Saturday, 3 May 2008

फिर से जम गयी कटी हुयी उंगली !


जी हाँ ,फिर से जम गयी कटी हुयी उंगली !आप पूरा वीडियो यहाँ देख सकते हैं .यह समाचार बीबीसी हिन्दी पर भी देखा जा सकता है .एक दुर्घटना में उंगली कट जाने के बाद 'चमत्कारी पाउडर-पिक्सी पाउडर ' से इसे ठीक करने में अमरीका के एक शख्स को कामयाबी मिल गयी है।
इस समाचार को पढ़कर सहसा ही राक्षस राज रावण की याद हो आयी .उसके मिथकीय चरित्र मे यह ख़ास बात थी की उसका सिर कटाने के बाद फिर फिर उग आता था .यह शिव के कथित वरदान का फल था .यह सचमुच कितना रोचक है कि अब विज्ञान ऑर टेक्नोलॉजी ने अतीत के तंत्र मन्त्र ,शाप वरदान का जिम्मा अब अपने ऊपर ले लिया है .अब जैसा कि यही समाचार है बिना किसी दैवीय वरदान के यह चमत्कार हो गया है .

वैसे कुछ वैज्ञानिकों ने 'चमत्कारी पाउडर' के दावों को झुठलाते हुए कहा है कि 'उंगली उगने' की यह प्रक्रिया 'स्वाभाविक' या 'प्राकृतिक' चमत्कार हो सकती है.
दरअसल, वर्ष 2005 में एक दुर्घटना में अहियो प्रांत में सिनसिनाटी शहर के निवासी 69 वर्षीय ली स्पिवॉक की उंगली का एक हिस्सा कट गया था.बताया गया है कि उंगली के पहले मोड़ से ऊपर का हिस्सा कट गया था.एक मॉडल विमान के पंखों की चपेट में उनकी उंगली आ गई थी और उंगली का कटा हुआ हिस्सा भी नहीं मिल सका था.

स्पिवाक के भाई पीट्सबर्ग यूनीवर्सिटी में डॉ स्टीफ़न बेडीलेक के साथ दवा विभाग में काम करते थे. उन्होंने स्पिवाक को ये चमत्कारी पाउडर यानी एक्स्ट्रासेलुलर मैट्रिक्स दिया. जिसे स्पिवाक ने अपनी कटी उंगली पर छिड़का.इस पाउडर को सामान्य रुप से 'पिक्सी डस्ट' के नाम से जाना जाता है.यह सूअरों के एक्स्ट्रासेलुलर मैट्रिक्स कोशिकाओं से तैयार हुआ है.

स्पिवाक का कहना है कि कुछ ही हफ्तों में हड्डी, ऊतक, त्वचा और नाखून के साथ उंगली फिर से उग गई.

डॉ बेडीलेक की टीम पहले से ही एक्स्ट्रासेलुलर मैट्रिक्स की मदद से बहुत सरल जैविक संरचना तैयार करने पर काम कर रही थी.वैसे कुछ वैज्ञानिक अभी इस दावे को संदेह की निगाह से देख रहे हैं .
किंग्स कॉलेज लंदन में कोशिका अध्ययन विभाग में कार्यरत प्रोफ़ेसर स्टीफन मिंगर कहते हैं
, "मुझे नहीं पता कि वे एक्स्ट्रासेलुलर मैट्रिक्स को छिड़ककर उंगली कैसे उगा सकते हैं."

प्रो मिंगर कहते हैं, "अगर उंगली का कटा हिस्सा फिर से जोड़ भी दिया जाए तो तंत्रिका कोशिकाएँ फिर नहीं बन पातीं और व्यक्ति को उंगली के इस हिस्से पर दर्द या दबाव का अहसास नहीं होता."

वैज्ञानिकों को कहना है कि वे डॉ बेडीलेक की इस शोध रिपोर्ट का अध्ययन करना चाहेंगे.

मतलब साफ़ है कि भले ही वैज्ञानिक उंगली उगने की इस घटना को चमत्कार नहीं मान रहे हों, लेकिन इससे उन्हें शोध की दिशा तय करने में कुछ मदद तो ज़रूर मिलेगी।

कैसा अद्भुत है कि आधुनिक विज्ञान ने हमारे एक मशहूर मिथक को साकार कर दिखाया है .

Monday, 28 April 2008

मछलियों पर एक ऑर राषट्रीय सम्मेलन !

कामन कार्प मछली जिसकी इन दिनों गंगा -यमुना मे बाढ़ आयी हुयी है -यह अभिशाप है या वरदान ?
मछलियों पर एक ऑर राषट्रीय सम्मेलन अभी कल यानी २७ अप्रैल ०८ को लखनऊ मे संपन्न हुआ है .यह आई . सी .ए आर नामक राष्ट्र- स्तर के कृषि अनुष्ठान की एक इकाई ,रास्ट्रीय मत्स्य आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो लखनऊ द्वारा २६-२७ अप्रैल को आयोजित था .इसका विषय था 'जलजीव आनुवंशिक संसाधन पर रास्ट्रीय सम्मेलन '।
जाहिर है मछलियाँ भी अब सतह पर हैं .वैसे वैज्ञानिक मान्यता तो यह है कि मछलियाँ जब सतह पर आने लंगें तो समझिए उनका अंत काल निकट है -शायद वैसे ही जैसे कहते हैं कि जब गीदड़ की मौत आती है तो वह शहर की और रुख करता है। पर अभी तो फिलहाल लखनवी मछलियाँ जो सम्मेलन में सतह पर आयीं वे सब खुशहाल ,चुस्त दुरुस्त ऑर हृस्ट पुष्ट हैं ।
सम्मेलन का उदघाटन जाने माने कृषि वैज्ञानिक डॉ मंगला राय ने किया .उन्होंने जलजीवों के सरक्षण पर तो जोर डाला ही वैज्ञानिकों से आग्रह किया कि वे मछलियों की नस्ल सुधार की कोशिश करें ।
मैंने धार्मिक तालाबों मे पहले से ही सरक्षित मत्स्य सम्पदा पर ध्यान आकर्षित कर उसके शोधात्मक पहलुओं पर प्रकाश डाला .इस समय गंगा नदी [प्रणाली] मे घुसपैठ कर बैठी चीनी मूल की कई मछलियों पर गहरी नजर है -पर अब उन्हें निकाला कैसे जाय -वैज्ञानिकों की अक्ल जवाब दे गयी है .यह हमारे देशज मछलियों पर क्या सितम ढायेगी यह देखा जाना है -कामन कार्प एक ऐसी ही मछली है जिसने अप्रैल मे ही बच्चे दे दिए जबकि हमारी देशी मूल की कार्प मछलियों के पेट मे अब अंडे बननाशुरू ही हुए है -यानी अभ्यागत मछली के बच्चे जब खा खा कर मुस्तंड हो जायेगे तब कही बरसात मे हमारी देशी कार्प मछलियाँ अंडे -बच्चे देंगी .तब कौन बाजी मारेगा यह एक साधारण बुद्धि का आदमी भी बता सकता है -पर हमारे वैज्ञानिक चुप्पी साधे हैं -कौन बवाल मोल ले ,वैसे भी भारत के प्रजातंत्र मे वैज्ञानिकों को/की सुनता ही कौन है ?इस देश मे अभी तक वैज्ञानिक सेलिब्रिटी नही बन पाये हैं .
बहरहाल नेशनल ब्यूरो ऑफ़ फिश जेनेटिक रेसोर्सस [एन बी ऍफ़ जी आर ],लखनऊ के निदेशक डॉ वजीर सिंह लाकडा ने विषय प्रवर्तन किया और यह भी उद्घोषणा की कि जल्दी ही भारत के कई प्रदेशों के राज्य मीनों का निर्धारण हो जायेगा .राज्य पशु -पक्षी की ही तर्ज पर .
कुल मिलाकर यह सम्मेलन मछलियों की [आनुवंशिक ] संपदा की दुर्दशा को बयान करता एक दस्तावेज बन गया .विचित्र संयोग या विडम्बना यह कि यह सारा आयोजन एन बी ऍफ़ जी आर की सिल्वर जुबली पर आयोजित हुआ .हाँ संस्थान ने अतिथि वैज्ञानिकों की खातिरदारी मे कोई कोर कसर नही रखी.सभी को आभार .

Wednesday, 23 April 2008

लोक मात्स्यिकी -एक नया अनुभव

[डायस का एक दृश्य,मैं बिल्कुल दाहिनी ओर ]
विगत ११-१२ अप्रैल को मैं रांची ,झारखंड् मे मछुआरा केंद्रित मत्स्य संसाधनों के प्रबंध पर आयोजित सम्मेलन मे शरीक हुआ । यह मछुआ समुदाय के विकास की दशा, दिशा पर एक सार्थक पहल थी ।
मैने लोक्मात्स्यिकी पर एक शोध आलेख प्रस्तुत किया ।इसमे मछ्लियों के बारे मे पारम्परिक जांकारियों को वैज्ञानिक मापडंडो के आधार पर परखने की वकालत की गयी है ।
अब जैसे बुला नामक मछली जाल मे आने पर भी फेक दी जाती है क्योंकि कई मछुओं द्वारा यह माना जाता रहा है कि उसके खाने से लैंगिक विकास रुक जाता है ।
अब एक मछली ऐसी है जिसके सिर मे एक पत्थर -मीन मुक्ता निकाला जाता है , जिसे अंगूठी मे पहना जा सकता है -यह प्रथा इलाहाबाद के कुछ परम्परागत रीत रिवाज़ मानने वालों मछुओं मे है.यह मीन मुक्ता एक आभूषण तो है ही कुछ लोगों के लिए मानसिक प्रशान्ति का मनोवैज्ञानिक कारण भी है .इसका व्यावसायिक प्रमोशन हो सकता है .ऐसे ही कई अन्य विषय भी चर्चा मे आए जिनसे मछुओं का सामाजिक आर्थिक विकास हो सकता है ।

कई मछलियों के पारंपरिक रूप से ज्ञात औषधीय गुणों को आधुनिक प्रयोग -परीक्षणों के आधार पर मानकीकृत कर उनके व्यावसायिक प्रमोशन से स्थानीय मचुआ समुदाय को लाभान्वित कराने की भी पहल की जा सकती है .वाराणसी के स्थानीय मछुआरों मे बुल्ला[ग्लासोगोबिअस ] नामक मछली को खाने की मनाही है ,कहते हैं "इसके सेवन से दाढी मूंछ नही निकलती "-इससे इस मछली मे जैवीय बंध्यता के कारक तत्व होने की इन्गिति होती है .इसका परीक्षण जरूरी है .
इसी तरह अन्य कई मछलियों के मांस के गुण दोषों का समृद्ध ज्ञान मानकी करण की बाट जोह रहा है . व्यावसायिक मत्स्य पालन मे मत्स्य व्यवहार पर कई जानकारी पौराणिक ग्रंथों मे उपलब्ध है ,जैसे रामचरित मानस मे वर्षा के पहले जल [माजी ]से मछलियों को व्याकुल होना बताया गया है .
पत्थर चट्टा मछली [सीयेना कोइटर ]के ओटोलिथ पत्थर को मीन मुकता के रूप मे व्यावसायिक प्रमोशन की संभावनाएं हैं ।यह आयोजन केंद्रीय मत्स्य संस्थान मुम्बई ,बिरसा एग्रीकल्च्रल विश्व विद्यालय और झार खंड मत्स्य विभाग के के सौजन्य से संपन्न हुआ .विषय की संकल्पना केंद्रीय मत्स्य संस्थान मुम्बई के स्वनामधन्य निदेशक डाक्टर दिलीप कुमार की थी ऑर इसे मूर्त रूप देने मे मेरे मत्स्य[मानव ]मित्र आर पी रमन जी ऑर मित्रों ने रात दिन एक कर दिया .रांची प्रवास भी सुखद रहा .[चित्र सौजन्य -डॉ आर पी रमन ]

Tuesday, 22 April 2008

करामाती क्लोन कोरियाई कुत्ते !




यह कमाल की खबर है सात क्लोन कोरियाई कुत्तों की जिसे बी बी सी हिन्दी सेवा ने आज प्रमुखता दी है ।देखते देखते क्लोन तकनीक कितना विकसित हो गयी ।डाली भेड़ से शुरू हुआ क्लोनिंग का सफरनामा अब उस मुकाम पर जा पहुंचा है जहाँ इस तकनीक का व्यवहारिक उपयोग भी शुरू हो गया ।अब देखिये तो ये सात क्लोन करिश्माई -कोरियाई कुत्ते जिन्हें सात शरीर एक आत्मा कहा जा सकता है कोई नया कारनामा करने को तैयार हैं ।
आईये पहले पूरी ख़बर पढ़ लें -
दक्षिण कोरिया में क्लोनिंग के ज़रिए तैयार किए गए सात 'स्निफ़र कुत्तों' को प्रशिक्षण दिया जा रहा है. इन क्लोन कुत्तों को तैयार करने में लाखों डॉलर खर्च किए गए हैं
एक साल पहले इन सातों कुत्तों को लेब्रडोर नस्ल के कुत्ते की कोशिकाओं से तैयार किया गया था.
दक्षिण कोरिया के कस्टम विभाग का मानना है कि सूंघ कर खोज करने वाले जिस कुत्ते से इन सातों का क्लोन तैयार किया गया है वो विभाग का सबसे बेहतरीन कुत्ता है.
पिछले साल दक्षिण कोरिया के कस्टम विभाग ने एक बॉयोटेक्नोलॉजी कंपनी को पैसे देकर 'कैनेडियन लेब्रडोर' कुत्ते के क्लोन तैयार करवाए थे.
इन सातों कुत्तों को प्रशिक्षण देने वाले प्रशिक्षकों का मानना है कि इन सभी में काबलियत के गुण अभी से दिखाई देने लगे हैं.

आम तौर पर प्राकृतिक रूप से जन्मे 30 फ़ीसदी 'स्निफ़र' कुत्ते ही बेहतरीन सूंघने वाले कुत्ते साबित होते हैं.
लेकिन दक्षिण कोरिया के वैज्ञानिकों का मानना है कि क्लोनिंग के ज़रिए तैयार किए गए 90 फ़ीसदी कुत्ते बेहतरीन स्निफ़र कुत्ते साबित होंगे.
वैज्ञानिकों ने इन सातों क्लोन कुत्तों को तैयार करने के लिए 'चेज़' नाम के एक 'स्निफ़र' कुत्ते की कोशिकाएँ तीन 'सरोगेट' माँ के पेट में प्रत्यारोपित की थीं.
इस तरह से सात कुत्तों के क्लोन तैयार करने में लगभग तीन लाख डॉलर का खर्च आया था.

क्लोनिंग तकनीक का एक यह सकारात्मक परिणाम हमारे सामने है पर हमे सजग रहना होगा ,यही तकनीक विकृत मानसिकता वालों के हाथ पड़ जाने पर दुरूपयोग की जा सकती है -कई बिन लादेन भी शायद बना लिए जायं .अभी तो एक ने ही दहशत गर्दी फैला रखी है .

Friday, 4 April 2008

शहर मे सांप !


शहर मे सांप !
अज्ञेय की एक कविता याद आती है -सांप तुम कभी सभ्य नही हुए और न होगे ,शहरों मे भी तुम्हे बसना नही आया ,एक बात पून्छू उत्तर दोगे ?कहाँ से सीखा डसना कहाँ से विष दंत पाया ?
यह कवि सत्य भले ही मनुष्य पर एक गहरा कटाक्ष है किंतु कवि का यह कहना कि 'सांप को शहर मे बसना नही आता सच नही निकला .एक सांप ने बनारस जैसे भीड़ भाड़ वाले शहर के आई पी माल सिगरा के सामने की कालोनी की पहली मंजिल के एक कमरे से निकल कर महान साहित्यकार के प्रेक्षण को झुठला दिया .
बनारस टाईम्स ऑफ़ इंडिया के छायाकार श्री राकेश सिंह जी ने मुझे अल्लसुबह फोन कर आज बताया कि उनके आई पी माल सिगरा के सामने की कालोनी की पहली मंजिल वाले फ्लैट से एक सांप निकला है जिसे उन्होंने संभाल कर शीशे के मर्तबान मे रख छोडा है .उन्होंने आग्रह किया कि मैं उसे पहचान कर कम से कम यह सुनिश्चित कर दूँ कि वह जहरीला है या नहीं .
मैं भागा भागा वहाँ पहुंचा ,साथ मे उत्सुकता वश मेरी बेटी प्रियषा भी अपना कैमरा और रोमुलस व्हिटकर तथा पी जे देवरस की साँपों पर पुस्तक लेकर साथ हो ली.
सांप पहचान लिया गया जो कामन वोल्फ स्नेक निकला -यह आदतन मानव साहचर्य मे और यहाँ तक कि शहरों मे भी मानव बस्तियों को रहने के लिए चुनता है -विषहीन है मगर सामने के दांत काफी बड़े होने के कारण ही इसे वोल्फ यानी भेडिया का संबोधन मिल गया है -क्योंकि भेडिया के दांत लंबे होते हैं .यह सांप उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल मे मिलता तो है लेकिन आश्चर्य है कि लोगों को इसके बारे मे मालूम नही है .इसे अक्सर करईत मानकर मार दिया जाता है क्योंकि करईत सबसे जहरीला सांप है .
आप भी इस सांप को ध्यान से देख लें क्योंकि अगली बार जब इसे देंखे तो कृपया इसे कदापि न मारे या न मारने दें क्योंकि यह बिल्कुल विषहीन और बड़ा प्यारा सा सांप है -यह आसानी से पालतू भी बन जाता है .राकेश जी ने इसे पालने का फैसला कर लिया है .
फोटो मेरी बेटी प्रियषा कौमुदी ने उतारी है .

Sunday, 30 March 2008

रिपोर्ट :विज्ञान की जन समझ पर एक अन्तर्राष्ट्रीय पहल



विज्ञान की जन समझ पर एक अन्तर्राष्ट्रीय पहल [ सम्पूर्ण रिपोर्ट ]
{ इस आयोजन से लौटते ही मैंने एक अति लघु रिपोर्ट इस ब्लॉग पर दाल दी थी ...यह पूरी रिपोर्ट इस विषय पर कार्यरत अकादमिक व्यक्तियों ,संस्थाओं के लिए ही है -आम पाठक गण हाईलाटेड अंशों पर नजर फिरा कर मामला भांप सकते हैं .}

लन्दन की रायल सोसायटी ने `वैज्ञानिक समझ के अन्तर्राष्ट्रीय संकेतकों´ पर एक कार्यशिविर का आयोजन विगत् वर्ष (5-6 नवम्बर, 2007) किया था। इस बहुउद्देश्यीय आयोजन के अन्तर्गत वैश्विक जन समुदायों के विज्ञान सम्बन्धी ज्ञान, विज्ञान की जनरूचि, आम आदमी का वैज्ञानिक दृष्टिकोण और उनकी वैज्ञानिक साक्षरता आदि मुद्दों पर विषय विशेषज्ञों का व्यापक विचार विमर्श हुआ था। इसी अन्तर्राष्ट्रीय पहल की अगली कड़ी के रुप में ही विगत 7-8 मार्च, 2008 राष्ट्रीय विज्ञान, प्रौद्योगिक और विकास अध्ययन संस्थान नई दिल्ली (निस्टैड्स) के तत्वावधान में राजधानी दिल्ली में राष्ट्रीय विज्ञान ऑर प्रौद्योगिकी संचार परिषद (एन0सी0एस0टी0सी0) नई दिल्ली के सहयोग से ``वैज्ञानिक संचेतना के परिमापन के राष्ट्रीय एवं वैश्विक प्रयास - एक अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक समागम´ विषयक आयोजन विज्ञान संचारकों के लिए आकर्षण का सबब बना। यह आयोजन नेहरू मेमोरियल म्यूजियम और लाइब्रेरी, तीन मूर्ति भवन, सेमिनार हाल में सम्पन्न हुआ।
उद्घाटन समारोह में विषय का प्रवर्तन करते हुए इस आयोजन के संयोजक और विज्ञान की जन समझ पर कार्यरत प्रतिष्ठित वैज्ञानिक श्री गौहर रज़ा ने विषयगत अनेक पहलुओं पर प्रकाश डाला और विज्ञान की समझ के भारतीय परिप्रेक्ष्यों को भी इंगित किया। उन्होंने भारत सरीखे समृद्ध सांस्कृतिक विरासत वाले देश के लिए विज्ञान की जन समझ के मापने के नये संकेतकों की आवश्यकता पर भी बल दिया। राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद के प्रमुख डॉ0 अनुज सिन्हा ने अपने विशिष्ट सम्बोधन में भारत में वैज्ञानिक जन जागरण के अब तक के उल्लेखनीय प्रयासों का एक लेखा-जोखा प्रस्तुत किया और जन मानस में विज्ञान की समझ को बढ़ाने में विज्ञान जत्था, विज्ञान रेल आदि चर्चित अभियानों की भूमिका को खास तौर पर रेखांकित किया। निस्टैड्स प्रमुख डा0 पार्थ सारथी बनर्जी ने अपने संक्षिप्त सम्बोधन में भारत में विज्ञान की जन समझ के शोध सम्बन्धी पहलूऑ के सतत् प्रोत्साहन में निस्टैड्स के योगदानों की चर्चा करते हुए इस संस्थान में ऐसे अनुसंधान के लिए माकूल माहौल बनाये रखने के संकल्प को दुहराया।
उद्घाटन सत्र का विशेष आकर्षण था- विज्ञान और प्रौद्योगिकी के निवर्तमान सचिव प्रोफेसर राममूर्ति द्वारा दिया गया मुख्य अभिभाषण। प्रोफेसर राममूर्ति ने पण्डित जवाहर लाल नेहरू के ``वैज्ञानिक नजरिये´´ (साइंस टेम्पर) के प्रसार के समर्पित प्रयासों की चर्चा करते हुए कई उन विसंगतियों की भी चर्चा की जो भारत में विज्ञान की सहज जन समझ को विकसित करने में बाधाओं के रुप में चिह्नित होते आये हैं।
प्रोफेसर राममूर्ति ने कहा कि यहाँ की अनेक बोली भाषाओं ऑर अलग-अलग सांस्कृतिक परिवेशों में विज्ञान की जन समझ के किसी एक सर्वसम्मत सर्वग्राह्य अभियान का संचालन सचमुच एक चुनौती भरा दायित्व है- हमें वैज्ञानिक लोकप्रियकरण के प्रयासों का सजग अनुश्रवण करते रहने होगा ताकि उनकी अपेक्षित प्रभावोत्पादकता सुनिश्चित की जा सके। उन्होंने यह भी टिप्पणी की कि भारतीय परिवेश में जहाँ सब और विविधता-अनेकता ही परिलक्षित होती है, विज्ञान-जागरूकता के अनेक प्रयासों की सफलता के सूचकांकों को नियत करना कम चुनौती भरा नहीं है। उन्होंने विज्ञान की जन समझ के नवीन प्रयासों की शुरुआत का स्वागत तो किया किन्तु आगाह भी किया कि अभी इस दिशा के मानक तय होने हैं, संकेतकों की उपयुक्तता और औचित्य पर व्यापक विचार-विमर्श होना है, नये प्रश्नों को चिन्हित किया जाना है ताकि उनका सम्यक उत्तर मिल सके। विज्ञान की जन समझ का भारतीय परिदृश्य ऐसा है कि अभी यहाँ प्रश्नों को उत्तर की दरकार नहीं उल्टे उत्तर ही प्रश्नों की बाट जोह रहे हैं।
उन्होंने जन समस्याओं को हल करने में वैज्ञानिक हस्तक्षेपों की वकालत तो की किन्तु यह भी कहा कि अनेक वैकल्पिक माध्यम भी हैं जो जन समस्याओं के निवारण में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। उदाहरणस्वरूप उन्होंने राजधानी दिल्ली में परिवहन जनित वायु प्रदूषण को दूर करने में सी0एन0जी0 चालित वाहन परिचालन की व्यवस्था को सख्ती से लागू करने में न्यायिक सक्रियता की भूमिका का हवाला दिया। आशय यह कि भारतीय लोकतन्त्र में अभी भी शायद वैज्ञानिकों के विचारों-आह्वानों को व्यापक जनस्वीकृति मिल पाने का वातावरण नहीं बन पाया है।
अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में नई दिल्ली स्थित संस्थान `नेशनल कौंसिल आफ अप्लॉयड इकोनोमिक रिसर्च´ के महानिदेशक श्री सुमन बेरी ने विज्ञान की जन समझ के परिमापन के विश्वव्यापी प्रयासों में संस्थान के सीनियर फेलो डॉ0 राजेश शुक्ला के योगदान की प्रशंसा करते हुए इस नये विषय में उनके द्वारा विकसित किये गये सांिख्यकीय विधियों खासकर `साइंस कल्चर इन्डेक्स´ की भी चर्चा की। उद्घाटन सत्र का समापन निस्टैड्स के वैज्ञानिक श्री दिनेश अबराल के धन्यवाद ज्ञापन के साथ हुआ।
तदनन्तर आयोजित कुल छ: तकनीकी सत्रों में विज्ञान समझ के सम्बन्धित विश्लेषण मॉडलों के प्रस्तुतीकरण, आंकडा संग्रहण और आधारों की स्थापना, उपयुक्त सांिख्यकी विधियों का चयन, विज्ञान शिक्षा एवं समाज के अन्तर्सम्बन्ध, विज्ञान की जन समझ में शोध की नई सम्भावनायें जैसे अद्यतन विषयों पर गम्भीर विचार मन्थन हुआ। इन सत्रों की अध्यक्षता विज्ञान संचार की नामचीन हस्तियों-डॉ0 अनुज सिन्हा (भारत) डॉ0 हेस्टेर डू प्लेसिस (दक्षिण अफ्रीका), प्रोफेसर लोयेट लेडेसडार्फ (नीदर लैण्ड्स), डॉ0 राजेश शुक्ला (भारत), प्रोफेसर फ्यूजिओ निवा (जापान), डॉ0 जेनिफर मेटकाल्फ (आस्ट्रेलिया), द्वारा की गयी।
यथोक्त सत्रों में अफ्रीका में वैज्ञानिक संचेतना के परिमापन की कठिनाईयों, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में ब्रितानी आम जनता की संलिप्तता के स्तर पर ऑकलन, फिलीपीन में विज्ञान संचार के प्रयासों से विज्ञान की जन समझ को बढ़ाने के प्रयास, विज्ञान की जन समझ में मीडिया चैनलों का योगदान, विज्ञान की जन साक्षरता और संलिप्तता के संकेतकों का विकास, पशु प्रयोगों पर स्विटजैरलैंड के लोगों की प्रतिक्रिया, विज्ञान की समझ के सार्वभौमिक संकेतकों की पहचान, श्रीलंका में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की लोकगम्यता, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के संग्रथित सूचकांकों की संरचना के अवधारणात्मक एवं पद्धतिगत स्वरुप का निर्धारण, समतामूलक समाज की स्थापना में जन विज्ञान आन्दोलनों की भूमिका, विज्ञान-पाठ्यक्रमों में सुधार के प्रयास, चीन में विज्ञान साक्षरता पर लिंग भेद के प्रभाव, जापान के अभिजात्य जीवन में प्रौद्योगिकी साक्षरता, क्षेत्रीय समाजार्थिकी के विकास में वैज्ञानिक गतिविधियों की प्रभावोत्पादकता आदि विषयों पर सारगर्भित शोध पत्र पढ़े गये और उन पर चर्चायें आमिन्त्रत की गयीं। शोधपत्रों को प्रस्तुत करने वालों में डा0 हेस्टेर डू प्लेसिस (दक्षिण अफ्रीका), सुश्री सैली स्टैयर्स (इंग्लैण्ड), श्री गौहर रज़ा (भारत), प्रोफेसर लोयेट लेडेसडार्फ (नीदरलैण्ड), सुश्री जेनिफर मेटकाल्फ (आस्ट्रेलिया), डा0 फेबिन क्रेटाज (स्विटजरलैण्ड), डा0 वैलेरी टोडोरोव (बुल्गारिया), सुश्री रोहिनी विजेरत्ने (श्रीलंका), डॉ0 राजेश शुक्ला (भारत), डॉ0 अनिल राय (भारत), डॉ0 ए0आर0 राव (भारत), डा0 बेवेरेली डैमोन्से (दक्षिण अफ्रीका), श्री दिनेश अबराल (भारत), डॉ0 किन्या शिमिजू (जापान), डा0 झैंग चाओ (चीन), प्रो0 फिल फूजिओ निवा (जापान), सुश्री प्रीति कक्कड़ (भारत), डॉ0 सीमा शुक्ला (भारत), डा0 वैगू ए (सेनेगल), डा0 टी0वी0 वेन्कटेश्वरन (भारत) आदि प्रमुख रहे।
दूसरे दिन सायंकाल आयोजित समापन समारोह में पारित संकल्पों का संक्षिप्त ब्यौरा निम्नवत् रहा -
- विज्ञान की जन समझ के मापांकन हेतु संगठित प्रयास किये जाने और इस दिशा में आ¡कड़ों के संग्रहण और सूचीबद्ध करने के साथ ही व्यापक आ¡कड़ा-आधार बनाया जाये। विज्ञान की जन समझ सम्बन्धी अध्ययनों को सर्वसुलभ कराने हेतु के संकेतकों की एक `ओपेन एक्सेस वेबसाइट/पोर्टल´ को विकसित किया जाय।
- सूचनाओं और संसाधनों के सुचारु विनिमय की दृष्टि से `विज्ञान की जन समझ के क्षेत्र में कार्यरत अनुसन्धानकर्ताओं, विद्वानों के नेटवर्क का विकास किया जाय।
- विज्ञान की जन समझ को समर्पित शोध और शिक्षा संस्थानों की संस्थापना की जाय।
- ऐसे संस्थानों का दूसरे समान संस्थानों से सतत् सम्पर्क - समन्वय भी अभीष्ट है।
- विभिन्न स्तरों पर विज्ञान की जनसमझ के ऐसे सामान्य संकेतकों को चििºनत करना होगा जिनका विभिन्न `दिक्काल में सहज पारस्परिक मूल्यांकन किया जा सके।
- ऐसे अध्ययनों - प्रयासों के सातत्य हेतु धन मुहैया कराना भी एक बड़ी प्राथमिकता है।
समूचा आयोजन जन सामान्य पर विज्ञान संचार के विविध प्रयासों के आ¡कलन की दिशा में एक गम्भीर शैक्षणिक प्रयास के रूप में याद किया जायेगा। इस लिहाज से इसके आयोजकों की सूझ और श्रम की प्रंशसा की जानी चाहिए। खासकर डा0 गौहर रज़ा (निस्टैड्स) और डॉ0 राजेश शुक्ला (एन0सी0ए0ई0आर0) के लिए यह समूचा आयोजन इन्हीं के शब्दों में आवधारणा से मूर्त रुप लेने तक एक स्वप्न के साकार होने जैसा अनुभव रहा।
निश्चय ही यह आयोजन भारत में विज्ञान के सामाजिक सरोकारों और संदर्भों को व्याख्यायित करने की दिशा में मील का पत्थर बन गया है।
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Saturday, 29 March 2008

चाँद ही नहीं सूर्य भी `कलंकित´ !


अनुरोध :कृपया इस पोस्ट को जल्दीबाजी मे न पढ़ें ,इत्मीनान से कई एक सत्रों मे पढ़ सकते हैं -इसका मतलब आपसे भी हो सकता है .अस्तु ,
चाँद का `कलंक´ तो बच्चे बूढ़े किसी से भी छुपा नहीं, सदियों से लोग चाँद पर धब्बों को देखकर विस्मित होते आये हैं और इसे लेकर तरह-तरह के कयास लगाते रहे हैं। चन्द्र सतह की भौगोलिक रचनाओं- ज्वाला मुखियों, पहाड़ों, गहवरों को किस्से कहानियों में `सूत कातती बुढ़िया´ से लेकर गौतम ऋषि द्वारा क्रोध में मृगचर्म के प्रहार से उत्पन्न चोट के निशानों के रुप में देखा गया है। किन्तु सूर्य भी कलंकित है- दागदार है इसकी जानकारी आम लोगों को नहीं है क्योंकि सूर्य को नंगी आ¡खों से निहारने की हिम्मत किसे है? सूर्य पर धब्बों की मौजूदगी चीनी खगोल शास्त्रियों को ईसा के 24 वर्ष पहले ही हो चुकी थी।
`कलंकित´ सूरज के ग्यारह वर्षीय चक्र वाले सौर धब्बों [ ``सौर चक्र - 24´´ ] विगत् 4 जनवरी 08 से आरम्भ हो गया है, जिससे धरती पर पावर ग्रिड , संवेदी सैन्य संस्थानों, नागरिक एवं उड्डयन संचार, जी0पी0एस0 सिग्नल, मोबाइल फोन नेटवर्क और यहाँ तक कि ए0टी0एम0 से नगदी के लेन-देन जैसी रोजमर्रा की मानवीय गतिविधियों के भी सहसा ही ठप हो जाने के खतरे बढ़ गये हैं- मशहूर अमेरिकी संस्थान, `नेशनल ओसियनिक एण्ड एटमास्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन´-`नोआ´ ने सौर धब्बों के नये चक्र के शुरूआत की चेतावनी अभी हाल ही में जारी की है।
अभी फलित ज्योतिषियों को शायद सौर धब्बों के इस नये चक्र का पता नहीं है, अन्यथा अखबारों की सुर्खियों में राजा-प्रजा पर पड़ने वाले `कलंकित´ सूर्य के अनेक प्रभावों, दुष्प्रभावों की चर्चा भी जरुर हो चुकी होती। सूर्य के उत्तरी गोलार्द्ध में 4 जनवरी 08 से नये सौर धब्बों के दिखने के साथ ही २४ वां सौर धब्बा चक्र वजूद में आ गया है। फलत: उत्तरी ध्रुवीय क्षेत्र पर `ऑरोरा बोरियेलिस´ के नाम से विख्यात प्रकाश पुंजो की अद्भुत िझलमिलाहट भी उसी दिन देखी गयी। सौर वैज्ञानिकों का मानना है कि ये तो अभी आरिम्भक संकेत-शकुन भर हैं। `नोआ´ के `स्पेस वेदर प्रिडेक्शन सेन्टर´ के वैज्ञानिक डगलस बाइसेकर ने इस बार के सौर धब्बों के चक्र को उच्च सक्रियता वाला मानते हुए यह आशंका व्यक्त की है कि धरती पर इनका उत्पात 2011-12 के दौरान अपने चरम पर जा पहु¡चेगा। लेकिन भयावने सौर झंझावात - आंधियां धरती के वायु मंडल को अपने चपेट में कभी भी ले सकती हैं।

दिन ब दिन अन्तरिक्ष प्रौद्योगोकियों पर हमारी बढ़ती निर्भरता के लिहाज से इस नये सौर चक्र-24 को गम्भीरता से लिया जाना वाजिब है। मौसम के पूर्वानुमान और जी0पी0एस0 नैविगेशन के लिए उपयोग में लाये जा रहे सैटेलाइट सौर आँधियों के चपेट में आ सकते हैं, निष्क्रिय भी हो सकते हैं। यह चेतावनी `नासा´ की एक वेबसाइट के जरिये जारी की गयी है।
हवाई यात्रायें भी जोखिम भरी हो सकती हैं। क्योंकि प्रत्येक वर्ष अनेक अन्तर्महाद्वीपीय उड़ाने जो धरती के ध्रुवों से गुजरती हुई हजारों यात्रियों को गन्तव्य तक ले आ-जा रही हैं, सौर आँधियों के चपेट में आ सकती हैं। न्यूयार्क, टोक्यो, बीजिंग तथा शिकागों की उड़ाने `कम दूरी´ के उत्तर ध्रुवीय मार्ग को प्राथमिकता दे रही हैं। 1999 में `यूनाइटेड एअर लाइन्स´ द्वारा आर्कटिक के ऊपर से 12 उड़ानों का आवाजाही हुई थी जबकि 2005 तक यह तेजी से बढ़ती हुई 1, 402 तक जा पहु¡ची। सौर आँधियों की सक्रियता ध्रुवों पर ज्यादा ही होती है और इस लिहाज से ध्रुवीय रास्तों वाली इन उड़ानों को लेकर घबराहट शुरु हो गई है। `स्पेस वेदर प्रिडक्शन सेन्टर´ के खगोलविद स्टीवहिल कहते हैं- ``जब विमान ध्रुवों के ऊपर सौर आ¡धियों की चपेट में आयेंगे तो उनकी रेडियों संचार प्रणाली ठप पड़ सकती है। उनका मार्ग निर्देशन गडमड हो सकता है। ध्रुव क्षेत्रों को त्यागना ही कल्याणकारी हो सकता है। यद्यपि यह खर्चीला होगा´´

खगोलविद कहते हैं कि शुरूआती सौर चक्र-1 अपने चरम पर 1760 में था, यद्यपि उस समय और धब्बों की संख्या काफी कम थी। तब से जैसे अनवरत सौर चक्रों का दौर कायम रहा है, सौर चक्र 23 का उत्स 2001 में देखा गया था जो अब समाप्त प्राय:सा है, क्योंकि सौर चक्र-24 अब अंगड़ाइया¡ ले रहा है। यह 2011-12 में अपनी उच्चता पर जा पहुंचेगा । फिर बारी आयेगी सौर चक्र-25 की जिसके बारे मे अनुमान है कि वह बहुत न्यून गतिविधियों वाला होगा। यह अन्तरिक्ष यात्रियों के लिए सकून का समय होगा क्योंकि तब - 2022 में अन्तरिक्ष यात्राओं में सौर विकिरणों का खतरा कम होगा।
यह वह अवसर होगा जब अन्तरिक्ष अन्वेषण की गतिविधियाँ अपने उत्कर्ष पर होंगी और अन्तरिक्ष पर्यटक अन्तरिक्ष में उछल-कूद कर रहे होंगे, अन्तरिक्ष यात्री चन्द्र पड़ावों से मंगल अभियानों को उन्मुख होंगे।

खगोलशास्त्रियों ने विगत 400 वर्षो में सौर धब्बों में उतार-चढ़ाव की अच्छी खोज खबर ले रखी है। वर्ष 1645 और 1715 के मध्य सौर धब्बे लगभग नदारद ही थे- इस अवधि को `मौन्डर न्यून´ कहा जाता है। यह जानकारी सबसे पहले एडवर्ड डब्ल्यू मौन्डर (1851-1928) ने दी थी। उक्त 30 वर्षों में मात्र 50 सौर धब्बे ही देखे गये। यह अवधि एक `लघु हिम युग´ के नाम से जानी जाती है जब सारी दुनिया खासकर उत्तरी गोलार्ध के देशों ने जाड़े की भयंकर ठिठुरन झेली थी। इस अवधि में धरती तक आने वाले सौर विकिरणों में कमी से यहाँ , बेरीलियम आइसोटोपों (कार्बन-14, बेरीलियम-10) में भी कमी देखी गई थी।
खगोल शास्त्रियों का अनुमान है कि विगत् 8000 वर्षों में करीब 18 ``मौन्डर न्यून´´ अवधियों गुजर चुकी है।
सौर धब्बों की दिन प्रतिदिन गणना करने का एक सरल फार्मूला सबसे पहले जोहान रुडोल्फ वोल्फ ने दिया था जो स्विटजरलैण्ड के एक प्रसिद्ध खगोलविद् थे। ज्यूरिख़, वियेना और बर्लिन विश्वविद्यालयों में शिक्षा पाने वाले रुडोल्फ सौर धब्बों के अध्ययन में दीवानगी की सीमा तक मशगूल थे। वे 1844 में बर्न विश्वविद्यालय में खगोलशास्त्र के प्रोफेसर और 1847 में बर्न की वेधशाला के निदेशक भी बने। इन्होंने पहली बार गणना करके बताया था कि सौर धब्बों का चक्र 11 वर्ष का होता हैं सौर धब्बों की सही-सही गणना की उनकी बताई हुई विधि आज भी प्रचलन में है।