश्लील लैंगिक इशारा किया जाता है ! कैथोलिक इसे ईशा मसीह से जोड़ कर देखते हैं तो इस्लाम में फातिमा के खाविंद को समर्पित है .
शादी व्याह के रस्म से जुडी अंगुली है अनामिका यानी रिंग फिंगर जिसमें मंगनी /व्याह की अंगूठी पहनी /पहनाई जाती है .ऐसी मान्यता रही है की इससे निकलने वाली एक शिरा/नर्व ह्रदय तक पहुँचती है हालाँकि इसकी वैज्ञानिक पुष्टि नहीं है .हस्तरेखाविद इसे सूर्य से या सूर्यपुत्र से जोड़ कर देखते है ,इस्लाम हसन से और ईसाई इसे आमेन फिंगर -आशीर्वाद अंगुली मानते हैं .मगर इसका अनामिका नामकरण क्यों ? कहते है विद्वानों में एक बार गणना होने लगी की सबसे बड़ा कवि कौन -तो कनिष्ठा उंगली से गणना शुरू होने पर पहले ही कालिदास का नाम आ गया पर फिर उसके बाद विद्वानों को यह लगा की ठीक कालिदास के बाद की भी जगह कोई ले नही सकता इसलिए दूसरी अंगुली अनामिका हो गयी !
अन्तिम उंगली कनिष्ठा है जो मन से सम्बन्धित है विनम्रता से सम्बन्धित है .अब जो उंगली कालिदास से जुड़ गयी है उसका सम्बन्ध मन और विनम्रता से क्यों न हो -आख़िर उच्च्च विद्वता विनम्रता ला ही देती है .
यह तो रही संक्षेप में उँगलियों की पृथक पृथक दास्तान ! सब मिलकर कई संकेत इशारों को जन्मदेती हैं -विजय की मुद्रा में उंगलियाँ अंगरेजी का अक्षर वी बनाती हैं तो एकसाथ मिलकर मुक्का बन जाती है .पर सावधान कई पश्चिमी देशों में वी बनाईये तो ध्यान रहे हथेली आगे की ओर हो नहीं तो हथेली अपनी और करके कहीं आपने वी बनाया तो समझिये खैर नही -यह अश्लील संकेत है !

Sunday, 18 January 2009

पुरूष पर्यवेक्षण : कैसे कैसी हस्तरेखाएँ !

शौक से कीजिये हस्त दर्शन
हथेलियों की आड़ी तिरछी रेखाओं ने सीधे साधे लोगों को खूब छकाया है और सदैव भाग्य वाचकों के रहमों करम पर छोडा है -मगर आज का विज्ञ संसार यह भली भाति जानता है की हाथों की रेखाओं और मनुष्य के भाग्य के बीच कोई सम्बन्ध नही है -और भाग्य जैसी कोई चीज होती भी है इसे लेकर विद्वानों में बड़ा मतभेद है .दरअसल मनुष्य का जीवन कई संयोगों ,मौकों को हासिल करने और गवाने का समग्र प्रतिफल होता है उसे हाथ की रेखाओं के सहारे समझना मूढ़ता ही है !इसलिए महज मनोविनोद के लिए तो हस्त रेखाओं का खेल खेला जा सकता है लेकिन इसे गंभीरता से लेने के अपने कई खतरे हैं -हाँ आनुवान्शिकीविदों ने कुछ तरह की बीमारियों में ख़ास हस्त रेखा पैटर्नों की जांच पड़ताल शुरू की है पर अभी कुछ भी अन्तिम रूप से तय नही हो सका है ।

मगर हस्तरेखा विशारदों ने एक फायदे का काम जरूर किया है .उन्होंने हस्तरेखाओं का इतना रोचक नामकरण किया है कि इनके नाम याद करना बेहद आसान हो गया ! कोई भी बस ज़रा सी स्मरण शक्ति के इस्तेमाल और ध्यान देने से छोटा मोटा हस्त ज्योतिषी बन सकता है .मनुष्य की हथेली / गदोरी (palm ) में मूलतः चार रेखाएं ही होती हैं -दायें बाएं दो आड़ी रेखाएं -एक तो ऊपर वाली ह्रदय रेखा और दूसरी नीचे वाली मस्तक /मस्तिष्क रेखा ! इसी तरह एक जोड़ी -यानि दो रेखाएं अन्गूंठे के नीचे से बेडे निकलती हैं .अन्गूंठे के पास वाली जीवन रेखा कहलाती है और बिल्कुल मध्य में ऊपर की ओर जाने वाली रेखा भाग्य रेखा कहलाती है .एक क्षीण सी स्वास्थ्य रेखा भी इसी के बगल बायीं ओर हो सकती है .वनमानुषों /दीगर कपि प्रजातियों में मस्तक रेखा और ह्रदय रेखाओं का अलग वजूद नही होता बल्कि केवल एक रेखा ही मिलती है -मजे की बात यह कि कुछ लोगों में भी वनमानुषों की ही तरह महज एक ही रेखा -सायिमियेन क्रीज होती है -इसका मतलब यह नही कि वे आज भी वनमानुषों के सरीखे हैं .

अंगूंठे की बारीक लाईने या अँगुलियों की बारीक लाईने जिन्हें नंगी आखों से बहुत साफ़ देखने में दिक्कत होती है टेंशन लाईन कहलाती हैं -क्योंकि इनसे ही तनाव के समय स्वेद ग्रन्थियों से निकलते हुए पसीने से हथेली भींग सी जाती है .पसीना इन बारीक उभारों को और भी फुला सा देता है जिससे हाथ में पकड़े हुए वस्तुओं की पकड़ और मजबूत हो जाती है -ऐसे व्यवहार का उदगम हमारे आदि पुरखों से है जिन्हें प्रायः तनाव की स्थितियों का सामना करना पड़ता था और हाथ के शस्त्र और आयुधों पर मजबूत पकड़ उनके लिए जीवन और म्रत्यु का प्रश्न बन जाता है ।
अंगुलिछाप यानि फिंगर प्रिंट आज भी पहचान का एक भरोसेमंद तरीका है जबकि अब तो डी एन ए फिंगर प्रिटिंग का ज़माना है -मगर फिंगर प्रिंट भी स्थाई होते है उन्हें अगर कांट छांट दिया जाय तब भी फिर से जम जाते हैं बिल्कुल पहली वाले ही पैटर्न पर -इसलिए फिंगर प्रिंटों को बदलना शातिर से शातिर अपराधी के लिए भी सम्भव नही है ! फिगर प्रिंटों में मुख्यतः तीन तरह का पैटर्न होता है .ज़रा अपने उँगलियों के पोरों को ध्यान से तो देखिये -धनुषाकार ,घेरा नुमा (लूप ) और भंवर्नुमा (whorl ) .ज्यादातर लोग मेरे जैसे घेरानुमा अन्गुलिछापों के वाहक होते हैं और यह शोधों से प्रमाणित है कि उनमें स्पर्शीय संवेदन शीलता दूसरे अन्गुलिछापों वाले लोगों से ज्यादा होती है ।

हथेलियों में से पसीने का निकलना एक ऐसी घटना है जो हमारे तनाव के स्तर को इंगित करती है ! रात में सोते समय हमारी हथेलियाँ सूखी रहती हैं .यानि आप तनाव मुक्त होते हैं -हथेलियों से पसीना निकलने ,उनके लगातार गीला बने रहने का मतलब है आप तनाव में हैं .ज्यादा तनाव की स्थितिओं में ये पसीने से तर बतर हो जाती हैं ।मुम्बई में आतंकवादी घटना के समय औरकुछ दिन उपरांत तक भी समूहों तक में समूचे देश में लोगों की हथेलियाँ पसीना पसीना होती पायी गईं थीं ! मैंने ख़ुद पड़ताल की थी ! अब हमारी हथेलियाँ तेजी से सूखती जा रही हैं तो क्या माना जाय कि अब युद्ध की कोई आशंका नही रह गयी है ?